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सामाजिक न्याय क्या है? Social Justice । Samajik nyay kya hai

सामाजिक न्याय क्या है
सामाजिक न्याय क्या है

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सामाजिक न्याय क्या है?

सामाजिक न्याय (Social justice)- अंग्रेजी भाषा में ‘न्याय’ के लिए ‘Justice’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से बना है जिसका अर्थ उसी भाषा में ‘बन्धन या बाँधना’ है। इसका आशय यह है कि ‘जस्टिस’ उस व्यवस्था का नाम है। जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सम्बद्ध है। ‘समाज’ सामाजिक बन्धनों का ही एक दूसरा नाम है। समाज में बच्चे है, माता-पिता हैं, विद्यार्थी हैं, शिक्षक हैं, कर्मचारी हैं, मालिक हैं, कृषक हैं, मजदूर हैं और साधारण नागरिक है। इन सबके अपने-अपने अधिका है और एक-दूसरे के प्रति इनके कुछ कर्तव्य भी हैं। ‘न्याय’ का तकाजा है कि यह सभी अपनी-अपनी सीमाओं से परे रहे। समाज में जितने मनुष्य रहते हैं, उनमें से प्रत्येक को उसका उचित ‘अधिकार व स्थान’ दिलाने वाली व्यवस्था को ही न्यायपूर्ण व्यवस्था माना जाता है। सामाजिक न्याय भी न्याय का एक प्रकार है।

सामाजिक न्याय का मतलब यह है कि नागरिक-नागरिक के बीच में सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाय और प्रत्येक व्यक्ति को आत्म विश्वास के पूर्ण अवसर प्राप्त हों। सामाजिक न्याय की धारणा में यह बात निहित है कि अच्छे जीवन के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए और इस सन्दर्भ में समाज राजनीतिक सत्ता से यह आशा करता है कि वह अपने विद्यार्थी तथा प्रशासनिक कार्यक्रमों द्वारा एक ऐसे समाज की स्थापना करेगा, जो समानता पर आधारित हो ।

वर्तमान समय में सामाजिक न्याय का विचार बहुत अधिक लोकप्रिय है और सामाजिक न्याय पर बल देने के कारण ही विश्व के करोड़ों लोगों द्वारा मार्क्सवाद या समाजवाद के अन्य किसी रूप को अपना लिया गया है। इस सम्बन्ध में श्री नेहरू ने एक बार यह ठीक ही कहा था। कि लाखों-करोड़ों लोगों के लिए मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण का स्रोत वैज्ञानिक सिद्धान्त नहीं है, वरन् सामाजिक न्याय के प्रति उसकी तत्परता है, गेहरलिख, सोम्बार्ट, टायनवी, बर्जाइम, आदि ने इसी आधार पर मार्क्सवाद को नवीन युग का एक नया धर्म बताया है। वास्तव में, सामाजिक न्याय के बिना समानता तथा स्वतन्त्रता के आदर्श बिल्कुल निस्सार हो जाते हैं।

न्याय ‘समानता’ के सिद्धान्त का पक्षधर है। समानता के सिद्धान्त का न्यायसंगत पहलू यह है कि सभी नागरिकों के बराबर-बराबर अधिकार हों और उनके कर्तव्य भी एक जैसे हों। उदाहरणार्थ, यदि युद्धकाल में सैनिक सेवा अनिवार्य हो तो वह सभी के लिए अनिवार्य हो तथा सभी को बराबर अवधि के लिए सेना में रखा जाये। व्यवहार में ऐसा देखने में आता है कि सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्य करने वाले इंजीनियरों को जहाँ तक सम्भव हो, सैनिक भर्ती से मुक्त रखा जाता है और यदि भर्ती करनी ही पड़े तो उन्हें शीघ्र ही सैनिक सेवा से मुक्त कर दिया जाता है। समानता और न्याय की दृष्टि से यह बात उचित प्रतीत नहीं होती कि जिस व्यक्ति की भर्ती बाद में की जाये, उसे पहले अवकाश दे दिया जाये किन्तु युद्धकाल में शत्रु पक्ष द्वारा नगरों और भवनों को ध्वंस किये जाने का सिलसिला निरन्तर चलता रहता है। इसलिए सार्वजनिक हित की दृष्टि से यही न्याययुक्त माना जाता है कि इंजीनियरों और कारीगरों को जहाँ तक सम्भव हो सके, नागरिक सेवाओं के लिए सुरक्षित रखा जाये। बहुत आवश्यक होने पर उन्हें सेना में भर्ती भी किया जाना चाहिए।

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