B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

पाठ्यचर्या का अर्थ,प्रकृति,क्षेत्र एवं विशेषताएं, पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध

पाठ्यचर्याः संकल्पना, अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एवं विशेषताएं, पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध

पाठ्यचर्याः संकल्पना, अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एवं विशेषताएं, पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध

पाठ्यचर्याः संकल्पना, अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एवं विशेषताएं, पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध

प्रस्तावना

हम सभी जानते हैं कि बचपन से आज तक हमने जो भी शिक्षा प्राप्त की है इस शिक्षा प्राप्ति की प्रक्रिया के दौरान हम सभी ने कई तरह की संपन्न होने वाली प्रक्रियाएं विद्यालयों में देखी हैं, जैसे- स्कूलों में सुबह की प्रार्थनाएं, फिर निश्चित समय सारणी के अनुसार सभी कक्षाओं का संचालन, प्रायोगिक क्रिया-कलाप, वर्ष में कई बार परीक्षाओं का आयोजन एवं साथ ही वर्ष भर विद्यालय में कई प्रकार की अन्य गतिविधियों का आयोजन होना जैसे- खेलकूद प्रतियोगिता, सांस्कृतिक कार्यक्रम, पुस्तक मेला, विज्ञान प्रदर्शनी, स्काउट्स गाइड,एन०सी०सी०, राष्ट्रीय पर्वो का आयोजन आदि। आज हम सभी मिलकर इस विषय को समझेंगे की विद्यालयों में संपन्न होने वाले इन सभी इस प्रकार के क्रिलापों के क्या शैक्षिक निहितार्थ हैं ? विद्यालय में आयोजित होने वाले ये सभी कार्यक्रम किसी न किसी निश्चित उद्देश्य को लेकर ही आयोजित किये जाते हैं. इस इकाई में हम इनके स्वरूप, महत्व एवं उद्देश्यों की चर्चा करेंगे।

पाठ्यचर्या एक ऐसी धुरी के रूप में है जिसके चारो ओर कक्षा के विविध कार्य तथा विद्यालय के समस्त क्रियाकलाप विकसित किये जाते हैं। आप अपने बचपन के दिनों में स्कूलों में किये जाने वाले विविध कार्यकलापों के बारे में सोचिये और यह सोचने का प्रयास कीजिये कि हम ऐसा क्यों करते थे। इन कार्यकलापों के विविध प्रकारों के बारे में भी सोचिये कि वह एक दूसरे से किस प्रकार सम्बंधित थे। आपको याद होगा कि आपके विद्यालय में भाषा विज्ञान, गणित तथा सामाजिक विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ अन्य कौन-कौन सी क्रियाएं कराते थे। इस प्रकार यह इकाई आपके यह समझने में सहायक होगी कि कक्षा में अध्यापक जो भी करता है वह क्यों करता है तथा शिक्षा को यह अधिक उद्देश्यपूर्ण तथा जीवन के लिए उपयोगी कैसे बनाता है। इसके साथ ही पाठ्यचर्या की संकल्पना को भली भांति समझ लेने से शिक्षा के मनोवांछित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने में भी सहायता मिलेगी।

उद्देश्य

इस इकाई का अध्ययन करने के पश्चात् आप –

  1. पाठ्यचर्या की परिभाषा तथा उसकी संकल्पना समझ सकेंगे।
  2. पाठ्यचर्या की विविध परिभाषाएं बता सकेंगे।
  3. पाठ्यचर्या एवं पाठयचर्या में अंतर बता सकेंगे।
  4. पाठ्यचर्या के क्षेत्र एवं विशेषताओं को बता सकेंगे।
  5. पाठ्यचर्या के महत्व को समझ सकेंगे।
  6. पाठ्यचर्या की प्रक्रिया तथा इसके विविध सोपानों की व्याख्या कर सकेंगे।
  7. पाठ्यचर्या अध्यापक और विद्यार्थियों के लिए किस प्रकार महत्वपूर्ण है यह समझ सकेंगे।

पाठ्यचर्याः संकल्पना, अर्थ, प्रकृति

पाठ्यचर्या: संकल्पना

पाठ्यचर्या विद्यालय की शिक्षा व्यवस्था का केंद्र बिंदु है। विद्यालय में उपलब्ध सभी संसाधन जैसे- विद्यालय भवन, विद्यालय के अन्य उपकरण, पुस्तकालय की पुस्तकें तथा अन्य शिक्षण सामग्री का एक मात्र उद्देश्य पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में सहयोग देना है । कक्षा की समस्त क्रियाएं, पठ्यसहगामी क्रियाकलाप तथा मूल्यांकन की समस्त प्रक्रिया विद्यालयी पाठ्यचर्या के परिणामस्वरुप ही नियोजित की जाती हैं। प्रत्येक सभ्य समाज अपनी युवा पीढ़ी के समाजीकरण हेतु एक निश्चित शैक्षिक कार्यक्रम का नियोजन करता है । इसका क्रियान्वयन विद्यालय के माध्यम से किया जाता है इस प्रक्रिया में किन बातों का समावेश हो तथा इन्हें शैक्षिक व्यवहार और क्रियाओं के रूप में कैसे परिवर्तित किया जाये, इस सम्बन्ध में काफी मतभेद हैं बहुत पहले अरस्तू ने कहा था कि- “जो स्थितियां है…… मानव समाज इनके शिक्षण के प्रति न तो एकमत है और न शिक्षण के लिए अपनाये जाने वाले साधनों के प्रति ही।” वर्तमान समय में भी यह मतभेद विद्यमान हैं कि पाठ्यचर्या में क्या समाहित किया जाये तथा इसे कैसे संगठित तथा क्रमबद्ध करके पढ़ाया जाये । इस मतभेद के कारण ही पाठ्यचर्या की संकल्पना तथा इसके विकास के प्रति हमारे द्रष्टिकोण में एकरूपता नहीं आ सकी है।

पाठ्यचर्या शिक्षा का आधार है । पाठ्यचर्या द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति होती है। यह एक ऐसा साधन है जो छात्र तथा अध्यापक को जोड़ता है । अध्यापक पाठ्यचर्या के माध्यम से छात्रों के मानसिक, शारीरिक, नैतिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक विकास के लिए प्रयास करता है। पाठ्यचर्या द्वारा छात्र को जीवन जीने की शिक्षा प्राप्त होती है। इससे अध्यापकों को दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं। छात्रों के लिए लक्ष्य निर्धारित होने से उनमे एकाग्रता आती है। वे नियमित रहकर कार्य करते हैं । पाठ्यचर्या एक प्रकार से अध्यापक के पश्चात् छात्रों के लिए दूसरा पथ प्रदर्शक है। पाठ्यचर्या में किसी भी कक्षा के निहित विषयों के साथ-साथ स्कूल के समस्त कार्यक्रम आते हैं । पाठ्यचर्या के सन्दर्भ में सबसे लोकप्रिय परिभाषा कनिंघम की मानी जाती है । कनिंघम के अनुसार- “पाठ्यचर्या अध्यापक रुपी कलाकार (artist) के हाथ में वह साधन (tool) है जिसके माध्यम से वह अपने पदार्थ रुपी शिष्य (material) को अपने कलागृह रुपी स्कूल (studio) में अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार विकसित अथवा रूप (mould) प्रदान करता है।” इसमें संदेह नहीं कि कलाकार को अपने पदार्थ को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की बहुत स्वतंत्रता है, क्यों कि कलाकार का पदार्थ निर्जीव है, परन्तु स्कूल में अध्यापक का पदार्थ अर्थात् छात्र सजीव है । पुराने समय में जब आवश्यकताएँ सीमित थीं, साधन सीमित थे, तब अध्यापकों को अपने पदार्थ यानि कि छात्रों को नया रूप देने में पूरी स्वतंत्रता थी, परन्तु अब बदलती हुई परिस्थितियों में अध्यापक की यह भूमिका भी बदल गयी है। फिर भी निश्चय ही अध्यापक के हाथ में पाठ्यचर्या बहुत ही महत्वपूर्ण साधन है।

पाठ्यचर्या का अर्थ

पाठ्यचर्या शैक्षिक व्यवस्था का अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है । पाठ्यचर्या की अवधारणा के सन्दर्भ में प्रायः विद्वानों में एकमत राय नहीं है । पाठ्यचर्या को लोग पाठयचर्या (syllabus) या विषय वस्तु (course of study) या जैसे नामों से भी संबोधित करते हैं । पाठ्यचर्या के लिए प्रचलित ये शब्द अलग-अलग अर्थ और सन्दर्भो को प्रकट करते हैं। अतः पाठ्यचर्या को शाब्दिक, संकुचित और व्यापक तीनों अर्थों में समझने की जरुरत है । तब इसके सही स्वरूप को हम समझ सकते हैं।

पाठ्यचर्या शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- पाठ्य एवं चर्या । पाठ्य का अर्थ है- पढ़ने योग्य अथवा पढ़ाने योग्य और चर्या का अर्थ है – नियम पूर्वक अनुसरण । इस प्रकार पाठ्यचर्या का अर्थ हुआ पढ़ने योग्य (सीखने योग्य) अथवा पढ़ाने योग्य (सिखाने योग्य) । विषय वस्तु और क्रियाओं का नियम पूर्वक अनुसरण । पाठ्यचर्या के लिए अंग्रेजी में करीकुलम (Curriculum)शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह शब्द लैटिन भाषा के क्यूरेरे (Currere) से बना है जिसका अर्थ है- रनवे (Runway) या रेस कोर्स (Race Course) अर्थात् दौड़ का रास्ता या दौड़ का क्षेत्र अर्थात् किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मार्ग पर दौड़ना या ऐसे भी कह सकते हैं कि -Curriculum means a course to be run for reaching a certain goal. इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में पाठ्यचर्या छात्रों के लिए दौड़ का रास्ता या दौड़ के मैदान के समान है जिस पर चलते हुए छात्र अपने वांछित शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा करता है। राबर्ट यूलिच (Robert Ulich) ने लिखा है कि- “शिक्षा के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जिन अध्ययन परिस्थितियों में क्रमिक रुपरेखा बनायी जाती है उसे पाठ्यचर्या कहते हैं। पाठ्यचर्या में शिक्षण के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्ष शामिल होते हैं।”

संकुचित अर्थ में पाठ्यचर्या के लिए एक अन्य शब्द सिलेबस (syllabus) या पाठयचर्या शब्द भीप्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ कोर्स ऑफ स्टडी या कोर्स ऑफ टीचिंग भी है। इसे पाठ्य विवरण या पाठ्य सामग्री या अंतर्वस्तु आदि भी कहते हैं। पाठयचर्या दो शब्दों से मिलकर बना है। पाठ्य + क्रम अर्थात् किसी विषय या अध्ययन की वह विषयवस्तु जो क्रम से व्यवस्थित हो पाठयचर्या कहलाता है। पहले पाठ्यचर्या के लिए पाठयचर्या शब्द का प्रयोग किया जाता था, लेकिन अब इसके संकुचित मान्यता पर आधारित होने के कारण अब पाठ्यचर्या शब्द का प्रयोग किया जाता है । पाठयचर्या में केवल ज्ञानात्मक पक्ष से सम्बंधित तथ्य ही क्रमबद्ध होते हैं । पाठ्यचर्या तथा पाठयचर्या में सामान्य लोग भेद नहीं करते और उन्हे पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग करते हैं परन्तु इनमे पूर्ण और अंश का भेद है।

पाठ्यचर्या तथा पाठयचर्या में प्रमुख अंतर इस प्रकार हैं-

  1. पाठ्यचर्या जहाँ व्यापक संकल्पना है, वहीं पाठयचर्या सीमित संकल्पना है।
  2. पाठ्यचर्या में नियोजित शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विद्यालय और विद्यालय से बाहर, जो कुछ भी संपादित से किया जाता है, वह सब समाहित होता है, जबकि पाठयचर्या केवल विद्यालय की सीमा में कक्षा के भीतर विकसित किये जाने वाले विभिन्न विषयों के ज्ञान की रूपरेखा मात्र होता है।
  3. पाठ्यचर्या शब्द का प्रयोग कक्षा विशेष के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है; जैसे- कक्षा 8 के लिए हिंदी का पाठ्यचर्या; परन्तु पाठयचर्या शब्द का प्रयोग कक्षा विशेष के किसी विषय विशेष तक सीमित होता है; जैसे- कक्षा 8 के लिए हिंदी का पाठयचर्या ।
  4. पाठ्यचर्या संपूर्ण विद्यालयी जीवन की चर्या है जबकि पाठयचर्या पठनीय वस्तु का केवल एक क्रम मात्र होता है।
  5. पाठ्यचर्या अपने आप में सम्पूर्ण है, जबकि पाठयचर्या पाठ्यचर्या का एक अंग मात्र है।
  6. पाठ्यचर्या से सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास संभव है, जबकि पाठयचर्या से व्यक्तित्व के किसी एक पक्ष या किसी एक अंग का ही विकास संभव है।

दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि किसी स्तर की पाठ्यचर्या का वह भाग जिसमें उस स्तर के लिए सैद्धांतिक विषयों के ज्ञान की सीमा निश्चित की जाती है, पाठयचर्या होता है । स्पष्ट है कि पाठ्यचर्या और पाठयचर्या में पूर्ण और अंश का भेद होता है।

व्यापक अर्थ में पाठ्यचर्या (Curriculum) से आशय बालक के बहुआयामी विकास करने तथा शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षक द्वारा अपनायी गयी वे तमाम परिस्थितियां होती हैं जिनसे बालक ज्ञान, अनुभव, क्रिया का अर्जन तथा आदत एवं व्यवहार में परिमार्जन करता है। इस प्रकार पाठ्यचर्या में शिक्षक द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय वस्तु या पाठयचर्या की क्रियाएं, प्रयोगशाला के कार्य, सामुदायिक कार्य, लेखन, वाचन, पुस्तकालय आदि सभी के क्रिया-कलाप शामिल होते हैं। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार-“ पाठ्यचर्या में विषय सामग्री का विस्तृत वर्णन (पाठ्यचर्या ) और कुछ हद तक अध्ययन विधियों (Methodology) को भी शामिल किया जाता है जो कक्षा में सामग्री को ठीक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त की जाती हैं” ।अतः स्पष्ट है कि पाठ्यचर्या अपने व्यापक अर्थ में विद्यालय में तथा विद्यालय के बाहर अपनायी जाने वाली उन सभी सैद्धांतिक, व्यवहारिक, क्रियात्मक पहलुओं का संगठन है जो विद्यार्थियों का बहुपक्षीय विकास के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं ।व्यापक अर्थ में पाठ्यचर्या शब्द का प्रयोग अनेक रूपों में किया गया है। सामान्य रूप से इसका आशय इस प्रकार से समझा जा सकता है-

  • विद्यालय में अध्ययन के लिए निर्दिष्ट पाठ्यचर्या तथा अन्य सम्बंधित सामग्री।
  • विद्यार्थियों को पढ़ाये जाने वाली समस्त विषय सामग्री।
  • किसी विद्यालय में किसी निश्चित विषय का पाठयचर्या ।
  • विद्यालय में विद्यार्थियों को दिए जाने वाले नियोजित अधिगम अनुभवों का सम्मिलित रूप ।

पाठ्यचर्या के व्यापक अर्थ को प्रकट करते हुए माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-1953 ई०) में लिखा है कि- “पाठ्यचर्या का अर्थ केवल उन सैद्धांतिक विषयों से नहीं है जो विद्यालय में परंपरागत रूप से पढ़ाये जाते हैं अपितु इसमें अनुभवों की वह सम्पूर्णता भी निहित है जिसमें बालक विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला तथा खेल के मैदान एवं शिक्षक और शिक्षार्थियों के अनगिनत संपर्कों से प्राप्त करता है, इस प्रकार विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यचर्या बन जाता है, जो छात्रों के सभी पक्षों को प्रमाणित कर सकता है तथा विकास में सहायता दे सकता है।”

पाठ्यचर्या के सन्दर्भ में कतिपय विद्वानों ने इसे निम्न प्रकार से परिभाषित करने का प्रयास किया है-

क्रो और क्रो के अनुसार- “पाठ्यचर्या में विद्यार्थियों के विद्यालय या उसके बाहर के वे सभी अनुभव शामिल हैं जो अध्ययन कार्यक्रम में रखे जाते हैं जिसका आयोजन बालकों के मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, आध्यात्मिक और नैतिक स्तर पर विकास में सहायता करते हैं।”

के० जी० सैयेदेन के अनुसार- “पाठ्यचर्या वह सहायक सामग्री है जिसके द्वारा बच्चा अपने आप को उस वातावरण के अनुकूल ढालता है, जिसमें वह अपना दैनिक कार्य-व्यवहार करता है तथा जिसमें उसके भविष्य की योजनायें और क्रियाशीलता निहित हैं।”

डंकन ग्रिजेल के अनुसार- “विद्यालयी पाठ्यचर्या समाज की परम्पराओं, पर्यावरण एवं आदर्शों का प्रतिरूप है ।” (The school curriculum is the reflection of the traditional environment and ideas of the society)

बैंट तथा कोन्बेर्ग के अनुसार- “पाठ्यचर्या के अंतर्गत छात्रों के लिए प्रस्तुत की गयी विद्यालयीय वातावरण की वह समस्त सामग्री आती है जिसमें सारी पाठ्य-वस्तु, पठन क्रियाएं एवं विषय सम्मिलित हैं।”

कैसवेल के अनुसार- “बालकों एवं उनके माता-पिता तथा अध्यापकों के जीवन में आने वाली समस्त क्रियाओं को पाठ्यचर्या कहा जाता है । बालकों के कार्य करने के समय जो कुछ भी कार्य होता है उस सबसे पाठ्यचर्या का निर्माण होता है । वस्तुतः पाठ्यचर्या को गतियुक्त (dynamic) वातावरण कहा गया है।”

रडयार्ड तथा हेनरी के अनुसार- “विस्तृत अर्थ में पाठ्यचर्या के अंतर्गत समस्त विद्यालय का वातावरण आता है, जिसमें विद्यालय में प्राप्त सभी प्रकार के संपर्क, पठन क्रियाएँ एवं विषय
सम्मिलित हैं।”

ब्रुवेकर के अनुसार– “पाठ्यचर्या एक ऐसा क्रम है जो किसी व्यक्ति को स्थान पर पहुँचने के लिए तय करना पड़ता है।”

ड्यूवी के अनुसार- “पाठ्यचर्या केवल अध्ययन की योजना या विषय सूची ही नहीं बल्कि कार्य और अनुभव की संपूर्ण श्रृंखला है । पाठ्यचर्या समाज में कलात्मक ढंग से परस्पर रहने के लिए बच्चों के प्रशिक्षण का शिक्षकों के पास एक साधन है, सारांशतः पाठ्यचर्या सुनिश्चित जीवन का दर्पण है जो विद्यालय में प्रस्तुत किया जाता है।”

फ्रोबेल के अनुसार– “पाठ्यचर्या को मानव जाति के समस्त ज्ञान और अनुभव का सार समझना चाहिये ।”

इस प्रकार पाठ्यचर्या का सम्बन्ध सीखने वाले एवं सिखाने वाले से होता है। यह सीखने और सिखाने वाले को जोड़ने वाली एक अनियार्य कड़ी है।

पाठ्यचर्याः प्रकृति

फ्रांसिस जे० ब्राउन ने अपनी पुस्तक “शैक्षिक समाज विज्ञान” में लिखा है कि– “पाठ्यचर्या उन समग्र परिस्थितियों का समूह है जिसकी सहायता से शिक्षक तथा विद्यालय उन सभी बालकों तथा नवयुवकों के व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं जो विद्यालय से होकर गुजरते हैं।” इससे यह स्पष्ट होता है कि पाठ्यचर्या विद्यालय की व्यवस्था का मूल आधार होती है । शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था पाठ्यचर्या पर केन्द्रित होती है। पाठ्यचर्या द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। शिक्षक और शिक्षार्थी पाठ्यचर्या को केंद्र में रख कर विचारों के आदान-प्रदान द्वारा किसी चीज को सीखते हैं तथा व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं। पाठ्यचर्या से ही छात्र जीवन जीने की कला(Art of living) सीखते हैं। पाठ्यचर्या की प्रकृति को निम्नलिखित तथ्यों से हम इस प्रकार से समझ सकते हैं-

  • पाठ्यचर्या सदैव पूर्ण नियोजित होती है इसमें निहित क्रियाओं को आवश्यकतानुसार एकाएक विकसित नहीं किया जा सकता है।
  • पाठ्यचर्या के चार मुख्य आधार होते हैं -सामाजिक शक्तियां, स्वीकृत सिद्धांतों द्वारा प्राप्त मानव विकास का ज्ञान, अधिगम का स्वरुप, तथा ज्ञान और संज्ञान का स्वरूप। इस प्रकार पाठ्यचर्या किसी विशिष्ट समाज के एक विशिष्ट आयु वर्ग के बच्चों की शिक्षा के लिए निर्मित होती है। किसी विशिष्ट व्यवसाय हेतु कक्षा आठ की बालिकाओं के लिए विकसित पाठ्यचर्या इसी कक्षा के लड़कों के लिए पूरी तरह निरर्थक भी हो सकती है।
  • पाठ्यचर्या के लक्ष्य या प्रयोजन उससे सम्बंधित शैक्षिक उद्देश्यों से निर्दिष्ट होते हैं। ये उद्देश्य ही साध्य हैं तथा स्वीकृत पाठ्यचर्या इन्हें प्राप्त करने का साधन है । पाठ्यचर्या अध्यापक के अनुदेशों को नियोजित करने में सहायक होती है। अधिगम अनुभवों की गुणवत्ता तथा सार्थकता ही पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन के प्रभाव का निर्धारण करती है।
  • अध्यापक अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों के लिए एक ही प्रकार के अधिगम अनुभवों का नियोजन करता है फिर भी अपने अधिगम अनुभवों तथा अपनी सहभागिता के स्तर एवं गुणवत्ता के कारण छात्रों में भिन्नता दिखाई देती है उनमें व्यक्तिगत भेद तथा सामाजिक प्रष्ठभूमि की विभिन्नता एक प्रकार के परिणाम के लिए उत्तरदायी है यही कारण है कि एक ही कक्षा के प्रत्येक छात्र की वास्तविक पाठ्यचर्या उसी कक्षा के अन्य छात्रों की पाठ्यचर्या कि अपेछा भिन्न होती है।
  • प्रत्येक अधिगमकर्ता की अपनी वास्तविक पाठ्यचर्या के अस्तित्व के परिणामस्वरुप निर्दिष्ट पाठ्यचर्या तथा क्रियान्वित पाठ्यचर्या के बीच पाए जाने वाले अंतर के कारण अध्यापक की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं उसे कक्षा में न केवल लचीली व्यवस्था प्रदान करनी होती है वरन अधिगम के सार्थक विकल्प भी खोजने पड़ते हैं। किसी दी गयी पाठ्यचर्या के उद्देश्य, आधार तथा मापदंड की दृष्टी से अध्यापक में उपयुक्त व्यावसायिक निर्णय लेने कि क्षमता निहित होनी चाहिए।

पाठ्यचर्याः क्षेत्र एवं विशेषताएं

पाठ्यचर्याः क्षेत्र

हर समाज राज्य अथवा राष्ट्र की अपनी मान्यताएं, विश्वास, आदर्श, मूल्य और आवश्यकताएं होती हैं, इनकी पूर्ति के लिए वह शिक्षा का विधान करता है और शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन विषयों का ज्ञान एवं क्रियाओं का प्रशिक्षण आवश्यक समझा जाता है उन्हें पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाता है । इस प्रकार पाठ्यचर्या शिक्षक और छात्रों के सामने स्पष्ट एवं निश्चित लक्ष्य रखती है और उनकी प्राप्ति के लिए उनके कार्य निश्चित करती है। नियोजित शिक्षा के लिए पाठ्यचर्या की बहुत आवश्यकता होती है। यह सर्वविदित है कि जो आवश्यक है वह उपयोगी होगा और साथ ही उसका एक निश्चित महत्व होगा । यही बात पाठ्यचर्या पर भी लागू होती है।

पाठ्यचर्या के क्षेत्र को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

1. पाठ्यचर्या के माध्यम से शिक्षा की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती है। शिक्षा के किस स्तर (पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च) पर किन पाठ्य विषयों को पढ़ाना है, किन क्रियाओं को सिखाना है और किन अनुभवों को देना है ये सभी बातें पाठ्यचर्या में स्पष्ट रूप से दी जाती हैं । इस प्रकार से विद्यालयी जीवन के कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा पाठ्यचर्या में मिलती है।

2. पाठ्यचर्या के उपलब्ध हो जाने से आवश्यक एवं वांछित पाठ्य सामग्री को पुस्तक की रचना के समय ध्यान में रखा जाता है। इससे उपयुक्त एवं स्तरानुकूल पुस्तकों का निर्माण हो
पता है जिनसे बालक के विकास में सहायता मिलती है।

3. पाठ्यचर्या छात्र एवं अध्यापक दोनों को सही दिशा बोध कराती है इससे समय और शक्ति का अपव्यय नहीं होता है। दोनों निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं और समय पर वहां पहुँच जाते हैं। इस प्रकार पाठ्यचर्या द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति संभव हो पाती है।

4. एक निश्चित स्तर के लिए एक निश्चित पाठ्यचर्या होने से पूरे प्रदेश अथवा देश में शैक्षिक स्तर की समानता और एकरूपता बनी रहती है जब किसी नए विषय की पढ़ाई किसी शिक्षा संस्था में प्रारंभ हो जाती है अथवा कोई नयी योजना लागू की जाती है तब सबसे पहले पाठ्यचर्या को ही निर्धारित करना पड़ता है।

5. पाठ्यचर्या से मूल्यांकन सरल और संभव होता है। बिना पाठ्यचर्या के मूल्यांकन करना संभव नहीं होता है। अतः मूल्यांकन के लिए पाठ्यचर्या एक निश्चित आधार प्रदान करती है।

6. पाठ्यचर्या से उद्देश्यों की प्राप्ति संभव होती है।

7. पाठ्यचर्या से समय और शक्ति का सदुपयोग होता है।

पाठ्यचर्या के मुख्य रूप से निम्न भेद दिखाई पड़ते हैं –

  1. विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या
  2. बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या
  3. मिश्रित पाठ्यचर्या
  4. आधारभूत पाठ्यचर्या
  5. क्रिया केन्द्रित पाठ्यचर्या
  6. अनुभव केन्द्रित पाठ्यचर्या
  7. समाकलित केन्द्रित पाठ्यचर्या
  8. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या
  9. कोर पाठ्यचर्या

पाठ्यचर्या: विशेषताएं

हर व्यक्ति की अपनी कुछ आवश्यकताएं होती हैं व्यक्ति की भांति समाज और देश की भी अपनी- अपनी आवश्यकताएं होती हैं । आवश्यकता के परिक्षेत्र में शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं इन उद्देश्यों की प्राप्ति विषयों के ज्ञान और क्रियाओं के माध्यम से होती है इन विषयों और क्रियाओं को पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाता है। पाठ्यचर्या से पता लगता है कि क्या पढ़ना और क्या पढ़ाना है ? किन क्रियाओं में भाग लेना है ? इसलिए छात्र और अध्यापक दोनों के लिए पाठ्यचर्या की आवश्यकता होती है। छात्र के व्यक्तित्व विकास के लिए शिक्षा एक साधन है। व्यक्तित्व विकास के उद्देश्य से पाठ्यचर्या में अनेक बौद्धिक विषयों को सम्मिलित किया जाता है अनेक क्रियाओं और खेल-कूदों का आयोजन होता है अनेक कौशलों को सिखाया जाता है पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशाला आदि की समुचित व्यवस्था की जाती है। इस प्रकार बालक की सुप्त शक्तियों को जगाने और उनके विकास के निमित्त पाठ्यचर्या आवश्यक प्रतीत होती है।

जब बालक विभिन्न विषयों को पढ़ता है, विभिन्न क्रियाओं में भाग लेता है, विभिन्न तरह के अनुभव प्राप्त करता है तब इन सबके द्वारा उसे अपने समाज की, अपने देश की परम्परा और संस्कृति से परिचय होता है । संस्कृति की रक्षा के साथ-साथ बालक अपनी सृजनात्मक शक्तियों द्वारा उस संस्कृति में आवश्यक परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं परिष्कार करता है। समाजीकरण की इस प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से भाग लेने के लिए पाठ्यचर्या की बहुत आवश्यकता होती है। पाठ्यचर्या विद्यालयीय कार्यक्रम की एक निश्चित योजना प्रस्तुत करती है। विभिन्न स्तरों के विद्यालयों में बालकों के मानसिक स्तारानुकूल किन क्रियाओं को सिखाया जायेगा और किन विषयों को पढ़ाया जायेगा यह पाठ्यचर्या द्वारा ही निश्चित हो पाता है। पाठ्यचर्या कि सहायता से पुस्तकें निर्धारित कि जाती हैं। पाठ्यचर्या के आधार पर मूल्यांकन कार्य सरल हो जाता है । पाठ्यचर्या विशेष कर प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर समाजोपयोगी उत्पादन कार्य एवं कार्यानुभव पर बल देकर शिक्षा को जीवन से जोड़ती है। इन सब कारणों से पाठ्यचर्या आवश्यक है। पाठ्यचर्या की विशेषताओं या महत्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है।

1. शिक्षक के लिए महत्व – पाठ्यचर्या से शिक्षक को अपने शिक्षणके स्वरुप का निर्धारित करने, शिक्षण का संचालन करने तथा छात्रों की उपलब्धियों को जानने का अवसर प्राप्त होता है। पाठ्यचर्या से शिक्षक अपनी शिक्षण विधि का चयन करने में समर्थ होता है और छात्रों का उचित प्रकार से मार्गदर्शन करने में समर्थ होता है।

2. शिक्षार्थियों के लिए महत्व – शिक्षार्थी को इससे अपने शिक्षा के उदेश्यों को पूरा करने में मदद मिलती है । छात्रों को पाठ्यचर्या से पूर्व तैयारी का अवसर मिलता है तथा वे यह जानने में समर्थ होते हैं कि अमुख विषयों में कितना तथ्य पढ़ना है? अर्थात् पाठ्यचर्या के आधार पर शिक्षार्थी अपनी अध्ययन योजना बनाते हैं तथा उस पर चलकर सफलता की प्राप्ति करते हैं।

3. समाज के लिए महत्व- पाठ्यचर्या से समाज को भी लाभ पहुँचता है। समाज पाठ्यचर्या द्वारा नवीन मंतव्यों को जानता है तथा उसके अनुरूप अपनी जीवन शैली एवं मान्यताओं को समय के साथ बदलता जाता है। पाठ्यचर्या से ही समाज में पारस्परिक मान्यताओं के स्थान पर परिवर्तित मान्यताओं का दिग्दर्शन होता है। कारण यह है कि विद्यालयी जीवन में पाठ्यचर्या में निहित नवीन मान्यताओं एवं तथ्यों को सीखने के बाद जब बालक विद्यालयी जीवन से निकलकर सामाजिक जीवन में पदार्पण करता है तो वह समाज को कुछ नवीनता युक्त मंतव्य देता है जब इसका व्यापक स्तर पर प्रचार प्रसार हो जाता है तो वह नवीन आयाम, तथ्य, विचार, मान्यता, मूल्य के साथ मिलकर उस आदर्श समाज का अभिन्न अंग बन जाता है। इस प्रकार पाठ्यचर्या समाज के लिए भी उपयोगी है।

4. सांस्कृतिक उन्नयन हेतु महत्व- समाज एवं संस्कृति के उन्नायक तत्वों को पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाता है । यह तत्व शिक्षा एवं समाज दोनों के उन्नयन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । पाठ्यचर्या के सांस्कृतिक मूल्यों की सीख प्राप्त करके विद्यार्थी अपनी संस्कृति एवं सभ्यता की विशिष्टता, उसकी मौलिकता, करणीय एवं अकरणीय कर्तव्यों, जीवनदर्शों का ज्ञान प्राप्त करते हैं । कालान्तर में ऐसे बालक ही विद्यालय से निकलकर अपनी सृजनात्मक प्रतिभा द्वारा सांस्कृतिक विरासत की रक्षा तथा उसके उन्नयन हेतु समर्पित होकर कार्य करते हैं।

5. अवबोध के विकास हेतु महत्व- विद्यालय में बालक विविध विषयों का जब अध्ययन करता है एवं विविध पाठ्य सहगामी क्रियाओं में हिस्सा लेता है तथा अध्ययन के द्वारा पाठ्यचर्या से तरह-तरह के अनुभव अर्जित करता है तो इससे उसकी अंतर्दृष्टि (बोध) प्रखर बनती है और उसमें अवबोध (समझदारी) का प्रकटन होता है।

1.5 पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध

पाठ्यचर्या छात्र और अध्यापक दोनों के लिए अति महत्तवपूर्ण अंग होती है। यह छात्र के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक होती है। इससे छात्र समाजीकरण की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। पाठ्यचर्या यह निश्चित करने के लिए भी महत्तवपूर्ण है कि विभिन्न मानसिक स्तर के विद्यालयों में पढ़ने वाले बालकों के उनके मानसिक स्तर के अनुकूल कौन सी क्रियाएँ सिखाना है और कौन सी नहीं ? यह छात्रों को समुचित पुस्तकों के निर्धारण एवं चयन में सहायक होती है। इससे छात्रों को अपना मूल्यांकन कार्य करने में सरलता होती है । यह छात्रों को समाजोपयोगीउत्पादन कार्य और कार्यानुभव पर बल देकर शिक्षा को जीवन से जोड़ने के लिए प्रेरित करती है। इससे क्या पढ़ाना है? क्या सिखाना है? क्या कार्यानुभव देना है? यह शिक्षक ज्ञात कर सकते हैं। इससे छात्र और अध्यापक दोनों को सही दिशा बोध कराने से समय और शक्ति की बचत हो जाती है यह अधिगम हेतु सही समय का निर्धारण करने में उपयोगी होती है। इससे बालकों की मनोवैज्ञानिक आवश्कता की पूर्ति होती है। पाठ्यचर्या के निर्माण एवं क्रियान्वयन में अध्यापक का विशेष महत्व है। पाठ्यचर्या शिक्षा प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग है। शिक्षा के उद्देश्य तभी पूरे होते हैं जबकि पाठ्यचर्या का निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से होता है और यह निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से तभी हो सकता है जबकि अध्यापक और छात्र सजग एवं जागरूक हों और उत्साह तथा लगन के साथ इस कार्य में भाग लें। आदर्श पाठ्यचर्या तो वह है जो प्रत्येक छात्र का सर्वांगीण विकास कर सके परन्तु ऐसे पाठयचर्या का निर्माण अभी तो कोरी कल्पना है । यह कार्य तभी संभव है जबकि प्रत्येक अध्यापक प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग पाठयचर्या का निर्माण करे । वैसे विकसित देशों में इस प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं, जिनमे शिक्षा तथा पाठयचर्या बाल केन्द्रित हो। कहने का आशय यह है कि बालक की रुचियों, अभिरुचियों तथा शक्तियों के विकास के लिए अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हों । हमे इस प्रकार की पाठ्यचर्या के निर्माण एवं क्रियान्वयन के प्रति सजग रहना होगा।

सारांश

पाठ्यचर्या के निर्माण एवं क्रियान्वयन में सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था का अभूतपूर्व योगदान रहता है। पाठ्यचर्या एक ऐसी धुरी के रूप में है जिसके चारो ओर कक्षा के विविध कार्य तथा विद्यालय के समस्त क्रियाकलाप विकसित किये जाते हैं ।पाठ्यचर्या विद्यालय की शिक्षा व्यवस्था का केंद्र बिंदु है। विद्यालय में उपलब्ध सभी संसाधन जैसे- विद्यालय भवन, विद्यालय के अन्य उपकरण, पुस्तकालय की पुस्तकें तथा अन्य शिक्षण सामग्री का एक मात्र उद्देश्य पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में सहयोग देना है। कक्षा की समस्त क्रियाएं, पठ्यसहगामी क्रियाकलाप तथा मूल्यांकन की समस्त प्रक्रिया विद्यालयी पाठ्यचर्या के परिणामस्वरुप ही नियोजित की जाती हैं । पाठ्यचर्याशिक्षा का आधार है। पाठ्यचर्या द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति होती है। यह एक ऐसा साधन है जो छात्र तथा अध्यापक को जोड़ता है। अध्यापक पाठ्यचर्या के माध्यम से छात्रों के मानसिक, शारीरिक, नैतिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक विकास के लिए प्रयास करता है। पाठ्यचर्या द्वारा छात्र को जीवन जीने की शिक्षा प्राप्त होती है। इससे अध्यापकों को दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं। छात्रों के लिए लक्ष्य निर्धारित होने से उनमे एकाग्रता आती है । वे के समस्त नियमित रहकर कार्य करते हैं । पाठ्यचर्या एक प्रकार से अध्यापक के पश्चात् छात्रों के लिए दूसरा पथ प्रदर्शक है । पाठ्यचर्या में किसी भी कक्षा के निहित विषयों के साथ-साथ स्कूल कार्यक्रम आते हैं। पाठ्यचर्या में शिक्षण के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्ष शामिल होते हैं। शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था पाठ्यचर्या पर केन्द्रित होती है । पाठ्यचर्या द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। शिक्षक और शिक्षार्थी पाठ्यचर्या को केंद्र में रख कर विचारों के आदान-प्रदान द्वारा किसी चीज को सीखते हैं तथा व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं। अंत में हम कह सकते हैं कि पाठ्यचर्या किसी भी विद्यालय की व्यवस्था का मूल आधार होती है।

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