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शिक्षक को प्रतिबद्धता के क्षेत्र कौन से है ? स्पष्ट कीजिये।

शिक्षक को प्रतिबद्धता के क्षेत्र कौनसे है ? स्पष्ट कीजिये ।
शिक्षक को प्रतिबद्धता के क्षेत्र कौनसे है ? स्पष्ट कीजिये ।

शिक्षक को प्रतिबद्धता के क्षेत्र कौन से है ? स्पष्ट कीजिये ।

शिक्षा प्रक्रिया के तीन प्रमुख अंग- शिक्षक, शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम में, शिक्षक का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया की धुरी शिक्षक होता है। उसके निर्देशन के अभाव में विद्यार्थी समाज ज्ञानार्जन की उचित दिशा का अनुसरण नही कर सकता। पाठ्यक्रम को सरल और बोधगम्य बनाने में शिक्षक की भूमिका प्रमुख होती है। शिक्षक, शिक्षा प्रकिया को देश-कला के अनुरूप सही दिशा प्रदान करते है। एक शिक्षक की भूमिका निर्धारित पाठ्यक्रम को समाप्त करने से लेकर भावी नागरिको के सर्वांगीण विकास तक होती है। इस प्रकार व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण की प्रकिया में शिक्षक की भूमिका अनिवर्चनीय है। इसी कारण गुरू को प्राचीन काल से ही देवत्व से भी उच्च स्थान प्रदान किया गया है-

गुरू ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरूः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

जे.एफ.ब्राउन का कथन है कि- “सभी तथ्यों को देखते हुए मै इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि ‘शिक्षक’ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अङ्ग है। पाठ्यक्रम, पाठ्य सामग्री और शिक्षालय संगठन यद्यपि शिक्षण व्यवस्था के उपयोगी अङ्ग है, परन्तु वे तब तक निर्जीव रहते है जब तक कि शिक्षक के सजीव व्यक्तित्व द्वारा उनमें प्राणो का संचार नहीं हो जाता है।”

डॉ. राधाकृष्णन के विचारानुसार- “समाज में शिक्षक का कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी बौद्धिक परम्पराओं तथा शिक्षण कौशलों के हस्तान्तरण के उपक्रम के रूप में सभ्यता के प्रकाश को प्रकाशित रखने में सहायक होता है।”

माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार- “हम यह भली-भाँति समझ गए है कि विचार युक्त शैक्षिक पुनर्निर्माण में सर्वाधिक महत्व शिक्षक का है और उसके व्यक्तिगत गुण, शैक्षणिक योग्यताएँ, व्यावसायिक प्रशिक्षण और समाज में स्वंम् उसके द्वारा प्राप्त स्थान सभी महत्वपूर्ण है।

कोठारी आयोग के अनुसार- “शिक्षक-शिक्षा को, विकास की कुञ्जी मानना चाहिए।”

प्राचीन भारत में कक्षा नायकीय प्रणाली प्रचलित थी । गुरु विशिष्ठ योग्य शिष्यों को नए शिष्यों को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व सौंपते थे। इस व्यवस्था में कक्षा नायकों में ज्ञान की गहनता आती थी तथा उनका प्रशिक्षण भी हो जाता था। कक्षा नायक अध्यापन में गुरू की प्रणाली का ही अनुसरण करते थे। प्राय: अपने

मध्यकाल में भी शिक्षकों की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नही आया। प्राय: मुल्ला मौलवी ही शिक्षण कार्य वंश-परम्परा के आधार पर करते थे। अध्यापक प्रशिक्षण का कोई प्रश्न ही नहीं था। कक्षा-नायकीय प्रणाली इस काल में प्रचलित रही। बड़ी कक्षा के योग्य छात्र छोटी कक्षाओं के छात्रों को अपने उस्ताद की पद्धति के आधार पर ही पढ़ाते थे।

ब्रिटिश भारत में आधुनिक अर्थों में शिक्षक-शिक्षा का आरम्भ हुआ। इस काल में अध्यापन एक वृत्ति के रूप में विकसित होने लगा था। अत: अध्यापन में प्रशिक्षण की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी थी। सन् 1882 में भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1904 में लॉर्ड कर्जन की शिक्षा नीति, 1929 में हर्टाग समिति, 1944 में सार्जेण्ट रिपोर्ट में शिक्षक प्रशिक्षण के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये।

स्वतन्त्र भारत में शिक्षक प्रशिक्षण के स्थान पर शिक्षक-शिक्षा शब्द का प्रयोग किया जाता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में शिक्षक-शिक्षा की सुविधाएँ बढ़ी। विभिन्न शिक्षा आयोगों का गठन किया गया, प्रत्येक में शिक्षक-शिक्षा के विषय में सुझाव दिये गये। अध्यापक शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा कार्यक्रम का एक आवश्यक भाग है जिसका प्रमुख उद्देश्य शिक्षण हेतु प्रभावी एंव कौशल युक्त अध्यापक तैयार करना है इसलिए 1970 के दशक में दक्षता आधारित में अध्यापक शिक्षा प्रारम्भ की गई इसको 1960 के आस-पास उपलब्धता आधारित अध्यापक शिक्षा की संज्ञा दी गई थी।

दक्षता आधारित अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम के अध्यापकों में शिक्षण हेतु विकास के लिए अनुसंधान आधारित एंव व्यवस्थित प्रशिक्षण का आवश्यकतानुसार प्रावधान एंव स्वरूप विकसित किया गया इन्ही आवश्यकताओं को अध्यापक दक्षता की संज्ञा दी गई जिसके पाँच प्रमुख वर्ग निर्धारित किए गये-

(1) संज्ञानात्मक आधारित दक्षताएँ।

(2) उपलब्धि आधारित दक्षताएँ।

(3) क्रमबद्धता आधारित दक्षताएँ।

(4) भावनात्मक दक्षताएँ।

(5) अनुसंधान (खोज) दक्षताएँ।

एक अध्यापक उपर्युक्त दक्षताओं का मूल्यांकन छात्र उपलब्धियों के अनुरूप किया जाता है। इसलिए कक्षा में छात्र उपलब्धियों से तात्पर्य अध्यापक द्वारा प्रदर्शित विभिन्न दक्षताओं का परिणाम है इससे अध्यापक की परम्परागत शिक्षण में परिवर्तन आया है। इन परिवर्तनों को अध्यापक के व्यवहार के आधार पर निम्न प्रकार से सारांशित किया जा सकता है

(i) शिक्षण व्यक्तिगत एंव व्यक्ति विशेष के अनुसार।

(ii) छात्र के अधिगम अनुभवो को प्रतिपुष्टि के द्वारा निर्देशन

(iii) शिक्षण में क्रमबद्धता

(iv) छात्र में अपेक्षित व्यवहारगत परिर्वतन ।

(v) अन्वेषण एंव शिक्षण मोड्यूल के रूप में।

इससे अध्यापको के सेवारत् एंव सेवा पूर्व प्रशिक्षण कार्यक्रमों में नवीन उपागमों का समावेश किया गया है और वांछनीय दक्षताओं के लिए प्रयास किया गया। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् ने प्रत्येक स्तर की शिक्षा के लिए अध्यापको में दक्षताओं को पहचाना है तथा उन्हें विकसित करने का प्रयास सेवा पूर्ण एंव सेवारत प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है।

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