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कबीर के काव्य में समाज सुधार की सशक्त भावना है।

कबीर के काव्य में समाज सुधार की सशक्त भावना है।
कबीर के काव्य में समाज सुधार की सशक्त भावना है।

कबीर के काव्य में समाज सुधार की सशक्त भावना है। | कबीरदास समाज में व्याप्त पाखण्ड एवं आडम्बर के प्रबल विरोधी हैं

कबीर का समय संघर्ष का समय था। उस समय मुसलमान भारत को परतंत्र बना चुके थे तथा तलवार के जोर पर अपने धर्म का भी विस्तार कर रहे थे। मुसलमान जहाँ हिन्दुओं को काफिर कहते थे और अपने से नीचा समझते थे वहीं हिन्दू उन्हें विधर्मी और म्लेच्छ कहते हुए उनसे मन-ही-मन घृणा करते थे। इसके साथ ही हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में बहुत से बाह्य आडम्बर थे। हिन्दू जाति-पाँति और छुआछूत की भावना से बुरी तरह ग्रसित थे। कबीर ने निर्भीकता के साथ समाज की सभी बुराइयों का खंडन किया और एक आदर्श सुखी समाज की कल्पना को साकार रूप देना चाहा। यही कबीर का समाज सुधार था। कबीर के समाज सुधारक रूप को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है। इन बिन्दुओं को दो भागों में बाँटना उचित होगा-समाज सुधार का खण्डन पक्ष और सृजन पक्ष ।

(क) समाज सुधार का खण्डन पक्ष- जिसे कबीर का खण्डन पक्ष कहा जाता है, वास्तव में वह समाज की बुराइयों का वर्णन है। दोषों को बताये बिना और विरोध प्रदर्शन किये बिना किसी का सुधार सम्भव नहीं है। कबीर ने हिन्दुओं और मुसलमानों की जिन बुराइयों का खण्डन किया, उनमें प्रमुख ये हैं-

(1) शाक्तों का खण्डन-शक्ति के उपासक शाक्त कहलाते थे। उनमें माँस, मदिरा और परस्त्री गमन को धर्म का आचरण माना जाता था। कबीर वैष्णव थे, इसलिए उन्होंने शाक्तों का खण्डन नहीं किया, अपितु इसलिए किया कि वे समाज को कुमार्ग पर ले जा रहे थे। कबीर ने दृष्टि में शाक्त का सुधार और उद्धार सम्भव नहीं था ।

साकत सण का जेबड़ा, भीगी सूँ कउठाइ ।

दोउ आखिर गुरु बहिरा, बांध्या जमपुर जाई ।।

(2) मूर्ति पूजा का खण्डन- कबीर ने मूर्ति पूजा का खण्डन इसलिए नहीं किया कि इस्लाम धर्म मूर्ति पूजा का विरोधी था, अपितु इसलिए किया कि मूर्ति पूजा हिन्दू समाज में अन्धविश्वास फैला रही थी और अज्ञानी जनों के शोषण का साधन बनी हुई थी। कबीर की दृष्टि में मूर्ति पत्थर के अतिरिक्त कुछ नहीं थी। इसी कारण उन्होंने चक्की को मूर्ति से अधिक उपयोगी बताया-

पाहन पूजैं हरि मिलें तो मैं पूजूं पहार।

ताते यह चाकी भली, पीसि खाइ संसार ।।

(3) जाति व्यवस्था का विरोध- जाति अथवा वर्ण के आधार पर ऊँच-नीच की भावना केवल हिन्दू जाति में है। अछूत जुलाहा जाति का होने के कारण कबीर को स्वयं अपमान सहना पड़ता था। कभी जाति कर्म से मानी जाती रही होगी, पर कबीर के जन्म से बहुत पहले से जाति जन्म से मानी जाती थी। जाति के आधार पर कबीर ने ब्राह्मण की श्रेष्ठता का विरोध करते हुए कहा है-

जो तू बाँभन बाँभनी जाया ।

आन गह ह्वै क्यों नहीं आया ।।

हिन्दू-मुसलमान की व्यवस्था भी हमी लोगों की है। वे तुर्क अर्थात् उच्च जाति के मुसलमानों को भी इसी ढंग से सम्बोधित करके कहते हैं-

जो तू तुरक तुरकिनी जाया ।

भीतर खतना क्यों न कराया ।।

(4) बाहरी आडम्बरों का विरोध- कबीरदास के समय हिन्दू और मुसलमान दोनों में बहुत से पाखण्ड और आडम्बर थे। इन्हीं के कारण उनमें विरोध और संघर्ष होता था। कबीर ने हिन्दू मुसलमान दोनों को राह भटका बताया है-

अरे इन दोउन राह न पाई ।

कबीर ने बाहरी आडम्बरों में निम्नलिखित का खण्डन किया है-

(अ) तिलक- शैव, शाक्त और वैष्णव सभी तिलक लगाते थे। कबीर जिस वैष्णव की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे, उसका तिलक भी उन्हें आडम्बर जान पड़ा-

बैस्नो भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।

छापा तिलक बनाइ करि, दूगध्या लोग अनेक।।

(ब) बार-बार सिर मुड़ाना-विकार तो मनुष्य के मन में होता है।  बार-बार सिर मुड़ाने के बाद से विकार नहीं चला जाता-

केरों कहा बिगारिया जो मूँड़ौ सौ बार ।

मन को काहे न मूँड़िये जामें विषय विकार ।।

(स) तीर्थयात्रा- लोग समझते हैं कि तीर्थों में जाने से पापों का नाश हो जाता है। कबीर ने इसका विरोध करते हुए कहा है-

तीरथ चले दुइ जनाँ चित चँचल मन चोर।

एकौ पाप न उतारिया, दस मन लाये और ।।

कबीर ने मुसलमानों की हज यात्रा को भी नहीं छोड़ा है

देव पूजि हिन्दू मुये तुरुक मुये हज जाइ।

जटा बाँधि योगी मुये, इने किन्हुँ न पाइ ।।

(द) माला-हिन्दू-मुसलमान दोनों ही जप अथवा भजन करते समय माला फेरते हैं। माला से मन की बुराई दूर नहीं होती।

माला फेरत जग मुआ गया न मन का फेर ।

करकर मनका डारि के मन का मनका फेरि ।।

(य) मुल्ला की अजान-मुल्ला ऊँची मस्जिद पर चढ़कर अजान देता है। यदि खुदा सर्वव्यापक (हाजिर नाजिर) है तो इतने जोर से चिल्लाना बेकार है-

काँकर पाथर जोरि कर मस्जिद लई बनाई।

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाई ।।

(5) हिंसा का विरोध-माँस भक्षण के समय पशुओं की हिंसा कबीर के सात्विक मन को बहुत कचोटती थी। दिन भर रोजा रखने वाले का रात को गाय वध करना सर्वव्यापक ईश्वर की प्रसन्नता का कारण नहीं हो सकता-

दिन को रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय ।

कह कबीर वह वन्दगी, कैसे खुश खुदाय ।।

(6) परनिन्दा का विरोध-लोग अपने दोष न देखकर दूसरों की निन्दा करते हैं। फटकार लगाते हुए कबीर ने कहा है-

दोस पराये देखि कर चला हसन्त-हसन्त ।

आपन चांति न आवई जिनका आदि न अन्त।।

(7) भेड़चाल अथवा रूढ़िवाद की निन्दा – बिना सोचे-विचारे लोग रीति अथवा धर्म ग्रन्थों को भी कबीर ने निन्दा की है-

पाछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथ ।

आगे थे सतगुरु मिल्या दीपक दीया हाथ ।।

(ख) समाज सुधार का सृजन पक्ष-कबीर वास्तव में समाज का भला करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उस समय के समाज के दोषों का विरोध करने के साथ-साथ कुछ ऐसी बात कहते जिससे समाज का निर्माण होता था । खण्डन करते समय कबीर जितने आक्रामक थे, सृजन की बातें करते समय उतने ही विनम्र बन गये हैं। कबीर की समाज सुधार हेतु सृजन सम्बन्धी निम्नलिखित बातें प्रमुख हैं-

(1) एकेश्वरवाद और निर्गुणोपासना- हिन्दू और मुसलमानों का विरोध बहुदेववाद और सगुण उपासना के कारण था। कबीर एक ईश्वर और निर्गुण ब्रह्म पर दोनों ही विश्वास करते थे। इसी कारण उन्होंने हिन्दुओं से कहा-

दुइ जगदीश कहाँ ते आया, कहु कौने भरमाया ।

(2) मानवतावाद – कबीर सभी मनुष्यों को समान तथा एक मानने के पक्षपाती थे। ब्राह्मण और शूद्र का अन्तर उनकी समझ में नहीं आता था-

एक बूँद एकै मलमूतर एक चाम एक गूदा ।

ऐ जोति तें सब उपजआ को बामन को सूदा ।।

(3) सार ग्रणह का समर्थन- साधुओं को अर्थ के पचड़ों में न पड़कर साधारण जनों को सार का उपदेश देना चाहिए-

साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाई ।

सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाई ।।

जो दूसरों की पीड़ा न समझे, उसे कबीर मुसलमानों का पीर मानने को तैयार नही थे-

कबिरा सोई पीर है जो जाने पर पीर।

जो परं पीर न जानइ सो काफिर बेपीर ।।

(4) प्रेम का समर्थन- कबीर समाज सुधार के लिए सच्चे प्रेम को आवश्यक मानते थे । यदि सबके मन में ईश्वर तथा मनुष्यों के प्रति सच्चा प्रेम हो तो समाज की सभी बुराईयाँ अपने आप मिट जायेंगी। पुस्तकों के ज्ञान से कोई पण्डित नहीं होता ।

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोइ ।

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होइ ।।

(5) हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल- कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों को राह भूला ही नहीं बताया, दोनों को समान बताकर मित्रता से रहने का भी संकेत दिया-

हिन्दू कहते हम बड़े मुसलमान कह हम्म ।

एक चनै के दो दले कुण जादा कुण कम्म ।।

हिन्दू और मुसलमानों का राम और रहीम के नाम पर लड़ना कबीर को व्यर्थ जान पड़ता था-

हिन्दू कहै मोहि राम पियारा तुरक कहै रहमाना ।

आपस में दोई लड़ि-लड़ि मुए, मरम न काहू जाना ।।

कबीर के सच्चे गुरु ने हिन्दू और मुसलमानों के धर्मों का लक्ष्य एक ही बताया था-

हिन्दू तुरक की एक राह है सतगुरु यहै बताया।

इस विवेचना से स्पष्ट है कि कबीर सच्चे समाज सुधारक थे। वे न हिन्दू थे, न मुसलमान थे। वे धर्म-निरपेक्ष सच्चे भारतीय थे। कबीर किसी जाति अथवा धर्म के नहीं मानवता के समर्थक थे। समाज सुधार हेतु कबीर की बुराइयों का खण्डन साधारण साहस की बात नहीं थी। कबीर बनारस में रहते थे जो सारे संसार से अलग भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी हुई मानी जाती थी। वहाँ के वेद पाठ और विद्याभिमानी ब्राह्मणों का विरोध कबीर के आत्मबल और साहस का परिचय देता था। कबीर के समय में मुसलमानों का शासन था। वह समय आज के समान धर्म-निरपेक्ष शासन अथवा राज्य का नहीं था। उस समय राज धर्म के विरोध में बोलने वाले को प्राण दण्ड दिया जाता था। कबीर ने प्राणों की बाजी लगाकर मुल्ला की अजान, मुसलमानों के रोजा आदि का खण्ड किया था।

कबीर किसी को गाली नहीं देना चाहते थे। वे किसी का अहित भी नहीं सोचते थे। उनका खण्डन उस डॉक्टर के समान था जो स्वस्थ अंग की रक्षा के लिए दूषित अंग को काटकर फेंक देता है। कबीर की समाज सुधार की सर्वनात्मक बातें कटे पर मरहम लगाने अथवा पट्टी बाँधने के समान थीं। कबीर के वचन ही नहीं, उनका जीवन भी दूसरों को सच्चा मार्ग दिखाने वाला था। कबीर की कथनी और करनी एक थी। कबीर कहने में नहीं, करने में विश्वास रखते थे

कथनी कथी तो क्या भया जो करणीं ना ठहराइ

काल दूत के कोट क्यों देखत ही ढइ जाइ।

जैसी मुखतें नीकसे तैसी चाले चाल ।

परब्रह्म नेड़ा रहै पल में करै निहाल ।।

कबीर सच्चे समन्वयवादी थे। उनके समाज सुधारक रूप की सभी ने प्रशंसा की है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने कबीर की इसलिए प्रशंसा की है कि उन्होंने बुरे मार्ग पर चलने वालों को अच्छे मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया। कबीर केवल कटु आलोचक नहीं हैं, अपितु एक सच्चे समाज सुधारक भी हैं और उनकी इस आलोचना में सन्तुलित समदृष्टि एवं अद्भुत सुधार विद्यमान है। यही कारण है कि कबीर ने जो कुछ कहा है, निर्द्वन्द्व एवं गम्भीर होकर कहा है और ‘अरे इन दोउन राह न पाई’ कहकर दोनों ही मिथ्या मार्ग प्रेमियों को सही राह पर लाने का प्रयत्न किया है।

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