भारतीय मुसलमानों में प्रचलित विवाह पर एक निबन्ध
अर्थ व उद्देश्य
हिन्दू विवाह से भिन्न मुस्लिम विवाह एक धार्मिक संस्कार न होकर एक समझौता होता है जिसका उद्देश्य बच्चे पैदा करना व उन्हें वैधता प्रदान करना होता है। इसीलिए कहा गया है: मुस्लिम कानून के अनुसार मुस्लिम विवाह की परिभाषा का सार ऊपर की व्याख्या में आ गया, फिर भी कानून के अनुसार मुस्लिम विवाह विषमलिंगियों के मध्य एक समझौता है जिसका उद्देश्य पारस्परिक सुख, सन्तानोत्पत्ति व बच्चों को वैधता प्रदान करना है। डी. एफ. मुल्ला ने लिखा है विवाह (निकाह) एक समझौते के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका उद्देश्य बच्चों को जन्म देना व उन्हें वैधता प्रदान करना है।
विवाह की शर्तें
(1) विवाह के समय समझौते के योग्य होना। सही दिमाग हो और वर की कम से कम 15 वर्ष उम्र हो,
(2) नाबालिक बच्चों के विवाह उनके संरक्षकों की स्वीकृति से हो सकते हैं।
(3) विवाह की स्वीकृति स्वेच्छा से बिना दबाव के दी जानी चाहिए।
(4) एक मुसलमान एक समय में चार पत्नियाँ रख सकता है किन्तु स्त्री को एक समय में एक विवाह की ही अनुमति है।
(5) एक मुसलमान अपने धर्म की स्त्री के अतिरिक्त कितबिया विवाह यहूदी या ईसाई स्त्री से कर सकता है किन्तु मूर्ति पूजकों से विवाह की आज्ञा नहीं हैं। मुस्लिम स्त्री को यह सुविधा नहीं है।
(6) मुसलमानों में अति निकट के रक्त सम्बन्धियों में विवाह का वर्जन है। विवाह की शर्तें न मानने से विवाह फासिद या अनियमित तथा वातिल या अवैध हो सकता है। शर्ते मानने से ही विवाह सही होता है।
पत्नी के अधिकार व कर्त्तव्य
विवाह से पत्नी को अनेक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं तथा इनके बदले में उसे कुछ कर्तव्य भी निभाने पड़ते हैं।
पत्नी के कर्तव्य (1) पति के यहां सदाचरण वाली होनी चाहिए। (2) पति के प्रति वफादार होने के साथ-साथ उसे आज्ञाकारिणी होना चाहिए। (3) यदि धाय न हो तो बच्चे को दूध पिलाना। (4) पति के तलाक व मृत्यु के समय इद्दत का पालन इद्दत तीन माह का वह समय है जब तलाक के बाद सहवास नहीं किया जाता। इसका आशय यह जानना है कि कहीं स्त्री गर्भवती तो नहीं है।
पत्नी के अधिकार- (1) मेहर लेने का अधिकार (2) गुजारे तथा मकान में रहने का अधिकार (3) खर्च-ए-पानदान (4) अन्य पत्नियों के साथ आदर पाने का अधिकार (5) बच्चों के भरण-पोषण का अधिकार ।
मुसलमानों में दो प्रकार के विवाहों का प्रचलन है (1) निकाह (2) मुताह
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