विवाह के भेद (Types of Marriage )
मानव समाज के विकास के साथ-साथ विवाह के विभिन्न प्रकारों का भी जन्म हुआ है। पति-पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के प्रकारों को निम्न प्रकार रेखांकित कर सकते हैं-
विवाह दो प्रकार के होते हैं-
1. एक विवाह (Manogamy)
बुकेनोविक के अनुसार उस विवाह को एक विवाह कहना चाहिये जिसमें न केवल एक पुरुष की एक पत्नी अथवा एक स्त्री का एक ही पति को बल्कि दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाने पर दूसरा पक्ष विवाह न करें। एक विवाह में एक समय में एक पुरुष का एक ही स्त्री से विवाह करता है। इसके भी कई रूप पाये जाते हैं। एक रूप वह है जिसमें एक पुरुष एक स्त्री से विवाह होता है एवं किसी एक पक्ष की मृत्यु हो जाने पर दूसरा विवाह नहीं हो सकता है। इसे एकल विवाह कहते हैं।
हिन्दुओं में अधिकांशतः एक विवाह ही होता है। इस विवाह के अन्तर्गत पुरुष या नारी के जीवन में एक से अधिक नारी या पुरुष नहीं रह सकता है। धर्मग्रन्थों में भी एक ही पत्नी का उल्लेख है अतः जो व्यक्ति अपनी एक पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह नहीं करता है वह आदर्श पुरुष कहलाता है। पत्नी की मृत्यु के पश्चात वह दूसरा विवाह कर सकता है।
2. बहु विवाह (Polygamy)
जब एकाधिक पुरुष अथवा स्त्री विवाह के बन्धन में बंघते हैं तो इस तरह के विवाह को बहु विवाह कहते है। बहु विवाह के मुख्यतः चार रूप पाये जाते हैं – बहुपति विवाह, बहु-पत्नी विवाह, द्विपत्नी विवाह एवं समूह विवाह। इसके दो भेद हैं –
(i) बहुपति विवाह- हिन्दुओं में बहुपति विवाह का प्रचलन बहुत सीमित क्षेत्रों में मिलता है। विशेष रूप से जनजातीय समाजों में इसका प्रचलन है। नायरों में बहुपति विवाह का प्रचलन मिलता है। डॉ. कपाड़िया के अनुसार, खस, नायर, इरावन, मालावार के कुर्ग, टोडा जनजातियों में बहुपति विवाह का व्यापक प्रचलन मिलता है। मार्टिन ने मध्य भारत के उरांव व मेन के संथालों में इस प्रथा का प्रचलन बताया है। ब्राह्मण संस्कृति में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। संक्षेप में कुछ हिन्दुओं और विशेषकर जनजातियों में बहुपति विवाह का रिवाज पाया जाता है किन्तु इसका क्षेत्र उत्तरोत्तर संकुचित होता जा रहा है। बहुपति विवाह के भी दो रूप पाये जाते हैं –
(अ) भ्रातृक बहुपति विवाह- जब दो या दो से अधिक भाई मिलकर किसी एक स्त्री से विवाह करते हैं या सबसे बड़ा भाई किसी एक स्त्री से विवाह करता है तथा अन्य भाई स्वतः ही उस स्त्री के पति माने जाते हैं। इस तरह के विवाह को भ्रातृक विवाह कहते हैं। इस तरह के विवाह का प्रचलन टोडा, रवस एवं कोटा लोगों एवं पंजाब के पहाड़ी भागों, लद्दाख, कांगड़ा जिले के स्पीती एवं लाहौल परगनों में पाया जाता है।
(ब) अभ्रातृक विवाह- इस प्रकार के विवाह में पति परस्पर भाई नहीं होते हैं। स्त्री बारी बारी से समान अवधि के लिए प्रत्येक पति के पास रहती है। इस तरह के विवाह को अभ्रातृक विवाह कहते हैं। इस तरह के विवाह का प्रचलन टोडा तथा नायरों लोगों में है।
(ii) बहुपत्नी विवाह- बहुपति की अपेक्षा बहुपत्नी विवाह का प्रचलन हिन्दुओं में अधिक मिलता है। वैदिक काल से लेकर वर्तमान समय तक इस प्रथा के अनेक प्रमाण मिलते हैं। बहुपत्नीत्व प्रथा विशेष रूप से राजा, महाराजा, सामन्त, पुरोहित आदि में अधिक पाई जाती है। विवाह के इस रूप को नियम की अपेक्षा अपवाद मानना अधिक उचित होगा। अब उच्च जातियों की अपेक्षा निम्न जातियों में यह प्रथा अधिक पाई जाती है।
(iii) द्विपत्नी विवाह- बहु विवाह का एक रूप द्विपत्नी विवाह भी होता है। इस तरह के विवाह में एक पुरुष एक साथ दो स्त्रियों से विवाह करता है। कई बार पहली स्त्री के सन्तान न होने पर दूसरा विवाह कर लिया जाता है। इस तरह के विवाह करने का प्रचलन आरगेन तथा एस्कीमो जनजातियों में है। भारत में भी दक्षिण की कुछ जनजातियों में इस प्रथा का प्रचलन है।
(iv) समूह विवाह समूह- विवाह में पुरुषों का एक समूह स्त्रियों के एक समूह से विवाह करता है एवं समूह का प्रत्येक पुरुष समूह की प्रत्येक स्त्री का पति होता है। परिवार एवं विवाह की प्रारम्भिक अवस्था में यह स्थिति रही होगी, ऐसी उद्विकासवादियों का मानना है। इस प्रथा का प्रचलन आस्ट्रेलिया की जनजातियों में है जहाँ पर एक कुल की सभी लड़कियाँ दूसरे कुल की भावी पत्नियाँ समझी जाती हैं। इस सम्बन्ध में वेस्टरमार्क का कहना है कि इस तरह के विवाह भारत, श्रीलंका एवं तिब्बत के बहुपतित्व वाले समाजों में पाये जाते हैं।
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