हिन्दू विवाह के उद्देश्य
परिवार की तरह विवाह भी एक सार्वभौमिक और सार्वकालिक संस्था है। इतिहास में न तो ऐसे समाज का पता चलता है और न ही ऐसे युग का जब विवाह का कोई न कोई रूप प्रचलित न रहा हो फिर भी प्रत्येक मानव समाज में विवाह के स्वरूप, प्रकार, आदर्श, जीवन साथी के चुनाव, सन्तानों की वैधता, अगम्यगमन की धारणा आदि निजी विशेषताओं के कारण पर्याप्त भिन्नता मिलती है। हिन्दू समाज में प्रचलित विवाह की अपनी विशिष्टता है, अपनी मौलिकता है।
हिन्दू विवाह संविदा न होकर एक धार्मिक संस्कार है, जिसका उद्देश्य जीवन में विभिन्न पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना है। इसे एक अनिवार्य कृत्य भी माना जाता है, क्योंकि हिन्दुओं में यह मान्यता है कि बिना विवाह के उन दायित्वों को पूरा नहीं किया जा सकता, जिन्हें सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग माना जाता है।
स्मृतिकारों के अनुसार हिन्दू विवाह के तीन उद्देश्य माने गये हैं- 1. धर्म, 2, प्रजा, 3. रति। यहाँ यह स्मरणीय है कि धर्म पालन को विवाह का प्रमुख आदर्श व उद्देश्य माना गया है तथा रति (यौन क्रिया) के सुख को गौण ।
हिन्दू विवाह के प्रकार
1. ब्राह्म विवाह
ब्रह्मचारी, विद्वान, कुलीन व सुशील वर को स्वयं बुलाकर कन्या को वस्त्र, अलंकार आदि से सुसज्जित करके कन्यादान देना ब्राह्म विवाह कहलाता है। इस विवाह को श्रेष्ठ व उत्तम विवाह माना जाता है। इसी का सर्वाधिक प्रचलन भी है।
2. दैव विवाह
जब यज्ञ करने वाले पुरोहित को वस्त्र और अलंकार से सुसज्जित कन्या का दान किया जाता था तो उसे दैव विवाह कहा जाता था। प्राचीनकाल में यज्ञों का बड़ा महत्व था। अतः पुरोहित से विवाह अच्छा समझा जाता था, किन्तु इसका प्रचलन संदिग्ध है।
3. आर्ष विवाह
आर्ष विवाह ऋषियों से सम्बन्धित विवाह था। सामान्यतः ऋषि लोग विवाह के प्रति उदासीन होते थे। उनकी इच्छा को जानने के लिए ऋषि को एक गाय, एक बैल या इनकी एक जोड़ी अपने भावी ससुर को देनी पड़ती थी।
4. प्रजापत्य विवाह
वर और वधू को वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में उपदेश देकर आशीर्वाद दिया जाता था कि तुम दोनों मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन करो। इसके बाद विधिवत वर की पूजा करके कन्या का दान प्रजापत्य विवाह कहलाता था। प्रजापत्य व ब्राह्म विवाह में कोई मौलिक अन्तर नहीं था फिर भी ब्राह्म विवाह सम्पन्न लोगों के लिए किन्तु प्रजापत्य सामान्य लोगों के लिए था।
5. असुर विवाह
असुर विवाह में वर पक्ष को कन्या के पिता या अभिभावक को कन्या मूल्य चुकाना होता था। इस मूल्य की कोई सीमा निश्चित नहीं थी। यह कन्या के गुण व परिवार के स्तर के आधार पर निश्चित किया जाता था। यह विवाह अच्छा न माने जाने के कारण केवल निम्न जातियों में प्रचलित था। इसे निकृष्ट विवाह कहा गया है। इस प्रकार से प्राप्त स्त्री को पत्नी नहीं कहा जाता था।
6. गान्धर्व विवाह
इसे प्रेम विवाह भी कहा जाता है। यह विवाह वर और कन्या की इच्छा और परस्पर प्रेम व काम के वशीभूत होने के फलस्वरूप होता था। इसमें माता-पिता की अनुमति या कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं थी। वात्सायन इसे आदर्श विवाह मानता है किन्तु अनेक शास्त्रकार इसे अच्छा नहीं मानते।
7. राक्षस विवाह
लड़ाई करके छीन-झपट कर कपट करके स्वजनों को मारकर, घायल कर रोती कलपती हुई कन्या का हरण कर उससे विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है। क्षत्रिय लोग इस विवाह को अधिक करते थे, इसीलिए इसे क्षात्र विवाह भी कहा जाता है। कन्या हरण कर विवाह करने का सर्वाधिक प्रचलन महाभारत काल में था।
8. पैशाच विवाह
जब सोती हुई, नशे से उन्मत्त अथवा पागल कन्या के साथ जबर्दस्ती अथवा धोखे व चोरी से यौन सम्बन्ध स्थापित किया जाये, जिससे विवाह के अलावा कन्या के पास कोई चारा न रह जाये तो इस प्रकार के विवाह को पैशाच विवाह कहा जाता है।
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