अवमूल्यन का अर्थ-Meaning of Devaluation in Hindi
अवमूल्यन का अर्थ (Meaning of Devaluation)-अवमूल्यन का अर्थ है सरकारी दर में कमी जिस पर एक मुद्रा का दूसरी मुद्रा में विनिमय किया जाता है। दूसरे शब्दों में अवमूल्यन दो मुद्राओं की स्थिर विनिमय दर में गिरावट को कहा जाता है। जब दो करेंसी के सापेक्ष मूल्य को सरकार द्वारा स्वीकृत स्तर पर स्थिर कर दिया जाता है, तब करेंसी के मूल्य को इस स्वीकृत स्थिर स्तर पर निर्धारित मूल्य से कम कर दिया जाता है तो उसे अवमूल्यन कहा जाता है। यदि किसी देश की मुद्रा डालर से अन्य देशों की मुद्राओं की तुलना में कम होती है तो इसे अवमूल्यन कहा जाता है। मुद्रा के मूल्य में गिरावट मुद्रा की देशपारीय माँग तथा आपूर्ति पर निर्भर रहते हुए तय की जाती है। मुद्रा का अवमूल्यन संकेत करता है कि एक मुद्रा का विदेशी विनिमय बाजार मूल्य नीचे चला गया है। जब एक डालर की दर रुपये से ऊँची हो जाती है, तो यह रुपये का अवमूल्यन कहलायेगा।
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अवमूल्यन की परिभाषा
अवमूल्यन को विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-
डॉ० गांगुली के अनुसार, “अवमूल्यन से अभिप्राय किसी देश के चलन का बाह्य मूल्य कम कर देने से है।”
पॉल एनजिंग के अनुसार, “अवमूल्यन का आशय मुद्राओं की अधिकृत समताओं में गिरावट लाने से होता है। “
अवमूल्यन का आशय मुद्रा के आन्तरिक मूल्य को कम करना नहीं होता है। जब सरकार द्वारा मुद्रा का बाह्य मूल्य कम कर दिया जाता है तो इसका आशय यह नहीं होता है कि मुद्रा का आन्तरिक मूल्य भी कम कर दिया गया है।
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अवमूल्यन के परिणाम (Effects of Devaluation)
(1) आयातों में वृद्धि – यह तय किया गया था कि अवमूल्यन से आयातों को कम किया जा सकेगा परन्तु ऐसी नहीं हुआ तथा आयात में वृद्धि हुई।
(2) मूल्य वृद्धि – जब मुद्रा का अवमूल्यन किया जाता है तो इससे न केवल आयातित वस्तुओं के मूल्य बढ़ते हैं बल्कि सामान्य कीमत सूचकांक भी बढ़ता है। अवमूल्यन से निर्यात घटता एवं आयात बढ़ता है।
(3) मुद्रा प्रसार- मुद्रा के मूल्य में अवमूल्यन का तुलनात्मक लागत लाभ बहुत कम समय तक रहता है।
(4) भुगतान शेष में सुधार नहीं – अवमूल्यन से भुगतान असन्तुलन बढ़ा है क्योंकि इससे निर्यात पर्याप्त मात्रा में नहीं बढ़े हैं।
(5) विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण- भारत में विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने हेतु रुपये का अवमूल्यन किया। इन संस्थाओं ने रुपये के अवमूल्यन हेतु दबाव डाला था।
(6) विदेशी कोषों का प्रवाह बढ़ना- अवमूल्यन से विदेशी कोषों के प्रवाह को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण सफलता मिलती है।
(7) तस्करी पर अस्थायी नियन्त्रण- मुद्रा के अवमूल्यन से कम अवधि के लिए ही सही तस्करी जैसी गतिविधियों पर रोक लगी।
(8) उत्पादन में वृद्धि नहीं- भारत में मुद्रा का अवमूल्यन उत्पादन में वृद्धि की आशा के कारण किया गया परन्तु उत्पादन में अत्यन्त मामूली वृद्धि हुई, आशातीत सफलता नहीं प्राप्त हो सकी।
निष्कर्ष- इस प्रकार निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अवमूल्यन से भारत को कोई विशिष्ट लाभ नहीं प्राप्त हुआ है। इससे न तो निर्यात व उत्पादन ही बढ़े हैं और न ही आयातों पर नियन्त्रण लगाया जा सका है।
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अवमूल्यन के उद्देश्य
अवमूल्यन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं- (1) देश की मुद्रा के आन्तरिक मूल्य को ऊँचा रखने के लिए अवमूल्यन किया जाता है। (2) भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए अवमूल्यन किया जा सकता है। (3) कोई भी देश मुद्रा का बाह्य तथा आन्तरिक मूल्य में कोई अन्तर न होने पर अपने निर्यात बढ़ाने तथा आयात कम करने के उद्देश्य से अवमूल्यन कर सकता है। (4) जब कोई भी देश अपनी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वस्तुओं का मूल्य गिरा देता है या राशिपातन की नीति को अपनाता है तो इसके हानिकारक प्रभाव से बचने के लिए अवमूल्यन करना अति आवश्यक हो जाता है। (5) विदेशी ऋण प्राप्त करने के उद्देश्य से अवमूल्यन किया जा सकता है। (6) कोई भी देश यदि मुद्रा संकुचन नहीं करना चाहता है तो स्थिर विनिमय दरों के लिए तथा आयात कम करने के उद्देश्य से अवमूल्यन कर सकता है। (7) जब दो देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हों तब एक देश के द्वारा अवमूल्यन किये जाने पर दूसरा देश भी अवमूल्यन करने के लिए बाध्य हो जाता है।
भारतीय रुपये के अवमूल्यन के कारण (Causes)
1. भारत की स्टर्लिंग क्षेत्र की सदस्यता – भारतीय रुपये का स्टलिंग से समबन्ध अप्रैल 1947 को टूटा था, लेकिन फिर भी भारत को स्टर्लिंग क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण सदस्य माना जाता रहा है। स्टर्लिंग क्षेत्र के लगभग सभी सदस्यों के द्वारा अपनी-अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन कर लिए जाने पर भारत को भी इनका अनुसरण करना पड़ता है।
2. भारत का डॉलर संकट-अमेरिका के प्रति भारत का भुगतान सन्तुलन युद्धोत्तर काल में लगातार विपक्ष में चला आ रहा था। इसका कारण है कि अमेरिका से भारत के आयातों में काफी वृद्धि हुई थी लेकिन निर्यात की मात्रा को नहीं बढ़ाया जा सकता था। इस कारण भारत के सामने डॉलर की कठिन समस्या उत्पन्न हो गयी थी। इस संकट को दूर करने के लिए भारत ने कई प्रयास किये किन्तु सफलता नहीं मिली। इसलिए डॉलर घाटे को कम करने के लिए रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा।
3. भारत के स्टर्लिंग क्षेत्र व्यापार- स्वतन्त्रता से पूर्व भारत का लगभग 75 प्रतिशत विदेशी व्यापार स्टर्लिंग क्षेत्र के देशों से होता था। अगर भारत के द्वारा अवमूल्यन न किया जाता तो दूसरे देशों की तुलना में भारतीय माल काफी महँगा पड़ जाता। फलस्वरूप भारत के विदेशी व्यापार में कमी आ जाती।
4. भारत का अमेरिका से व्यापार- भारत यदि रुपये का अवमूल्यन न करता तो अवमूल्यन करने वाले स्टर्लिंग क्षेत्र के देशों के माल की तुलना में भारतीय माल अमेरिका के लिए काफी महँगा हो जाता। इसलिए रुपये का अवमूल्यन आवश्यक था। 5. भारत के स्टर्लिंग पावनों के मूल्य में कमी-स्ववन्त्रता से पूर्व भारत की स्टर्लिंग निधि में लगभग 1,773 करोड़ रुपये की राशि थी। यदि अवमूल्यन न किया जाता तो स्टर्लिंग निधि का मूल्य कम हो जाता।
6. भारत की कीमत स्तर ऊँचा होना – सन् 1949 में भारत में अत्यधिक मुद्रास्फीति के कारण देश की कीमत स्तर अन्य अवमूल्यन न करने वाले देशों की वस्तुआं से भारत की वस्तुएँ प्रतिस्पर्धा न कर पाती।
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अवमूल्यन का प्रभाव (Effects)
लाभ- अवमूल्यन से निम्नलिखित लाभ प्राप्त हुए हैं –
(1) सन् 1949 में स्टर्लिंग क्षेत्र का डॉलर कोष 1968 मिलियन डॉलर था किन्तु जून 1950 में यह बढ़कर 12422 मिलियन डॉलर हो गया। स्टर्लिंग क्षेत्र का सदस्य होने के कारण भारत इन कोषों के उपयोग का अवसर पा सका।
(2) अवमूल्यन के कारण डॉलर क्षेत्र में हमारे निर्यातों को प्रोत्साहन मिला और आयातों में कमी हुई।
(3) भारत के भुगतान सन्तुलन पर अवमूल्यन का अनुकूल प्रभाव पड़ा। सन् 1948-49 के भुगतान शेष का घाटा 183.45 करोड़ रुपये था जो सन् 1950-51 में 20.21 करोड़ रुपये रह गया। अवमूल्यन से मूल्यों में स्थिरता बनी रही।
हानियाँ – अवमूल्यन से भारतीय अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित हानियाँ भी हुई हैं –
(1) अवमूल्यन के बाद भारत में कई वस्तुओं की कीमतों तथा स्फीति में दबावों में वृद्धि की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देने लगी।
(2) अवमूल्यन से भारत के आर्थिक विकास में अड़चनें आने लगी क्योंकि अवमूल्यन के फलस्वरूप उनका बोझ बढ़ गया।
(3) भारत ने अमरीका तथा विश्व बैंक से जो डॉलर ऋण ले रखे थे, रुपये के अवमूल्यन के फलस्वरूप उनका बोझ बढ़ गया।
(4) रुपये के अवमूल्यन के कारण भारत के स्टर्लिंग पावनों का वह भाग जो डॉलरों में परिवर्तनशील था उसका मूल्य लगभग 30.5 प्रतिशत कम हो गया।
(5) अवमूल्यन का भारतीयों के जीवन स्तर पर बुरा असर पड़ा। इसका कारण है अवमूल्यन से अमेरिका से आयात किये गये खाद्य पदार्थों की कीमतों में 40 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी, साथ ही सरकार के द्वारा उपभोग वस्तुओं के आयात पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिये जाने से इनकी कमी हो गयी।
अवमूल्यन की सफलता हेतु आवश्यक शर्तें (Condition)
अवमूल्यन अथवा विनिमय दर में ह्यस भुगतान शेष के घाटे को दूर कर सकता है। क्योंकि इसमें विदेशी मुद्रा के रूप में निर्यात की कीमत घट जाती है तथा घरेलू बाजार में आयात की कीमत बढ़ जाती है। आवश्यक नहीं है कि अवमूल्यन के उद्देश्य (भुगतान शेष में घाटे को समाप्त करना) पूरे ही होंगे। अवमूल्यन का तात्कालिक प्रभाव वही होता है जो व्यापार शर्त में परिवर्तन का होता है। निर्यात वस्तुओं के उत्पादन में लगे उन्हीं साधनों से अवमूल्यन के कारण आयात के भुगतान के लिए कम विदेशी विनिमय प्राप्त होता है। यदि आयात पहले के ही बराबर होता है तो इसके भुगतान के लिए अधिक निर्यात करना होगा अर्थात् घरेलू उपभोग तथा निवेश कम करके अधिक उत्पत्ति का निर्यात होगा, यथास्थिति को बनाये रखने के लिए। इसका अर्थ यह होगा कि भुगतान शेष को किसी प्रकार का लाभ पहुँचाये बिना अवमूल्यन करने वाले देश की वास्तविक आय में कमी आयेगी।
अवमूल्यन भुगतान ‘शेष को तभी लाभ पहुँचेगा जब निर्यात तथा आयात की माँग लोच अनुकूल हो अर्थात् माँग लोचदार हो । निर्यात की माँग के विदेशों में लोचदार होने पर, अवमूल्यन के कारण विदेशी करेंसी की कीमत घटने के कारण, निर्यात की मात्रा बढ़ेगी तथा लोचदार आयात की मात्रा घटेगी क्योंकि घंटे-घंटे मुद्रा की बाह्य कीमत बढ़ जायेगी।
अतएव, अवमूल्यन एक ऐसा यन्त्र है जिसका उपयोग अन्तिम हथियार के रूप में करना चाहिए। ब्रिटेन में इसके उपयोग के पूर्व घरेलू बाजार में अवस्फीति तथा विदेशी ऋण का सहारा लिया जाता है। भारत में भी वर्तमान सफल अवमूल्यन के लिए उपर्युक्त शर्तों का पूरा होना अति आवश्यक है।
अवमूल्यन का निर्यात पर प्रभाव
जब भी रुपये का मूल्य गिरता है अर्थात् अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य भी गिर जाता है। मुद्रा के मूल्य में यह ह्रास चाहे जिस वजह से हुआ हो चाहे यह केन्द्रीय बैंक द्वारा किया गया हो, या बाजार शक्तियों द्वारा हुआ हो इन दोनों ही स्थितियों में भारतीय वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य विश्वबाजार में कम हो जाता है ‘जिसका परिणाम यह होता है कि विश्वबाजार में हमारी वस्तुओं और सेवाओं की माँग बढ़ जाती है। हम कह सकते हैं कि 1991 में आर्थिक सुधार की जो प्रक्रिया शुरू की गयी उससे रुपये के मूल्य में ह्रास हुआ है तथा भारत के निर्यात में डॉलर के रूप में वृद्धि हुई है।
सन् 2002 में सरकार की मध्यकालिक निर्यात रणनीति यह थी कि उचित विनिमय दर नीति के माध्यम से विश्व निर्यात में भारत का वर्तमान हिस्सा 0.7 प्रतिशत से बढ़कर 1.0 प्रतिशत हो जाये। मई 2002 में भारत का विदेशी विनिमय रिजर्व 55 मिलियन अमेरिकी डॉलर था फिर भी रुपये के मूल्य में ह्रास होता जा रहा है क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक रुपये के न्यून मूल्य की सहायता से भारतीय निर्यात को मदद कर रहा है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि रुपये का अवमूल्यन सदैव निर्यात को प्रोत्साहित नहीं करता। यह एक सीमा तक ही सम्भव है। निर्यात में वृद्धि के लिए यह भी जरूरी है कि निर्यात वस्तुओं की किस्म, विश्वसनीयता आदि भी विश्वस्तर की होनी चाहिए।
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