शिक्षा की संकल्पना तथा शिक्षा का प्राचीन अर्थ | Concept & Ancient Meaning of Education
शिक्षा की संकल्पना
Concept of Education
शिक्षा की संकल्पना – शिक्षा मनुष्य के विकास की पूर्णता की अभिव्यक्ति है। शिक्षा के द्वारा ही इच्छा शक्ति की धारा पर सार्थक नियन्त्रण स्थापित हो सकता है। शिक्षा को शब्द संग्रह अथवा शब्द समूह के रूप में न देखकर विभिन्न शक्तियों के विकास के रूप में देखा जाना चाहिये। शिक्षा से ही व्यक्ति सही रूप में चिन्तन करना सीखता है। तथ्यों के संग्रह मात्र का नाम शिक्षा नहीं है, इसका सार मन में एकाग्रता के रूप में प्रकट होना चाहिये। शिक्षा व्यक्तियों का निर्माण करती है, चरित्र को उत्कृष्ट बनाती है और व्यक्ति को संस्कारित करती है। जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है, वही सही अर्थ में शिक्षा है। शिक्षा स्वयं को पहचानने एवं अपनी शक्तियों को पहचानने की क्षमता का विकास करती है। शिक्षा एक साधन है, जो व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को प्रखर करती है, उसमें जो अन्तर्निहित शक्तियाँ हैं, उनको विकसित करती है।
इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शिक्षा बालक के नैतिक,शारीरिक, संवेगात्मक, बौद्धिक एवं आन्तरिक ज्ञान को बाहर लाने में योग देने वाली एक क्रिया है। शिक्षा सीखना नहीं है, वरन् मस्तिष्क की शक्तियों का अभ्यास और विकास है। साधारण बोलचाल में शिक्षा का अर्थ विद्यालयी शिक्षा से लिया जाता है। बात्यावस्था में प्राथमिक शिक्षा आरम्भ होती हैं। बालक के भावी जीवन की तैयारी तथा उसमें क्षमतापूर्वक दायित्व निभाने की क्षमता प्रदान करना शिक्षा का उद्देश्य समझा जाता है।अत: हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के जीवन में शिक्षा ऐनमा परिवर्तन लाती है जिससे । वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारम्भिक शिक्षा वह निरन्तर उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो सकता है। शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो जीवन पर्यन्त चलती है।
शिक्षा की संकल्पना के सम्बन्ध में शिक्षाशास्त्रियों के विचार अग्रलिखित प्रकार हैं-
(1) प्लेटो के अनुसार – “शिक्षा से मेरा अभिप्राय उस प्रशिक्षण से है, जो अच्छी आदतों के द्वारा बालक में नैतिकता का विकास करती है।”
(2) अरस्तू के शब्दों में – “शिक्षा स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करती है।”
(3) काण्ट ने कहा है – “शिक्षा व्यक्ति की उस पूर्णता का विकास है, जिस पर वह पहुँच सकता है।”
(4) स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में – “हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।”
(5) डीवी के अनुसार – “शिक्षा विकास है एवं विकास करना तथा अभिवृद्धि करना ही जीवन है।”
(6) रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में – “शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करना है।”
(7) गाँधीजी ने भी शिक्षा में ‘मानवता’ की ओर दृष्टिपात किया है।
शिक्षा का प्राचीन अर्थ
Ancient Meaning of Education
प्राचीनकाल में शिक्षा का अभिप्राय आत्म-ज्ञान तथा आत्म-प्रकाश के साधन के रूप में लिया जाता था। समय-समय पर आवश्यकतानुसार शिक्षा का अर्थ तथा महत्त्व बदलता रहा है। प्राचीन यूनान में व्यक्ति को राजनैतिक, मानसिक, शारीरिक एवं नैतिक सौन्दर्य के लिये शिक्षा दी जाती थी। रोम में शिक्षा का उद्देश्य केवल वीर सैनिक उत्पन्न करना था। प्राचीनकाल में हमारे देश में नीति नियम था, अनुशासन था, जो धर्म और सत्य का पर्याय होते हुए भी जीवन का गन्तव्य धा। हमारा आचरण नीतिपरक था साथ ही शारीरिक और आत्मिक सम्बन्ध भी नैतिकता से ओतप्रोत था।
नीति हमारी संस्कृति की नींव थी, जिस पर हमारे जीवन का भवन व्यवस्थित था। यही कारण है कि नीति-आधारित संस्कारजन्य शिक्षा व्यवस्था से हम सुखी थे। उस समय जीवन के प्रत्येक कार्यकलाप में नैतिकता मापदण्ड थी, यही आदर्श थी, जो मनुज को मारकर मनुजता को अमरत्व प्रदान करती थी। ऐसे मनुज आज के विद्यालय एवं महाविद्यालय के उपक्रम में अशिक्षित एवं असाक्षर कहे जा सकते हैं, लेकिन आज उनकी अमूल्य निधि ग्रहण करने की आवश्यकता है। आज के सन्दर्भ में उसी नैतिक स्वरूप के पुनरुद्धार की महती आवश्यकता है। आज की शिक्षा यदि हमें नागर और नागरिक नहीं बना पा रही है तो इसके मूल में नैतिकता की कमी है।
प्राचीन शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को नैतिक जीवन से परिपूर्ण करना था और बालक में अन्त:शक्तियों का विकास तथा मानवीय ज्ञान का प्रकाश पैदा करना था। शिक्षा द्वारा नैतिक आचरण पर बल दिया जाता था। इसी आदर्श को हृदयंगम कर वैदिक ऋषि समुदाय लोक कल्याण एवं आत्मिक विकास के लिये परमात्मा से प्रार्थना करते थे। इस प्रकार प्राचीन शिक्षा का मूल आधार नैतिक शिक्षा थी। मनुष्य की बुद्धि को यथाशक्ति पवित्र तथा संयमी बनाना शिक्षा का लक्ष्य था। उस समय नैतिक शिक्षा पर ही सम्पूर्ण बल दिया जाता था। “ठोस, गहरी एवं मजबूत नींव पर ही सुदृढ़ एवं ऊँची इमारत बन सकती है।” अत: बालकों की प्रारम्भिक शिक्षा में चारित्रिक विकास के महत्त्व को सर्वोपरि माना गया था। प्राचीन काल में माननीय गुणों पर पैनी दृष्टि रखी जाती थी, बुद्धि और विवेक को सदैव मानवता की ओर उन्मुख रखना, शिक्षा का प्रथम और अन्तिम उद्देश्य था।
प्राचीन शिक्षा में सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के अनुसार विश्व-कल्याणार्थ सदैव सदाचारी चिन्तन किया जाता था। मानव कल्याण के लिये यत्र-तत्र जप-तप आदि किये जाते थे। ऋषि तपस्या करते थे। इनसे विभिन्न सामाजिक नियमों का रूप परिलक्षित होता था। उस समय इन सभी नियमों का पालन करना प्रत्येक मानव मात्र का पुनीत कर्त्तव्य था। छात्र तपस्वी एवं व्रती बनकर शिक्षा प्राप्त करते थे। संयम से रहना उनका प्रमुख उद्देश्य था। सम्पूर्ण विश्व में नैतिक शिक्षा का युग दृष्टिगोचर होता था। छात्रों में गुरू एवं अपने से बड़ों के लिये आदर एवं श्रद्धाभाव था। प्राचीनकाल में सम्पूर्ण समाज में गुरूओं का आदर होता था। प्राचीन शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक मूल्यों से था। उस समय की शिक्षा में नैतिक शिक्षा समाहित थी।
इस प्रकार प्राचीन काल की शिक्षा के निम्नलिखित स्तम्भ थे-
(1) आध्यात्मिकता
(2) आत्मशुद्धि
(3) शिव-संकल्पना
(4) धर्म एवं आचरण में नियमों की प्रधानता
(5) ज्ञान प्राप्ति और जिज्ञासा
(6) आनन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति
(7) कर्मोपासना पर बल
(8) स्वतन्त्र विचार : नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में
(9) वर्ण व्यवस्था तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में
(10) देशानुराग एवं स्वदेशप्रियता
(11) समानता एवं सहिष्णुता
(12) सहनशीलता एवं श्रद्धा-भावना
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