महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन परिचय एवं काव्य- -कृतियों
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिंदी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। 1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह ‘परिमल’ की भूमिका में वे लिखते हैं- “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों को मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।”
जीवन परिचय-
छायावाद के आधार-स्तंभ महाकवि निराला जी का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में सन् 1897 ई. में हुआ। उनके पिता पं.रामसहाय त्रिपाठी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। निराला की शिक्षा हाईस्कूल तक हुई। बाद में हिंदी, संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरंभ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। इनकी तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो गया। की अवस्था में पिता का देहांत हो गया। बाल्यावस्था में इन्हें कुश्ती, घुड़सवारी तथा कृषि कार्य में भी विशेष रुचि थी। हिंदी, संस्कृत भाषाओं के साथ-साथ इन्हें बंगला भाषा का अच्छा ज्ञान था।
साहित्य क्षेत्र में रुचि रखने वाली युवती मनोहरा देवी से इनका विवाह हुआ लेकिन ये अधिक समय तक इनका साथ न दे पाई। एक पुत्र और पुत्री का दायित्व निराला जी को सौंपकर वह पंचतत्वों में विलीन हो गई। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। 15 अक्टूबर सन् 1961 को सरस्वती का यह साधक पंचतत्वों में विलीन हो गया।
कृतियाँ-
(अ) काव्य संग्रह- जूही की कली, अनामिका, परिमल, गीतिका, अनामिका के दूसरे भाग में सरोज-स्मृति और राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, आराधना, गीता कुंज, सांध्यकाकली, अपरा। पुत्री सरोज के देहांत के बाद इन्होंने सरोज-स्मृति नामक कविता लिखी- दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहें आज जो नहीं कही। कन्ये, गत कर्मों का अर्पण कर सकता मैं तेरा तर्पण।
(ब) उपन्यास- अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा
(स) कहानी संग्रह – लिली, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, सखी, देवी
(द) निबंध- रवींद्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह
(य) पुराण कथा – महाभारत
(र) अनुवाद – आनंद मठ, विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नंदिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुल्य, चंद्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भरत में विवेकानंद तथा राजयोग का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद।
भाषा-शैली-
निराला जी ने अपनी रचनाओं में शुद्ध परिमार्जित खड़ीबोली का प्रयोग किया। निराला जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, कहीं भी नीरसता नहीं है। इनकी कृतियों में छायावाद व रहस्यवाद के साथ ही प्रगतिवादी भावनाएँ भी परिलक्षित होती हैं। निराला जी की कविताएँ संगीतात्मकता से युक्त हैं तथा उनमें कहीं-कहीं पर मुहावरों का प्रयोग भी दिखाई देता है। निराला जी ने संदेह, अनुप्रास व सांगरूपक अलंकार तथा मुक्त छंद को अपनाया है। शृंगार, वीर, रौद्र आदि रस भी उनकी कविताओं में विद्यमान हैं। निराला जी ने कठिन एवं दुरुह, सरल व सुबोध शैली का प्रयोग किया है।
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