जॉन डीवी (1859-1952) in Hindi d.el.ed 2nd semester
जॉन डीवी
John Dewey (1859-1952)
जॉन डीवी का जन्म इंग्लैण्ड के वरमाण्ट में अक्टूबर सन् 1859 में हुआ था। स्नातक की परीक्षा में उसने दर्शन में विशेष योग्यता दिखायी। विभिन्न विश्वविद्यालयों में वह दर्शन का शिक्षक रहा। शिकागो में पढ़ाने के काल में उसका ध्यान शिक्षा की ओर गया। इसलिये उसने एक प्रयोगशाला स्कूल (Laboratory School) 1896 ई. में खोल दिया। इस स्कूल को खोलने का प्रयोजन यह था कि वह दर्शन मनोविज्ञान तथा शिक्षा के विषयों का प्रयोगशाला में ठीक ऐसा ही सम्बन्ध स्थापित कर दें, जैसा कि विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का प्रयोगशाला से होता है। डीवी को हम व्यावहारिकतावादी मानते हैं, यद्यपि उसके दर्शन पर हीगेल तथा जेम्स दोनों का प्रभाव स्पष्टतः व्यक्त है। उसने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से बाहर भी शिक्षा पर वक्तव्य दिये हैं, विशेषकर चीन में। उसका निधन सन् 1952 में 93 वर्ष की आयु में हुआ।
डीवी के अनुसार शिक्षा का अर्थ
Meaning of Education According to Dewey
डीवी के अनुसार, “व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन के सामाजिक रूप की अविरलता है।” “Education in its broadest sense, in the means of its social continuity of life.” दूसरे स्थान पर डीवी ने “शिक्षा को पूर्णरूपेण सामाजिक प्रक्रिया बताया है, जिसके प्रमुख दो आधार हैं, व्यक्तिगत और सामाजिक । व्यक्ति की शक्तियों, रुचियों, योग्यताओं आदि को भी ध्यान में रखकर उसके अनुकूल उसे शिक्षा देनी चाहिये, परन्तु साथ ही साथ उसकी समस्त शक्तियों, रुचियों आदि को सामाजिक मूल्य देना है। बालक की शक्तियों एवं रुचियों का वास्तविक मूल्य वही है, जो समाज उन्हें देता है। सामाजिक वातावरण में ही उनका विकास होता है और उसे अक्षुण्य बनाये रखने में उनकी सार्थकता है।” एक अन्य स्थान पर जॉन डीवी ने शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया है, “शिक्षा की प्रक्रिया अनुभवों की वृद्धि एवं संशोधन है। शिक्षा व्यक्ति को अपनी कुशलता बढ़ाने के साथ-साथ उन अनुभवों के सामाजिक मूल्यों को बढ़ाने में उत्तरोत्तर सहायता करती है।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि डीवी ने व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया है, केवल सैद्धान्तिक शिक्षा को अस्वाभाविक तथा बेकार माना है।
उसने शिक्षा के अर्थ को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया है-
- शिक्षा मानव जीवन के लिये आवश्यक है अन्यथा उसके बिना बालक की मूल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण नहीं रखा जा सकता।
- शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समस्त शिक्षा व्यक्ति के द्वारा सामाजिक चेतना मे भाग लेने से आगे बढ़ती है।
- शिक्षा छात्र के विकास से सम्बन्ध रखती है।
- शिक्षा पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है।
- साध्य से साधन अधिक महत्त्वपूर्ण है।
डीवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
Aims of Education According to Dewey
डीवी के अनुसार सभ्य समाज के साथ-साथ शिक्षा के उद्देश्य को भी बदलते रहना चाहिये ताकि समयानुकूल शिक्षा दी जा सके। जॉन डीवी ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये हैं-
(1) अनुभवों का पुनर्निर्माण (Reconstruction of experience) – डीवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पूर्व में निश्चित होने चाहिये अर्थात् बालक की प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई उद्देश्य होता है अर्थात् शिक्षा द्वारा बालक के अनुभवों का पुनर्निर्माण होता है।
(2) वातावरण के साथ अनुकूलन (Adaptation with environment) – शिक्षा को बालक का इस प्रकार से विकास करना चाहिये ताकि वह वातावरण के साथ समायोजन कर सके। “शिक्षा की प्रक्रिया अनुकूल की निरन्तर प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य विकास की बढ़ती हुई क्षमता प्रदान करना है।”
(3) सामाजिक कुशलता की प्राप्ति (To obtain social skill) – बालक समाज का एक अंग है, अत: यह आवश्यक है कि शिक्षा बालक को समाज के अनुरूप ही तैयार करे तथा उसको समाज के प्रति कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों को निभाने का तरीका बताये तभी बालक अपने को समाज में समायोजित कर सकता है।
(4) स्वीकारात्मक नैतिकता (Acceptable morality) – स्वीकारात्मक नैतिकता का विकास भी बालक के विकास में सहायक है, जिसको शिक्षा के द्वारा ही पूर्ण किया जा सकता है, इससे बालक की सामाजिक कुशलता में वृद्धि होती है।
डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम
Curriculum According to Dewey
डीवी ने पाठ्यक्रम को भी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर निश्चित किया है, जिसके लिए आवश्यक है कि बालक के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाय। अत: उसने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये-
(1) रुचि का सिद्धान्त (Principle of interest) – पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की रुचियों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिससे उसकी विशिष्टताओं को विकसित किया जा सके। इसके लिये जितने सम्भव हो सकें विविध विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिये। इसीलिये डीवी ने पाठ्यक्रम के निर्माण के समय भूगोल, इतिहास, कला, विज्ञान, गणित, भाषा, संगीत, कला आदि को सम्मिलित किया।
(2) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of utility) – रुचि की प्रधानता के साथ-साथ पाठ्यक्रम साधारण जीवन में भी उपयोगी होना चाहिये, जिससे बालक अपने जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान कर सके तथा वातावरण में अपने को समायोजित कर सके। इस प्रकार पाठ्यक्रम व्यावहारिक ज्ञान देने वाला होना चाहिये।
(3) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of activity) – पाठ्यक्रम बालक के अनुभवों, क्रियाओं तथा भावी जीवन की तैयारियों से सम्बद्ध होना चाहिये। डीवी का विचार है, “विद्यालय समुदाय का अंग है, इसलिये यदि ये क्रियाएँ समुदाय की क्रियाओं का रूप ग्रहण कर लेंगी तो ये क्रियाएँ बालक में नैतिक गुणों तथा स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण का विकास करेंगी। साथ ही ये उसे नागरिकता का प्रशिक्षण भी देंगी और उसके आत्मानुशासन को ऊँचा उठायेंगी।”
(4) एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of integration) – प्रयोजनवादी डीवी के अनुसार शिक्षा में ज्ञान का एकीकरण होना चाहिये। ज्ञान पूर्णरूप से देना चाहिये, खण्ड-खण्ड करके ज्ञान नहीं देना चाहिये। इस प्रकार संक्षिप्त रूप में पाठ्यक्रम लचीला, बाल केन्द्रित (Child Centred) होना चाहिये।
डीवी के अनुसार शिक्षण-विधियाँ
Teaching-Method According to Dewey
डीवी ने निम्नलिखित शिक्षण विधियों को उचित समझा है-
- क्रिया द्वारा सीखना (Learning by doing) ।
- स्वानुभव द्वारा सीखना (Learning by self-experiences)।
- प्रयोग द्वारा सीखना (Learning by experiment) ।
- अप्रत्यक्ष रूप से योजना विधि (Project method) को भी उचित ठहराया है।
डीवी के अनुसार अनुशासन
Discipline According to Dewey
डीवी दण्ड का कट्टर विरोधी था। उसके अनुसार शिक्षा को भय (आतंक) के साथ विद्यार्थी पर नहीं थोपा (Impose) जाना चाहिये। अनुशासन स्वाभाविक हो, जो विनय पर आधारित हो, जिससे बालक के कार्य में बाधा नहीं आनी चाहिये। अनुशासन उसमें अन्दर से उत्पन्न होना चाहिये तो स्थायी होगा तथा समाज के अनुकूल होगा अर्थात् व्यक्ति का समाजीकरण ही अनुशासन का मुख्य उद्देश्य है।
डीवी के अनुसार विद्यालय और शिक्षक
School and Teacher According to Dewey
डीवी ऐसे विद्यालयों की निन्दा करता है जिनमें बालक के प्रति कठोरता का व्यवहार किया जाता है और परम्परागत पाठ्यक्रम का सहारा लेकर केवल किताबी ज्ञान दिया जाता है। वह अव्यावहारिक देने वाले विद्यालयों को बेकार समझता है। इसके स्थान पर डीवी स्वतन्त्र तथा सामाजिक वातावरण वाले विद्यालय को प्राथमिकता प्रदान करता है। विद्यालय का प्रयोगात्मक होना अति आवश्यक है। उनके अनुसार, “विद्यालय को सामाजिक अनुभवों की प्रयोगशाला होना चाहिये, जहाँ बालक परस्पर सम्पर्क द्वारा जीवन-यापन की सर्वोत्तम प्रणालियाँ सीख सकें।” डीवी शिक्षक को महत्त्वपूर्ण स्थान देता है। उसके अनुसार शिक्षक एक सम्मिलित व्यक्ति है, जो उपयोगी शिक्षण-विधि द्वारा बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है तथा एक पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है। वह एक चतुर बढ़ई के समान है, जो अपनी बुद्धि के आधार पर लकड़ी का सर्वोत्तम उपयोग करता है।
जॉन डीवी का शिक्षा को योगदान
John Dewey’s Contribution to Education
शिक्षा में जॉन डीवी के योगदान को अग्रलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) शिक्षा कुशल सामाजिक जीवन की तैयारी तथा संवाहिकता का रूप है।
(2) उद्देश्य, शिक्षा की प्रक्रिया के साथ ही जुड़े हैं।
(3) शिक्षा के दो आधार हैं- सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक। अतः शिक्षा व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक दोनों प्रकार से तैयार करती है।
(4) पाठ्यक्रम समाज की क्रियाओं का सरल, शुद्ध और सन्तुलित रूप है, इसलिये विद्यालय में उचित वातावरण तैयार करना चाहिये तथा बालकों की रुचियों एवं शक्तियों के अनुसार उन्हें विकास का अवसर देना चाहिये।
(5) विद्यालय में जनतान्त्रिक एवं सामाजिक व्यवस्था होनी चाहिये।
(6) अनुशासन छात्रों की रुचियों के द्वारा किया जा सकता है।
(7) शिक्षक को बालकों की उद्देश्य पूर्ति के लिये अभ्यास कराना चाहिये तथा विकास का अवसर प्रदान कराने में सहायक होना चाहिये।
(8) विद्यालय के सभी कार्यक्रमों में लघु समाज का स्वरूप झलकना चाहिये।
(9) शिक्षण की विधियों में अनुभव’ तथा ‘क्रिया द्वारा सीखने’ पर बल दिया जाना चाहिये।
(10) पाठ्य-विषयों में सहसम्बन्ध होना चाहिये।
(11) बालक प्रमुख है। अतः सभी क्रिया-कलाप बालक की रुचियों और शक्तियों के आधार पर निर्मित किये जाने चाहिये। इस प्रकार डीवी ने क्रियात्मक अध्ययन को उचित समझा।
डीवी की आधुनिक शैक्षिक विचारों पर आधारित श्रेष्ठ कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
- डेमोक्रेसी एण्ड एजूकेशन
- स्कूल एण्ड सोसाइटी
- हाउ वी थिंक
- एजूकेशन टुडे
- माई पेडागोजिक क्रीड
- रिकन्स्ट्रक्शन इन फिलोसोफी
- क्वेस्ट फोर सरटेनरी
- इन्ट्रेस्ट एण्ड एफर्ट इन एजूकेशन
- दी चाइल्ड एण्ड दी करीक्युलम आदि।
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