बहुलवाद का अर्थ-Pluralism Meaning in Hindi
बहुलवाद का अर्थ-समाजशास्त्र में बहुलवाद शब्द का प्रयोग प्रथम अर्थ में किया जाता है। वस्तुतः बहुलवाद से आशय उस समाज, सरकार की व्यवस्था अथवा संगठन से है, जो विभिन्न समूहों को किसी एक अधिक प्रबल समूह के साथ रहकर अपनी पहचान बनाए रखने की स्वीकृति प्रदान करता है। सांस्कृतिक दृष्टि से बहुलवाद एक ऐसी धारणा है, जो बृहत् समाज में लघु समूहों को अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान, मूल्यों तथा परम्पराओं को बनाए रखने तथा तब तक समाज/राज्य द्वारा उन्हें स्वीकृत प्रदान करने पर बल देती है, जब तक कि वे बृहत् समाज अथवा राज्य के नियमों एवं कानूनों के अनुरूप हैं।
एक बहुलवादी समाज या संस्कृति में न केवल विभिन्न समूह एक साथ मौजूद होते हैं, परन्तु प्रबल संस्कृति अन्य समूहों के गुणों को अनाने योग्य भी मानती है। ऐसे समाज एकीकरण न कि सात्मीकरण हेतु अपने सदस्यों से सशक्त अपेक्षाएँ रखते हैं। किसी भी बहुलवादी समाज में ऐसी संस्थाओं एवं प्रथाओं का अस्तित्व तभी सम्भव है, जब बृहत् समाज द्वारा सांस्कृतिक समुदाय स्वीकृत किये जाते हैं। अनेक बार कुछ अल्पसंख्यक समूहों के लिए कानून के संरक्षण की आवश्यकता भी होती है। साथ ही अल्पसंख्यक समूहों पर संस्कृति के कुछ ऐसे पहलुओं को हटाने का दबाव भी होता है, जो विधिसम्मत नहीं होते अथवा प्रबल संस्कृति के मूल्यों की दृष्टि से असंगत होते हैं।
बहुलवाद में सहायक तत्व-
बहुलवाद के जन्म के लिए अनेक परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं। मध्य युग में जब राष्ट्रीय राज्य अत्यधिक शक्तिशाली बने तथा व्यापारी और शिल्प समुदायों के अधिकार समाप्त होने लगे तो इन स्वशासित समुदायों ने स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की पुनः प्राप्ति का प्रयत्न किया तथा इन प्रयत्नों ने बहुलवादी विचारधारा को विकसित किया। इसी प्रकार चर्च के समर्थकों ने राज्य का विरोध कर चर्च के स्वतन्त्र अधिकारों का समर्थन किया। इसके बाद जब आदर्शवाद ने राज्य को पुनः ऊँचाई पर पहुँचा कर इसे ईश्वर का पृथ्वी पर आगमन माना, तब इसके विरोध में बहुलवाद विकसित हुआ। लोकतन्त्र और व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के विचार से भी इसे बल मिला। आधुनिक युग में राज्य के व्यापक कार्य क्षेत्र से जब व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होने लगा तब बहुलवाद का उदय होना स्वाभाविक था। आर्थिक समुदायों के महत्व तथा उनके अधिकारों की माँग ने तथा गिल्ड समाजवाद व श्रमिक संघवाद आदि विचारधाराओं ने बहुलवाद के विकास में सहायता प्रदान की। बहुलवाद राज्य को समाप्त करना नहीं चाहता वरन् राज्य की सम्प्रभुता को सीमित या विभाजित करना चाहता है। इसके अनुसार सम्प्रभुता एकत्ववादी न होकर बहुलवादी होनी चाहिए अर्थात् सम्प्रभुता राज्य तथा अन्य समुदायों में विभाजित होनी चाहिए। लास्की (Laski) के शब्दों में, “समाज के ढाँचे को पूर्ण होने के लिए उसे संघात्मक होना चाहिए।” आधुनिक सभ्य समाज में एकत्ववादी सम्प्रभुता का विचार असभ्यता का द्योतक है।
संक्षेप में, बहुलवादी विचारधारा के विकास में अग्रलिखित तत्व सहायक रहे हैं
1. श्रमिक वर्गों का क्रमिक विकास।
2. अन्तर्राष्ट्रवाद का विकास।
3. व्यक्तिवादी तत्वों की प्रधानता ।
4. विधिशास्त्रीय तत्वों का विकास ।
5. आधुनिक युग की विचारधाराएँ।
6. हीगलवादी (आदर्शवादी) राज्य के विरुद्ध प्रतिक्रिया ।
7.राज्य की अयोग्यता का सिद्धान्त।
8. मध्यकालीन संघवादी विचारकों का प्रभाव |
9. लोकतन्त्र में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था से असमन्तोष।
समाजशास्त्रीय विद्वानों ने समाज की संरचना के आधार पर ऑस्टिन के सम्प्रभुता के सिद्धान्त की आलोचना की है। उनके अनुसार समाज का संगठन संघात्मक है। इसमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक आदि सभी प्रकार के संगठन सम्मिलित होते हैं। ये सभी संगठन व्यक्ति के विकास में सहायक होते हैं। अतः इन सभी को अपने-अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होनी चाहिए। वस्तुतः वर्तमान समय में सामूहिक रूप से ये सभी समुदाय राज्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं।
अनेक विद्वान् बहुलवाद की जड़ों को अमेरिका में विलियम जेम्स एवं जॉन डिंबे जैसे यथार्थवादी दार्शनिकों द्वारा चलाए गए अनुभवाती आन्दोलनों में गढ़ी मानते हैं। यद्यपि यह सही है, तथापि भारत जैसे देश में बहुलवाद का इतिहास काफी प्राचीन है। इसे हिन्दू संस्कृति, जोकि भारत की प्रबल सांस्कृतिक परम्परा रही है, के सहनशीलता एवं ग्रहणशीलता जैसे गुणों के कारण प्रोत्साहन मिलता रहा है। हिन्दू संस्कृति इतनी अधिक सहनशील रही है कि भारत में जो भी संजातीय समूह बाहर से आकर बसे हैं, उन्हें स्वीकार कर लिया गया है। इसी का यह परिणाम है कि आज भारत में विश्व की लगभग सभी प्रमुख प्रजातियों के लोग निवास करते हैं। परन्तु भारतीयों में प्रजातीय मिश्रण इतना अधिक हुआ है कि आज किसी प्रजाति के मूल लक्षण लोगों में विद्यमान नहीं हैं।
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