जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय, भाषा-शैली, तथा काव्य-कृतियाँ
जयशंकर प्रसाद हिंदी कवि, नाटककार, कथाकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे। वे हिंदी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की, जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई।
आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे, जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ लिखी। कवि के रूप वे निराला, पंत, महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे, जिनके नाटक आज भी पाठक चाव से पढ़ते हैं। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियां दी। उन्होंने विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन किया -१ वर्षों के छोटे से जीवन में ही उन्होंने कविता, कहानी,नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की।
जीवन परिचय
प्रसाद जी का जन्म 1894 में काशी के सरायगोवर्धन में हुआ इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी कलाकारी का आदर करने के लिए विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरश के बाद हर हर महादेव से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। इनके पिता तंबाकू के एक प्रसिद्ध व्यापारी पिता की मृत्यु के बाद ही बडे़ भाई शम्भुरन’ का भी देहांत हो गया। कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुंबियों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कॉलेज में हुई, किंतु बाद में घर पर ही इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान इनके संस्कृत के अध्यापक थे। इनके गुरुओं में रसमय सिद्ध’ की भी चर्चा की जाती है। घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने ‘कलाधर’ के नाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर रसमय सिद्ध’ को दिखाया था। उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करने वाले, सात्विक खानपान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे नागरीप्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष भी थे। क्षय रोग के कारण सन् 1937 को काशी में उनका देहांत हो गया।
भाषा-शैली
प्रसाद जी के काव्य की प्रमुख विशेषता रहस्यवादी चित्रण है। प्रारंभ में ये ब्रजभाषा में काव्य रचना करते थे किंतु कुछ समय बाद इन्होंने खड़ीबोली को अपने काव्य का माध्यम बनाया। इनकी भाषा परिष्कृत व परिमार्जित साहित्यिक तथा संस्कृतनिष्ट खड़ीबोली है। इनकी भाषा में ओज, माधुर्य एवं प्रवाह सर्वत्र दर्शनीय है। इनके काव्य में सुगठित शब्द योजना दष्टिगोचर होती है। इनका वाक्य विन्यास तथा शब्द चयन अद्वितीय है। सूक्ष्म भाव अभिव्यक्ति के लिए इन्होंने लक्षणा व व्यंजना शब्द शक्तियों को अपनाया है।
प्रसाद जी की शौली काव्यात्मक चमत्कारों से परिपूर्ण है। ये छोटे-छोटे वाक्यों में भी गंभीर भाव भरने में दक्ष थे। संगीतात्मकता एवं लय पर आधारित उनकी शैली अत्यंत सरस एवं मधुर है। जहाँ दार्शनिक विषयों पर आधारित अभिव्यक्ति हई है। वहीं इनकी शैली अवशय गंभीर हो गई है।
काव्य-कृतियाँ
जयशंकर प्रसाद जी के प्रमुख काव्य ग्रंथ हैं लहर, कानन कुसुम, झरना, प्रेम पथिक, करुणालय, आसू, महाराणा का महत्व, उर्वशी, चित्राधार, तन मिलन तथा कामायनी आदि अनेक विद्वानों ने कामायनी को आधुनिक हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य माना है।
भाषागत विशेषताएँ
जयशंकर प्रसाद जी की भाषा में निम्नलिखित विशेषताएं हैं-
(अ) प्रसादजी ने अपनी रचनाओं में परि परिमार्जित साहित्यिक तथा संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली का प्रयोग किया है।
(ब) इनकी भाषा में आज, माधुर्य एवं प्रवाह सर्वत्र दर्शनीय होता है।
(स) इनके कालों में सुगठित शब्द योजना दृष्टिगोचर होती है।
(द) इनके काव्यों मे वाक्य-विन्यास तथा शब्द चयन अव्दितीय है।
(य) अपने सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने के लिए प्रसाद जी ने लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियों का आश्रय लिया है तथा प्रतीकात्मक शब्दावली को अपनाया है।
(र) इनकी शैली संगीतात्मक, सरस तथा मधुर है।
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