बहुलवाद की परिभाषा क्या है? बहुलवाद किसे कहते है ?
बहुलवाद की विचारधारा के जन्म का श्रेय ब्रिटिश वामपक्षी लेखकों को है। यह दर्शन अद्वैतवादी या एकक्षत्रवाद का विरोधी है। यह आदर्शवाद विरोधी भी है। यह व्यक्ति, उसकी स्वतन्त्रता एवं उसकी संस्थाओं को मानव व्यवस्था में उच्च स्थान देता है। बहुलवादी राज्य विरोधी दर्शन नहीं, अपितु सम्प्रभुता विरोधी है। इसका आदर्श निरंकुश राज्य नहीं, वरन् समाज सेवक राज्य है। राज्य तभी\ आदर्श माना जा सकता है, जब वह आदर्श एवं लक्ष्य की पूर्ति करे। इन विचारधाराओं के आधार पर राज्य ने अपनी निरंकुशता स्थापित की और व्यक्ति को पूर्णतया उसके अधीन बना दिया। कुछ मानवतावादी दार्शनिकों ने इस निरंकुशता में व्यक्ति के व्यक्तित्व, उसकी नैतिकता एवं स्वतन्त्रता का हनन देखा, उन्होंने निरंकुशतावाद की अनेक दृष्टिकोण से आलोचना की। व्यक्ति के व्यक्तित्व पर जोर देते हुए उन्होंने संघों को राष्ट्र जीवन में उच्च स्थान दिया। इन दार्शनिकों की विचारधारा अद्वैतवादी आदर्शवादी दृष्टिकोणों के विपरीत थी। अतएव इस आन्दोलन का नाम बहुलवाद पड़ा। बहुलवादी विचारक राज्य की एकमात्र प्रभुसत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। उसके अनुसार, मानव अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न समुदायों का संगठन करता है, जिनमें से राज्य भी एक है। अतः राज्य को अन्य समुदायों से ऊपर कोई भी स्थान प्रदान करना उचित न होगा।
शायद लॉस्की ही प्रथम विद्वान था जिसने बहुलवाद शब्द का प्रयोग किया है।
बहुलवादियों की राज्य-सम्बन्धी धारणा
राज्य के विषय में बहुलवादियों ने निम्न विचार व्यक्त किए हैं –
(1) वितरणात्मक राज्य – समाज का ढाँचा संघीय है, उसके संघ व्यापक हैं। प्रो० लॉस्की इसलिए राज्य को सामूहिक मानकर वितरणात्मक मानता है। सामूहिक राज्य वह राज्य है जिसमें प्रत्येक वस्तु को अपने में सम्मिलित कर लेता है तथा प्रत्येक वस्तु में अपना दावा करता है। वितरणात्मक राज्य वह राज्य है, जो विभिन्न समुदायों से मिलकर बनता है। ऐसे राज्य में समुदायों का अपना पृथक् अस्तित्व होता है। राज्य के समान ही समुदाय वास्तविक तथा समान होते हैं अतः राज्य और राज्य के अन्तर्गत अन्य समुदायों में कोई भी विभिन्नता नहीं होती है। बहुत से बहुलवादी हीगल के राज्य के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका मत है कि, “राज्य प्रभु नहीं और न उसकी शक्ति निरंकुश है।” राज्य में निहित प्रत्येक समुदाय उसके समान शक्ति रखता है। अतः राज्य को सर्वोच्चता प्रदान नहीं की जा सकती।
(2) समाज में विभिन्न समुदायों में समानता – मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न समुदायों का निर्माण करता है। राज्य भी उनमें से एक समुदाय है अतः बहुलवादियों का कहना है कि राज्य अन्य मानव समुदायों के साथ समानता रखता है। वे उस मत को स्वीकार नहीं करते कि, “राज्य के ऊपर कोई शक्ति नहीं है तथा राज्य के अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं है।” बहुलवाद के समर्थक बार्कर कहते हैं कि, “हम राज्य को सामान्य जीवन मे व्यक्तियों का समुदाय नहीं समझते, वरन् उसको समुदायों का, जो जीवन को अधिक सफल बनाने के लिए स्थापित हुए हैं, संघ समझते हैं। इस प्रकार राज्य समुदायों का एक समुदाय है। प्रत्येक समुदाय अपने क्षेत्र में कार्य करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र है। बहुलवादी राज्य की शक्ति को अन्य समुदायों में बाँटना चाहते हैं।’ बहुलवादियों का कहना है कि समुदायों की स्थापना. समाज के हित के लिए की गई है। राज्य भी समाज के लिए निर्मित एक समुदाय है।
(3) राज्य की आवश्यकता – बहुलवादी राज्य को अराजकतावादियों के समान अनावश्यक नहीं समझते। समाज में विभिन्न संघ व्यक्तियों के भिन्न-भिन्न हितों की पूर्ति करते हैं। सुव्यवस्था के लिये इनका समन्वय अत्यन्त आवश्यक है। यह समन्वय केवल राज्य जैसी केन्द्रस्थ एवं सम्प्रभु संस्था द्वारा सम्भव है, परन्तु बहुलवादी लॉस्की (Laski) का सम्प्रभु अद्वैतवादी राज्य के सम्प्रभु से भिन्न है यदि राज्य की शक्ति को पूर्णतः समाप्त कर दिया जाये तो परस्पर विरोधी संघों में संघर्ष छिड़ जायेगा और समाज में अशान्ति व्याप्त हो जायेगी। इस प्रकार बहुलवादियों के विचारों को यदि पूरी तरह मान लिया जाये तो राज्य की प्रभुसत्ता के अभाव में मानव जीवन कलह और अशान्ति का केन्द्र बन जायेगा। अतः राज्य और उसके वर्तमान रूप में संशोधन किया जा सकता है। बहुलवादियों का सम्प्रभुराज्य अन्य जनसेवक संघों की भाँति है। वह सर्वोच्च समाज सेवक संस्था है। उसे अन्य संघों के अस्तित्व को अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ता है। इसका कारण है कि ये संघ भी अपनी-अपनी दृष्टि से भी समाज सेवा में संलग्न हैं। अतः यहाँ अद्वैतवादी राज्य प्रधानतः शक्ति प्रदर्शक है और संघों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, वहाँ बहुलवादी राज्य प्रधानतः स्वतन्त्र संघों का समन्वय करता है और इसी हेतु शक्ति का प्रदर्शक भी है।
(4) राज्य की सम्प्रभुता का खण्डन – बहुलवादियों ने जॉन ऑस्टिन के प्रभुसत्तावादी सिद्धान्त की आलोचना की है। ऑस्टिन ने राज्य की प्रभुत्व शक्ति के सम्बन्ध में लिखा है कि, “यदि एक निर्दिष्ट मानव, जो इसी प्रकार के किसी अन्य श्रेष्ठ मानव के आदेशों का पालन करने का अभ्यस्त नहीं है, किसी समाज के अधिकांश भाग को आदेश देता है और वह समाज उसका अभ्यस्त रूप से पालन करता है तो उस समाज में वह निश्चित मानव प्रभु होता है और वह समाज (उस श्रेष्ठ व्यक्ति सहित) राजनीतिक तथा स्वतन्त्र समाज होता है।”
बहुलवादी राज्य के सम्प्रभुता सम्बन्धी सिद्धान्त को अव्यावहारिक, अनैतिक, अनैतिहासिक तथा अनावश्यक बतलाता है। वे राज्य को अन्य समुदायों की भाँति एक मानव संस्था मानते हैं।
उनकी सर्वोच्चता का दावा वे स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं। बहुलवादी सम्प्रभुता के सिद्धान्त को असामाजिक बताते हैं। उन्होंने सम्प्रभुता के सिद्धान्त पर प्रबल आक्रमण किये। क्रैब (Krabbe) का मत है कि, “सम्प्रभुता की धारणा को राजनीतिक शास्त्र में से निकाल देना चाहिये।” लिंड्से (Lindsay) ने कहा है कि, “यदि हम तथ्यों पर देखते हैं तो यह काफी स्पष्ट हो जाता है कि सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य का सिद्धान्त भंग हो चुका है।’ बार्कर (Barker) के मत में, “कोई भी राजनीतिक धारणा इतनी निष्फल नहीं हुई है, जितना सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य का सिद्धान्त।” लॉस्की (Laski) ने भी इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किये हैं। उनके अनुसार, “सम्प्रभुता के कानूनी सिद्धान्त को राजनीतिक दर्शन के लिये मान्य बना देना असम्भव है।”
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