भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए। Discuss in brief the main characteristic of Indian Constitution?
भारतीय संविधान की कुछ मौलिक विशेषतायें हैं जिसके आधार पर इसे विश्व के अन्य देशों के संविधान से पृथक किया जाता है। ये विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(1) विशालतम् संविधान-
आइवर जेनिंग्स ने भारतीय संविधान को विश्व का सबसे बड़ा एवं विस्तृत संविधान कहा है जो कि उचित ही है। मूल संविधान में कुल 395 अनुच्छेद थे जो 22 भागों में विभाजित थे और कुल 8 अनुसूचियाँ थी। परन्तु 86वें संविधान संशोधन 2002 के पश्चात् संविधान में कुल 446 अनुच्छेद हो गये और यह 26 भागों में विभाजित हो गया साथ ही इसमें कुल 12 अनुसूचियां हो गयी। संविधान की इस व्यापकता के प्रमुख कारण निम्न हैं-
- भारत के संविधान में अमेरिका के संविधान से मूल अधिकार, ब्रिटेन के संविधान से संसदीय शासन प्रणाली, आयरलैण्ड के संविधान से राज्य के नीति निर्देशक तत्व तथा गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट, 1935 से आपात उपबन्धों को लेकर समाविष्ट कर दिया गया है।
- भौगोलिक दृष्टि से देश की विशालता तथा यहाँ की विशेष समस्याओं ने भी संविधान को बड़ा बनाने में योगदान दिया है।
- भारतीय संविधान के विशालतम् होने का एक यह भी कारण है कि केन्द्रीय एवं प्रान्तीय दोनों ही सरकारों की बनावट एवं उनकी शक्तियों का वितरण एक ही संविधान में होना।
- भारतीय संविधान में न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, निर्वाचन आयोग, राष्ट्रभाषा आयोग इत्यादि की कार्य-पद्धति से सम्बन्धित स्पष्ट वर्णन किया है।
(2) प्रभुसत्ता सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक, धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य की स्थापना-
- प्रभुसत्ता सम्पन्न-वह राज्य जो बाह्य नियन्त्रण से सर्वथा मुक्त हो और अपनी आन्तरिक तथा विदेशी नीतियों को स्वयं ही निर्धारित करता हो, प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य कहलाता है। भारत पूर्णतया स्वतन्त्र एवं प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य है। भारतीय सरकार आन्तरिक एवं बाह्य मामलों में अपनी इच्छानुसार आचरण करने के लिए स्वतन्त्र है।
- लोकतन्त्रात्मक-भारत की सरकार का समूचा प्राधिकार भारत की जनता में निहित है जो कि जनता के लिए ही जनता द्वारा स्थापित किया गया है।
- धर्म-निरपेक्ष-भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है। यहाँ सभी धर्मों को बराबर दृष्टि से देखा जाता है।
- समाजवाद-भारतीय संविधान एक लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना की परिकल्पना करता है न कि समाजवादी समाज की।
(3) संसदीय ढंग की सरकार–
इस प्रकार की सरकार होने का प्रमुख कारण यह है कि भारत में इसकी नींव वर्तमान संविधान के लागू होने के पहले ही पड़ चुकी थी और हम इसके अभ्यस्त हो चुके थे। लोक प्रभुता की दृष्टि से संसदीय शासन प्रणाली ही उपयुक्त होती है, क्योंकि इसके अन्तर्गत शासन जनता के प्रति उत्तरदायी होता है।
(4) लिखित संविधान-
भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसके लिखित होने के दो कारण हैं। प्रथम तो यह है कि परिसंघात्मक संविधान लिखित होता है, क्योंकि परिसंघ तथा इसकी इकाइयों के अधिकारों तथा कर्तव्यों को निश्चित कर देना आवश्यक होता है। भारतीय संविधान द्वारा भारत में परिसंघात्मक राज्य की स्थापना की गयी है। अतः इसका लिखित होना अनिवार्य था दूसरा कारण यह था कि देश में भिन्न-भिन्न जातियाँ निवास करती हैं जिनके हितों की रक्षा करना आवश्यक था। इसलिए इसे लिखित बनाकर सभी के हितों की रक्षा की व्यवस्था की गयी हैं।
सेण्ट्रल इनलैण्ड ट्रान्सपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम ब्रजोनाथ गांगुली (1986) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भारत का संविधान कठिन भाव बोधान्तर्गत संविधान नहीं है। यह एक आदर्शात्मक दार्शनिकता से परिपूर्ण धरातल पर अवस्थित है।
(5) उद्देशिका-
संविधान में उद्देशिका में यह घोषणा की गयी है कि भारत के लोग संविधान द्वारा सम्पूर्ण प्रभुत्व समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना करते हैं। यह उद्देशिका इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है कि भारत की प्रभुता जनता में निहित है। संविधान जनता से उद्भूत हुआ है। वैधता का अन्तिम स्रोत तथा उसकी सत्ता जनता की इच्छा में निहित है। एक मायने में संविधान ही सम्प्रभु है, क्योंकि वही सर्वोच्च विधि है।
(6) मूल अधिकार-
भारतीय संविधान के भाग 3 में नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा की गयी है। प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था के अन्तर्गत मूल अधिकारों की घोषणा संविधान की एक मुख्य विशेषता होती है। वास्तव में लोकतन्त्र का आधार ही जनता के अधिकारों का संरक्षण है। व्यक्ति के बहुमुखी विकास के लिए जन अधिकारों का होना आवश्यक है, उन्हें हम मूल अधिकार कहते हैं।
कतिपय निम्नलिखित मौलिक अधिकार नागरिकों को प्रदान किये गये हैं-
- समता का अधिकार।
- स्वतन्त्रता का अधिकार।
- शोषण के विरुद्ध अधिकार।
- धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार।
- संस्कृति एवं शिक्षा के अधिकार।
- संवैधानिक उपचारों के अधिकार।
इन अधिकारों को अपनाने की प्रेरणा हमें अमेरिका के संविधान से मिली है। मूल अधिकार राज्य की शक्ति पर प्रतिबन्ध स्वरूप है। संविधान में केवल अधिकारों की घोषणा मात्र का कोई महत्व नहीं होता, जब तक कि उन अधिकारों के संरक्षण के लिए उपाय भी प्रदान न किये जायें। हमारे संविधान ने अधिकारों की सुरक्षा का कार्य सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दिया है जिसे इन अधिकारों के अतिक्रमण होने पर उपयुक्त एवं शीघ्र उपाय व्यवस्था करने के लिए परमादेश, उत्प्रेषण, बन्दी प्रत्यक्षीकरण, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा आदि लेख (Writ) जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है। बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari), अधिकार पृच्छा (Quo-warranto) आदि रिटें जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है।
(7) राज्य के नीति निर्देशक तत्व-
इस प्रकार के सिद्धान्त निर्देशक के रूप में हैं जो विधान मण्डल तथा कार्यकारिणी के पथ-प्रदर्शन के लिए संविधान में उपबन्धित किये गये हैं। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से धन तथा उत्पादन के साधनों का न्यायोचित विवरण, बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का पृथक्करण, देश के लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा का प्रयास करना तथा ग्राम पंचायतों का भी संगठन आदि शामिल है।
(8) कठोरता तथा नम्यता का समन्वय-
भारतीय संविधान नम्यता तथा कठोरता का अनोखा सम्मिश्रण है। इसे नम्य संविधान इसलिए कहा जाता है क्योंकि संविधान में विधि- निर्माण की साधारण प्रक्रिया के आधार पर संशोधन किया जा सकता है, परन्तु कठोर संविधान में संवैधानिक संशोधन के लिए साधारण कानून-निर्माण से भिन्न तथा जटिल प्रक्रिया को अपनाया जाता है। भारतीय संविधान के अनुसार कुछ विषयों में संसद के समस्त सदस्यों के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं द्वारा समर्थन भी आवश्यक है। संशोधन की उपर्युक्त प्रणाली निश्चित रूप से कठोर है। संविधान निर्माताओं द्वारा पारिभाषिक दृष्टि से एक कठोर संविधान का निर्माण किये जाने में इस बात को भी ध्यान में रखा गया है कि तेजी से बदलती हुई परिस्थितियों के कारण भारतीय संविधान में जल्दी ही किसी प्रकार के परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़ सकती है। इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से कुछ विषयों में संशोधन संसद के साधारण बहुमत से ही किया जा सकता है, जैसे नवीन राज्यों का निर्माण, वर्तमान राज्यों का पुनर्गठन आदि कार्य संसद साधारण बहुमत से कर सकती है। इस प्रकार यह संविधान कठोर होने के साथ-साथ नम्य भी है।
(9) संसदीय प्रभुता तथा न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय-
भारत में संसदात्मक व्यवस्था को अपनाकर संसद की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है। साथ ही संघात्मक व्यवस्था के आदर्श के अनुरूप न्यायालय को संविधान की व्याख्या करने तथा उन विधियों तथा आदेशों को अवैध घोषित करने का अधिकार दिया गया है कि वह न्यायालय की शक्तियों को आवश्यकता के अनुसार सीमित कर सकती है।
(10) एकल नागरिकता-
भारतीय संविधान के द्वारा संघात्मक शासन की स्थापना की गयी है। अमेरिका जैसे संघीय राज्य में इस प्रकार की व्यवस्था है कि वहाँ के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है। भारतीय संविधान के निर्माताओं का विचार है कि दोहरी नागरिकता भारत की एकता को बनाये रखने में बाधक हो सकती है, अतः संविधान निर्माताओं द्वारा संघ राज्य की स्थापना करते हुए दोहरी नागरिकता के बजाय एकल नागरिकता को ही अपनाया गया है।
(11) नागरिकों के मूल कर्तव्य-
भारतीय संविधान के अन्तर्गत एक नया भाग 4 ‘क’ 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 ई. के द्वारा जोड़ा गया है। इसके अन्तर्गत नागरिकों के 10 मूल कर्तव्यों को समाविष्ट किया गया है। संविधान के अन्तर्गत अब भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान के अन्तर्गत उल्लिखित कर्तव्यों का पालन करे। 86वें संविधान संशोधन द्वारा मूल कर्तव्यों की संख्या ग्यारह हो गयी है।
(12) स्वतन्त्र न्यायपालिका-
भारतीय संविधान में स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी, सारे देश के लिए न्याय प्रशासन की एक ही व्यवस्था करता है जिसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय विद्यमान है। उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय देश के समस्त न्यायालयों के ऊपर बाध्यकारी होते हैं। संघात्मक संविधान में स्वतन्त्र न्यायपालिका का कार्य केन्द्र तथा राज्यों के मध्य झगड़ों को निपटाना होता है, इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा गया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा की गयी संविधान के उपबन्धों की व्याख्या अन्तिम होती है। (भारत संघ बनाम प्रतिभा बनर्जी, 1995) स्वतन्त्र न्यायपालिका का दूसरा मुख्य कार्य नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा करना होता है। भारतीय संविधान ने इस पुनीत कार्य को सम्पादित करने का कर्तव्य भारत के उच्चतम न्यायालय को सौंपा है। इस तरह उच्चतम न्यायालय न केवल संविधान का वरन् नागरिकों के मूल अधिकारों का भी संरक्षक तथा जागरूक प्रहरी है। अतः भारतीय संविधान में न्यायपालिका को बिल्कुल स्वतन्त्र रखा गया है जिससे वह निष्पक्ष एवं निर्भयतापूर्ण न्याय दे सके।
(13) वयस्क मताधिकार-
प्रजातन्त्रात्मक सरकार जनता की सरकार है। देश का प्रशासन जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु संविधान प्रत्येक वयस्क को मताधिकार का अधिकार प्रदान करता है जिसका प्रयोग करके वह अपने प्रतिनिधियों को देश का प्रशासन चलाने के लिए संसद तथा राज्य विधानमण्डलों में भेजता है। भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक को, वह चाहे स्त्री या पुरुष, यदि 21 वर्ष की आयु का हो चुका है तो उसे निर्वाचन में मतदान करने का अधिकार प्राप्त है। इस तरह भारतीय संविधान ने देश के समस्त व्यस्क नागरिकों को मताधिकार का अधिकार प्रदान करके संसार के सबसे महान् और सबसे यथार्थ लोकतन्त्र की स्थापना का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
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