विद्यालय अनुशासन के प्रकार लिखिए।
विद्यालय अनुशासन के प्रकार- अनुशासन के तीन तत्व हैं, पहला– अन्तः प्रेरणा, दूसरा आत्म- नियंत्रण की शक्ति और तीसरा- समाज-सम्मत आचरण।
आचरण के विभिन्न दृष्टिकोणों की दृष्टि से अनुशासन के विविध रूप हैं।
(1) दमनात्मक अनुशासन (Repressionistic Discipline)-
प्राचीन काल में अधिकांश अध्यापक अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिए शक्ति का प्रयोग करते थे। उस समय विद्यालयों के नियम अत्यन्त कठोर होते थे जिनका पालन सब बच्चों को कठोरता से करना होता था और जो बालक इनका पालन नहीं करता था उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। आज भी इस प्रकार के विद्यालयों की कमी नहीं है। इस प्रकार बच्चों की मूल प्रवृत्तियों , रुचियों का दमन करके उसे वांछित आचरण कराने को एडम महोदय ने दमनात्मक अनुशासन की संज्ञा दी है। अनुशासन के इस रूप के अनेक क्षेत्र हैं।
- अधिक दण्ड देने से अंग-भंग का भय रहता है, इससे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्षति होती है।
- इच्छाओं का दमन करने से बालक में मानसिक ग्रन्थियाँ बन जाती हैं और छात्र अपने स्वास्थ्य को खो बैठता है। इसके दोष हैं-
- डण्डे के भय से मान्य व्यवहार करने की आन्तरिक प्रेरणा उत्पन्न नहीं होती।
- इस अनुशासन में छात्र बाहरी रूप से बैठे रहते हैं लेकिन उनका मन और मास्तिष्क व्यवस्थित नहीं रहता है।
- इस प्रकार के अनुशासन में छात्र यन्त्रचालित ढंग से कार्य करता है, उन्हें स्वयं सोचने और स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की क्षमता विकसित नहीं होती है।
- छात्रों की व्यवस्थित रुचियों और शक्तियों का विकास नहीं होता है, उनमें नेतृत्व शक्ति नहीं आ पाती है। ये दास भावना से ग्रसित होकर कठपुतली की तरह दूसरों के इशारों पर कार्य करते हैं।
(2) प्रभावात्मक अनुशासन (Impressionistic Discipline)-
आदर्शवाद की मान्यता है कि शिक्षक को अपने आदर्शात्मक व्यक्तित्व और अच्छे आचरण से बालकों को प्रभावित करना चाहिए और उसके साथं इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि वे उसके गुणों को ग्रहण करें और उसके अनुरूप आचरण करना सीखें। प्राचीन भारत में सभी अध्यापक (गुरू) इसी विचार को मानते थे। तत्कालीन गुरू संयम के साथ जीवन व्यतीत करते थे और अपने ज्ञान, आचरण और आदतों से अपने शिष्यों को प्रभावित करते थे। शिष्य भी उनके ज्ञान और आचरण से प्रभावित होते थे और संयमित जीवन की ओर बढ़ते थे। एडम महोदय ने इस प्रकार के अनुशासन को प्रभावात्मक अनुशासन कहा है।
इसके दोष हैं-
- गुरुओं के आदर्श जीवन होने पर ही यह अनुशासन प्राप्त किया जा सकता है। आज उच्च आदर्श वाले अध्यापक नहीं हैं और न ही उनका समाज में सम्मान है। ऐसे में बच्चे अध्यापकों से कम प्रभावित होते हैं।
- इस विधि में बच्चे शिक्षक से प्रभावित होकर अच्छा बुरा सब कुछ सीख लेते हैं। इस प्रकार सच्चा अनुशासन प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
- विपक्ष में यह तर्क है कि गुरुओं का अन्धानुकरण करने से बच्चों में हीन भावना आती है।
- गुरुओं से प्रभावित होकर बच्चे उनकी प्रतिलिपि मात्र बनकर रह जाते हैं उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।
- हमारे प्रभाव को केवल परिस्थितियाँ ही प्रभावित नहीं करर्ती अपितु हमारे आदर्श भी प्रभावित करते हैं।
- केवल अनुकरण द्वारा सीखा हुआ व्यवहार जीवन भर साथ नहीं दे सकता।
(3) मुक्त्यात्मक अनुशासन (Emancipationistic Discipline)-
मनोवैज्ञानिकों की धारणा कि अनुशासन स्थापित करने के लिए बालक को स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपनी मूल प्रवृत्त्येि, शक्तियों, रुचियों और योग्यतानुसार विकास के पूर्ण अवसर देने चाहिए, उस स्थिति में बच्चे सही आचरण करते हैं। प्रकृतिवादी रूसो और हरबर्ट स्पेन्सर इस विचारधारा के प्रतिपादक है। एडम महोदय ने इसे मुक्त्यात्मक अनुशासन की संज्ञा दी है। रूसों की यह विचारधारा आदर्शवादी विचारधारा की प्रतिक्रिया मात्र थी। यदि प्राचीन विचारधारा एक सीमा पर है तो दूसरी रूसो की विचारधारा दूसरी सीमा पर है। दोनों ही अव्यावहारिक हैं। रूसों के विचारों को मान्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि-
- बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता देने का अर्थ है मूल प्रवृत्ति के अधीन छोड़ना और इस प्रकार छोड़ना पशुवत व्यवहार करने का अवसर देता है।
- पूर्ण स्वतन्त्रता पर आधारित अनुशासन बच्चों को असामाजिक और अशिष्ट बना देता है।
- रूसो बच्चों को पूर्ण रूप से प्रकृति पर छोड़कर प्रारम्भिक अवस्था को प्राप्त करने की बात करते थे।
- यह कल्पना सार्थक नहीं है। रूसो समाज को दोषी बताकर बच्चों को समाज से दूर रखने की बात करते थे।
- रूसो ने समाज की अवहेलना की है। वे भूल गये कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं।
- समाज से दूर रहकर मनुष्य में सामाजिक गुणों का विकास नहीं किया जा सकता। जो भी हो, बच्चों के विकास के लिए डण्डे के स्थान पर स्वतन्त्रता की आवश्यकता को अन्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। स्वतंत्र वातावरण में बच्चे भय के कारण उत्पन्न होने वाली भावना ग्रन्थियों से बच जाते हैं और उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास अपनी गति से होता है। विद्वानों का विचार है बच्चों को अमानुषिक कृत्यों से रोकने के लिए दण्ड के स्थान प्रेम और सहानुभूति का प्रयोग करना चाहिए।
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