अपकृत्य के आवश्यक तत्व
अपकृत्य पूर्ण दायित्व को प्रमाणित करने हेतु निम्नांकित तथ्यों को प्रमाणित करना आवश्यक होता है।
(i) प्रतिवादी ने वादी के प्रति दोषपूर्ण कार्य या कार्य लोप किया हो,
(ii) प्रतिवादी के कार्य या लोप से वादी को विधिक क्षति हुई हो,
(iii) प्रतिवादी का कार्य या लोप इस प्रकृति का हो जिसमें वादी को नुकसानी का वाद चलाने का अधिकार हो।
1. कार्य अथवा लोप (Act or omission)-
अपकृत्य के लिए यह आवश्यक है कि प्रतिवादी द्वारा कोई ऐसा कार्य या लोप हुआ हो जिससे वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ हो। प्रतिवादी द्वारा किया गया कार्य या लोप विधि द्वारा दोषपूर्ण माना गया है। यदि केवल नैतिक अथवा सामाजिक अपकार घटित हुआ है तो उसके लिए कोई उत्तरदायित्व नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य डूबते हुए व्यक्ति को बचाने में विफल रहता है तो, यह केवल नैतिक अपकार है। इसके लिए तब तक उत्तरदायित्व नहीं हो सकता जब तक यह साबित न हो कि उस डूबते हुए व्यक्ति को बचाने के लिए प्रतिवादी विधिक रूप से बाध्य था। यदि कोई निगम, जो किसी उपवन का अनुरक्षण करता है, ऐसे समुचित बाग को लगाने में विफल रहता है, जिससे बच्चे जहरीले वृक्षों की ओर न जा सकें, और इस विफलता के परिणामस्वरूप यदि कोई बालक ऐसे जहरीले वृक्ष के फल को तोड़ कर खाता है, और उसकी मृत्यु हो जाती है, तो निगम इस प्रकार किये गये लोप के लिए उत्तरदायी होगा।
2. विधिक क्षति (Legal damage)-
वादी प्रतिवादी के विरुद्ध तभी वाद ला सकता है, जब प्रतिवादी के किसी कृत्य से वादी को क्षति हुयी हो। न्यायालय में वाद लाने के लिए केवल यह साबित करना कि प्रतिवादी के किसी कार्य से वादी को कुछ हानि हुई हो, पर्याप्त नहीं है। उसके लिए यह आवश्यक है कि वादी को विधिक क्षति हुई हो, अर्थात् वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ हो अथवा प्रतिवादी के द्वारा कर्तव्य-भंग हुआ हो। इसको निम्नलिखित दो सूत्रों द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है।
(1) बिना हानि के क्षति (Injuria sine damno)-
बिना हानि के क्षति का तात्पर्य है कि हालांकि वादी को क्षति (विधिक क्षति) हुई है, अर्थात् उसमें निहित किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ है किन्तु उसको चाहे कोई हानि कारित न हुई हो, वह फिर भी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद ला सकता है।
अधिकारों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
विशुद्ध अधिकार (absolute right) एवं विशेषित अधिकार (qualified rights)। विशुद्ध अधिकार हेतु वादी को यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती कि उसे किस प्रकार की हानि हुयी है। इसमें अतिलेप्पन मात्र ही वाद योग्य है। इसका सामान्य उदाहरण ‘अतिचार’ का अपकृत्य है।
‘विशेषित अधिकार’ का अतिलंघन स्वयं अपने आप में वाद-योग्य नहीं होता। यह केवल तभी वाद-योग्य होता है जब यह साबित कर दिया जाये कि वादी को वास्तविक हानि हुई है।
ऐशबी बनाम हाइट का वाद ‘बिना हानि के क्षति’ सूत्र का स्पष्टीकरण करता है। इस वाद में हालांकि प्रतिवादी के कार्य से वादी को कोई क्षति नहीं हुई थी फिर भी उसे वाद में सफलता प्राप्त हुई। इस वाद में वादी जो संसदीय निर्वाचन में एक मतदाता था, परन्तु प्रतिवादी ने, जो निर्वाचन अधिकारी था, उसका मत लेना अस्वीकार कर दिया। निर्वाचन अधिकारी की इस अस्वीकृति से वादी को कोई हानि कारित नहीं हुई, क्योंकि वह अभ्यर्थी, जिसे वादी अपना मत देना चाहता था, इस मत के अस्वीकृत होते हुए भी सफल हो गया था। यह धारित किया गया था कि प्रतिवादी उत्तरदायी था।
मुख्य न्यायाधीश होल्ट ने कहा है कि ‘यदि वादी के पास कोई अधिकार है, तो आवश्यकतः वह उसका प्रतिसमर्थन और अनुरक्षण कर सकता है, यदि वह ऐसे अधिकार के प्रयोग अथवा उपभोग में क्षतिग्रस्त किया जाता है, तो उसे उपचार भी मिलना चाहिये और वास्तव में उपचार के बिना किसी अधिकार की विद्यमानता की बात तो सोची ही नहीं जा सकती, क्योंकि अधिकार का अभाव और उपचार का अभाव दोनों ही पारस्परिक सम्बन्ध सूचक (raciprocal) है।’
‘प्रत्येक अपकृति’ (Injury) क्षति प्रदान करती है, चाहे भले ही इससे पक्षकार की एक दमड़ी (Farthing) की हानि भी न हुई हो। क्षति केवल धन सम्बन्धी ही नहीं होती, वरन् अपकृति का अभिप्राय ऐसी क्षति से भी है, जिसमें व्यक्ति का अपना अधिकार व्यवधानित होता है। जैसा कि अपमान वचन (Slander) के मामलों में होता है, यद्यपि व्यक्ति को ऐसे अपवचन से एक पाई का भी नुकसान नहीं होता, फिर भी, वह कार्यवाही कर सकता है।
बिना हानि के क्षति में यह सम्भव है कि वादी को कोई हानि कारित न हुई हो, और फिर भी दोषपूर्ण कार्य वाद योग्य हो, ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि वादी को कितनी क्षतिपूर्ति की जाये। ऐसे किसी मामले में नाममात्र नुकसानी (nominal damages) देय होती है, जैसे केवल एक रुपया।
(2) बिना क्षति के हानि (Damnum sine injuria)-
बिना क्षति की हानि वह हानि है जिसमे प्रतिवादी के किसी कार्य से वादी में निहित विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ हो, अर्थात् वादी की क्षति तो हुयी हो परन्तु विधिक क्षति के अन्तर्गत वह न आता हो। जब वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन न हुआ हो तो वह कोई वाद नहीं ला सकता। निम्नलिखित वाद इस सूत्र के कुछ उदाहरण हैं-
(i) ग्लोसेस्टर ग्रामर स्कूल का वाद इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डालता है। इस वाद में प्रतिवादी ने, जो एक अध्यापक था, वादी की प्रतिद्वन्द्विता में एक नया विद्यालय स्थापित किया। प्रतियोगिता के कारण वादी को छात्रों के शुल्क में अत्यन्त कमी करनी पड़ी। जहाँ वह प्रति छात्र तिमाही शुल्क के रूप में 40 पेंस लेता था, वहीं इस नयी परिस्थिति के कारण उसे प्रति छात्र तिमाही शुल्क 12 पेंस ही निर्धारित करना पड़ा। यह धारित किया गया कि इस हानि के लिए वादी को कोई उपचार नहीं मिल सकता। न्यायाधीश हेन्कफोर्ड ने अभिमत व्यक्त किया कि हानि (Damnum) यदि किसी ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप होती है जो विशुद्ध प्रतियोगिता के अन्तर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए किया गया है, तो वह अवैध नहीं है, चाहे भले ही ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष को हानि उठानी पड़ी हो। ऐसे कार्यों को निरपेक्ष अपकृति (abseque injuria) की संज्ञा दी जा सकती है। उदाहरण के लिए, मेरे पास एक मिल है, और मेरा पड़ोसी भी एक नये मिल की स्थापन करता है, जिसके परिणामस्वरूप मेरे मिल का लाभ कम हो जाता है। मैं इस हानि के होते हुये भी अपने पड़ोसी के विपरीत कोई कार्यवाही नहीं कर सकता, परन्तु यदि यह मिल वाला मेरे मिल में आने अथवा जाने वाले पानी को व्यवधानित करता है, या इसी प्रकार का कोई अपदूषण करता है, तो मैं विधि द्वारा प्राधिकृत कार्यवाही करने का अधिकारी हूँ।”
(ii) मुगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम मैकग्रेगर के वाद में अनेकों पोत (Shipping) कम्पनियों ने संयुक्त रूप से जहाजों द्वारा भेजे जाने वाले माल के भाड़े में कमी कर दी। माल भाड़े की दर में कमी करने का मुख्य उद्देश्य वादी को चीन के चाय परिवहन व्यापार क्षेत्र से निकाल देना था। हाउस ऑफ लाईस ने धारित किया कि वादी के पास कार्यवाही करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि प्रतिवादियों ने अपने व्यापार के संरक्षण तथा विस्तार के लिए वैधपूर्ण रीति से कार्य किया था।
(ii) ऐक्टन बनाम ब्लन्डेल के वाद में प्रतिवादी ने अपनी भूमि में एक कोयले के लिए गड्ढा (Coal pit) खुदवाया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग एक मील की दूरी पर स्थित बीस वर्ष के कम पुराने वादी के कूप (well) में जाने वाला अन्तः जलमार्ग अवरुद्ध हो गया और कुआँ सूख गया। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी इसके लिए उत्तरदायी न थे। यहाँ यह विचार व्यक्त किया गया कि ‘वह व्यक्ति जो भूमि-तल का स्वामी है, भूमितल पर खुदाई का कार्य कर सकता है, और इस पर पाई गई समस्त वस्तु का उपभोग अपनी स्वतन्त्र इच्छा और सुख के अनुसार कर सकता है, और यदि अपने इस अधिकार के प्रयोग में यह पड़ोसी के कुएँ में जाने वाले जल- स्रोत के मार्ग को अवरुद्ध करता है, अथवा उसमें एकत्र जल का बाहर निकल जाना कारित करता है, तो इस कार्य के परिणामस्वरूप पड़ोसी को होने वाली असुविधा ‘बिना क्षति के हानि’ (dammum abseque injuria) है और कार्यवाही का आधार नहीं है।’
(iv) मेयर ऑफ बैडफोर्ड कारपोरेशन बनाम पिकेल्स के वाद में हाउस ऑफ लाई ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि चाहे भले ही वादी को विद्वेषपूर्ण कार्य के परिणामस्वरूप हानि हुई हो, वह तब तक कार्यवाही नहीं कर सकता जब तक कि यह साबित नहीं कर देता कि उसे ‘विधिक क्षति’ (injuria) हुई है।
इस वाद में प्रतिवादी की भूमि से, जिसका तल ऊँचा था, वादी जल ग्रहण करता था। प्रतिवादी ने अपनी भूमि में एक कूपक (shaft) खुदवाया जिसके परिणामस्वरूप वादी द्वारा प्राप्त किये जा रहे जल की मात्रा कम हो गई तथा वह जल बदरंग हो गया। वादी ने व्यादेश जारी करने का दावा प्रस्तुत किया और यह निवेदन किया कि प्रतिवादी को कूपक का निर्माण करने से रोक दिया जाये क्योंकि उसका एकमात्र उद्देश्य वादी को इसलिए क्षति पहुँचाना था, क्योंकि उसने प्रतिवादी की भूमि को अत्यन्त बढ़े हुए दाम पर नहीं खरीदा था। हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने यह धारित किया कि चूंकि प्रतिवादी अपने विधिपूर्ण अधिकार का प्रयोग कर रहा था। अतः वह उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता, चाहे भले ही उसका वह कार्य, जिससे वादी को क्षति पहुँची थी, विद्वेषपूर्ण रहा हो। लॉर्ड ऐशबॉर्न ने अभिमत व्यक्त किया कि, ‘वादी के पास वाद का कोई कारण नहीं था, क्योंकि वह यह प्रदर्शित नहीं कर सका कि वह विवाद में उठाये गये जल-प्रवाह का अधिकारी था, और यह उसे कि प्रतिवादी को वह करने का अधिकार नहीं था जिसको उसने किया था।
इस प्रकार कोई भी ऐसा वैध कार्य, चाहे वह भले ही विद्वेषपूर्ण क्यों न हो, वादी प्रतिवादी को उत्तरदायी नहीं बना सकता। वादी, प्रतिवादी से प्रतिकार का तभी उत्तरदायी है जब इस बात को सिद्ध करदें कि प्रतिवादी के अवैध कार्य के कारण क्षति हुयी है।
(v) टाउन एरिया कमेटी बनाम प्रभुदयाल के वाद में भी यह विषय स्पष्ट किया गया। इस वाद में वादी ने एक भवन की पुरानी नीवों पर 16 दुकानों का निर्माण किया। यह निर्माण- कार्य भवन-निर्माण के आशय की सूचना दिये बिना ही किया गया, जिसकी कि उत्तर प्रदेश नगरपालिका अधिनियम की धारा 178 के अन्तर्गत अपेक्षा की गई थी। इसी अधिनियम की धारा 180 की अपेक्षाओं के अनुरूप भवन-निर्माण की आवश्यक स्वीकृति भी नहीं ली गई। प्रतिवादियों ने इस निर्माण को ध्वस्त कर दिया। प्रतिवादियों के विरुद्ध निर्माण-ध्वस्त के प्रतिकर के दावे में वादी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि प्रतिवादियों का कार्य अवैध था, क्योंकि वह विद्वेषपूर्ण था। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी किसी हानि के लिए उत्तरदायी नहीं थे, क्योंकि कोई विधिक क्षति (Injuria) साबित नहीं की जा सकी। यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया कि यदि व्यक्ति अवैधतः किसी भवन का निर्माण करता है, तो नगरपालिका के प्राधिकारियों द्वारा ऐसे भवन का ध्वस्त किया जाना सम्पत्ति के स्वामी के विरुद्ध कोई विधिक क्षति (Injuria) कारित नहीं करता।
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