पर्यावरण विधि (Environmental Law)

पर्यावरणीय नैतिकता क्या है? Environmental Ethics in Hindi

पर्यावरणीय नैतिकता क्या है?
पर्यावरणीय नैतिकता क्या है?

पर्यावरणीय नैतिकता क्या है? Environmental Ethics in Hindi

“पर्यावरणीय नैतिकता विकास का निषेध नहीं करता है।” कथन स्पष्ट कीजिए।

पर्यावरणीय नैतिकता (Environmental Ethics) – हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि मनुष्य पर सभी सनातन पर्यावरण नियम उसी प्रकार लागू होते हैं जैसे अन्य प्रजातियों पर। यह समुदाय, मौजूदा एवं भावी पीढ़ियों के सभी मानव समाजों एवं प्रकृति के अन्य सभी हिस्सों को एकीकृत करता है। इसमें सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक दोनों प्रकार की विभिन्नताएँ सम्मिलित हैं।

सम्पूर्ण जीवन प्राकृतिक तंत्र के संचालन पर निर्भर है जिसमें ऊर्जा तथा पोषक तत्वों की आपूर्ति सुनिश्चित हो। इसलिए दुनियाभर के जीवित समुदायों की उत्तरदायित्व का होना अनिवार्य है। मानव संस्कृति का विकास अगाध प्रकृति प्रेम पर आधारित होना चाहिए, उसमें प्रकृति के साथ एकरूपता की भावना होनी चाहिए तथा इस बात का अहसास होना चाहिए कि मानव क्रियाकलापों के विकास और प्रकृति के बीच सामंजस्य एवं संतुलन बना रहे।

प्रत्येक जीव को रहने के लिए स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि किसी भी जीव अथवा सत्ता को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह पर्यावरण पर इतना संकट उत्पन्न कर दे जिससे पर्यावरण स्थायित्व पर बुरा असर पड़ने लग जाय |

विकास की दीर्घकालिक निरन्तरता तभी तक बनी रह सकती है जब तक हम जीवनाधार तन्त्रों की एकता की सुनिश्चितता बरकरार रखी जाए तथा साथ-साथ मानव की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो सके। किसी वास्तविक निरन्तर विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक पर्यावरण एवं विकास की एकता के निश्चित प्रयास किए जाने चाहिए, न कि उसका उल्टा।

समाज के द्वारा सभी चीजों और हमारे बीच के परस्पर सम्बन्धों को नियंत्रित करने वाले उन मानवीय नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता ठीक उसी तरह है, जिस तरह से प्राकृतिक तंत्रों की निरन्तरता की देखभाल एक नियमावली के अन्तर्गत की जाती है। उस “पर्यावरण नीति एवं आचरण संहिता” का उद्देश्य है- सहभागितामूलक मूल्यों का संधिकरण, जिससे व्यक्तियों एवं संगठनों को न सिर्फ उनके आत्म परीक्षण के कार्य में आसनी हो, बल्कि उस पर्यावरण की भलाई के लिए कार्य करने में भी सरलता का आभास मिले जो उनको जीवित रखता है। संहिता का दूसरा कार्य है एक ऐसे अनुकूल उपकरण के रूप में कार्य करना जो प्रकृति के प्रति हमारे कर्त्तव्य को प्रोत्साहन देता हो-प्रकृति जिसे हमारे जीवनाधार तन्त्रों के दाता एवं निरंतरता-प्रदाता के रूप में देखा जाता है। संहिता निम्नलिखित आधार वाक्यों पर आधरित है :

प्राकृतिक पर्यावरण नियन्त्रण सम्बन्धी आधार-वाक्य

1. जीवन जीवित समुदाय की मूलभूत इकाई है।

2. जीवन ने अपने विकास के दौरान कई जीवित प्रकारों को जन्म दिया है।

3. प्रत्येक जीवित प्रकार का स्वयं का एक विशिष्ट इतिहास रहा है और वह जीवों के साथ-साथ विकसित हुआ है, जिसके फलस्वरूप प्राकृतिक तंत्रों की रचना हुई है।

4. मानव प्रकृति का एक हिस्सा है तथा जीवित प्रकारों की विभिन्नता का एक हिस्सा भी।

5. जीवन एवं जीवित प्रकारों की जटिलता, विभिन्नता एवं परस्पर सम्बन्धों सम्बन्धी हमारा ज्ञान एवं समझ अभी आरम्भिक अवस्था में ही है।

6. मानव ने विभिन्न परिणाम में पृथ्वी के प्राकृतिक तंत्रों को इस हद तक परिवर्तित कर दिया है कि कई प्रजातियाँ तो विलुप्त हो ही गयी हैं और हमारे सहित अनगिनत प्रजातियों के विलुप्त हो जाने की आशंका भी है।

7. इस बात के प्रमाण अब प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है कि विकास के मौजूदा खपतमूलक प्रतिमान एवं मानव जनसंख्या वृद्धि की दर हमारे जीवनधार तंत्रों की निरन्तरता के अनुरूप नहीं है।

इन मूलभूत पर्यावरण आधार वाक्यों को स्वीकार करते हुए हमें निम्नलिखित नैतिक नियमों से सहमत होना चाहिए :

1. प्रत्येक मूलभूत जीवन प्रकार विशिष्ट है और इसका एक ऐसा अन्तर्निहित महत्व है जिसका मानव के उपयोग के सन्दर्भ में किसी अनुभूत मूल्य से कोई सम्बन्ध नही होता।

2. हमें प्रकृति एवं इसके विभिन्न प्रकारों के प्रति अगाध आदरभाव रखना चाहिए। प्राकृतिक तंत्रों की सीमा के अंदर की अन्य प्रजातियों के साथ सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध को बनाए रखना अथवा उसे पुनर्स्थापित करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है।

3. सभी व्यक्तियों को उनके द्वारा प्रकृति पर पडने वाले प्रभावों का उत्तरदायित्व वहन करना चाहिए।

4. कई स्थानीय एवं देशी लोगों (त्रियों एवं पुरुषों) के पास उनके क्षेत्रीय पारिस्थितिक तंत्र की विशिष्ट जानकारी उपलब्ध हैं। ऐसे ज्ञान एवं संस्कृति जिनका कि यह एक अंग है, का आदर किया जाना चाहिए तथा संभाला जाना चाहिए।

5. भावी पीढ़ियों की भलाई एवं इस ग्रह के जीवन तंत्रों की उत्तरजीविता के लिए हमें दीर्घकालिक स्वरूप की योजना तैयार करनी चाहिए।

मूलभूत सिद्धान्त-

1. प्राकृतिक पर्यावरण-तंत्रों के संचालन के सम्बन्ध की हमारी समझ को ध्यान में रखते हुए, हम यह महसूस करते हैं कि इन तंत्रों के मानव द्वारा किए जाने वाले उपयोग एवं मानव गतिविधियों के नियंत्रण की आवश्यकता है, न कि इन पर्यावरण तंत्रों प्रबन्धन की।

2. हमें ऐसी गतिविधियों से बचना चाहिए जिनसे कोई प्रजाति विलुप्त हो जाती हो या जिनसे प्राकृतिक वासों की अवनति होती है या वे समाप्त हो जाते हों। पर्यावरण विशेषज्ञता को विकास प्रक्रिया में पूरी तरह से सम्मिलित किया जाना चाहिए।

3. विकास स्थानीय पर्यावरण तंत्रों में स्थानीय लोगों की आवश्यकता का परिचायक नहीं है। न्यायोचित एवं पर्यावरण युक्तिसंगत विकास सम्बन्धी निर्णयों में इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस प्रक्रिया में सर्वाधिक रूप से प्रभावित समूहों एवं व्यक्तियों का योगदान अवश्य हासिल किया जाए। विकास निर्णयों में पर्यावरण सम्बन्धी देशी अथवा स्थानीय ज्ञान एवं उसके उपयोग को शामिल किया जाना चाहिए।

4. किसी प्रस्तावित विकास प्रक्रिया से प्रभावित हो सकने वाले सभी लोगों को उपलब्ध महत्वपूर्ण सूचनाओं के साथ-साथ योजना एवं निर्णयात्मक प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिलना चाहिए।

5. प्रवाह के विरुद्ध की जाने वाली गतिविधियाँ बहुत अप्रत्याशित एवं हानिकारक अनुप्रवाह प्रभावों को जन्म देती है। इसलिए जहाँ तक संभव हो, किसी विकास परियोजना पर आसन्न विभिन्न संकटों का मूल्यांकन परियोजना प्रक्रिया के एक हिस्से के रूप में ही किया जाना चाहिए तथा इन्हें क्रियान्वयन अवस्था के पूर्व रूपरेखा एवं योजना अवस्था में ही हल किया जाना चाहिए।

क्षतिग्रस्त पर्यावरण तंत्रों के पुनरुस्थान एवं उनके निरन्तर उपयोग के साथ-साथ बचे हुए प्राकृतिक क्षेत्रों की सुरक्षा को निरन्तर विकास गतिविधियों के महत्पूर्ण पहलुओं के रूप में देखा जाना चाहिए। भविष्य में अनावश्यक उपचारमूलक गतिविधियों से बचने के लिए सतर्कता को प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि पर्यावरणीय नैतिकता पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसके छ: सिद्धान्त हैं-

1. जीवन सहायक प्रणाली के महत्पूर्ण अवयवों की रक्षा और अभिवृद्धि करना जैसे- अनवीकरणीय स्रोतों का संरक्षण, नवीकरणीय स्रोतों का पोषणक्षम उपयोग, इत्यादि।

2. स्रोतों के न्यायपूर्ण हिस्सेदारी को सुनिश्चित करना।

3. उपभोक्तावाद के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूकता  पैदा करना।

4. जीवन के पोषणक्षम तरीकों जैसे मितव्ययिता (Frugality) और भाईचारा (Fra-ternity) का अनुपालन करना।

5. सम्पूर्ण विश्व में सैनिक निर्माण को रोकना और घटाना।

6. ‘नैतिकता का सम्बन्ध मूलरूप से हमारे चरित्र और दायित्व से है।

संसार में प्रत्येक जीवितों के मूल पर्यावरणीय नैतिकता है। मानवजाति स्वयं भी प्रकृति का अंग है, जो कार्बनिकम विकास प्रक्रिया द्वारा पृथ्वी पर की सर्वोत्कृष्ट प्राकृतिक रचना है। प्रकृति से मानव समाज को अलग करन बच्चे को उसकी माता से अलग करने जैसा है। इसलिए पृथ्वी पर मनुष्य को जीवन के सभी प्रकारों और स्त्रोतों के साथ सामंजस्यपूर्वक रहना चाहिए।

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