मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन परिचय, कार्यक्षेत्र, रचनाएँ तथा भाषा शैली
मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी रचनाओं तथा भाषा शैली के बारे में बताइए।
जीवन परिचय
मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवन-यापन का अध्यापन से। पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही था। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्मे होशरूबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ ‘शरसार’, मिरजा रुसबा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।
1910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास विषय से इंटर पास किया और 1919 में बी०ए० पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ, जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे, जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संतानें हुई – श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1910 में उनकी रचना ‘सोजे-वतन’ (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा।
इस समय तक प्रेमचंद, धनपतराय नाम से लिखते थे। सन् 1915 ई० में इन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा पर ‘प्रेमचंद’ नाम धारण करके, हिंदी-साहित्य जगत में पदार्पण किया। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। अक्टूबर 1936 में उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।
कार्यक्षेत्र
प्रेमचंद आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह माने जाते हैं। वैसे तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो चुका था, पर उनकी पहली हिंदी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में 1915 में, ‘सौत’ नाम से प्रकाशित हुई और 1936 में अंतिम कहानी ‘कफन’ नाम से। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएँ ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। भारतीय साहित्य का बहुत-सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा, चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य, उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं। प्रेमचंद नाम से उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’, ‘जमाना’ पत्रिका के दिसंबर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से 8 खंडों में प्रकाशित हुई। कथा सम्राट प्रेमचंद का कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। 1921 में उन्होंने महात्मा गाँधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने ‘मर्यादा’ पत्रिका का संपादन भार सँभाला, छह साल तक ‘माधुरी’ नामक पत्रिका का संपादन किया, 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्र ‘हंस’ शुरू किया और 1932 के आरंभ में ‘जागरण’ नामक एक साप्ताहिक पत्र और निकाला। उन्होंने लखनऊ में 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की।
रचनाएँ
प्रेमचंद ने कथा-साहित्य के क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन किए और एक नए कथा-युग का सूत्रपात किया। जनता की बात जनता की भाषा में कहकर तथा अपने कथा-साहित्य के माध्यम से तत्कालीन निम्न एवं मध्यम वर्ग की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करके वे भारतीयों के हृदय में समा गए और भारतीय साहित्य जगत में ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से विभूषित हुए।
प्रेमचंद ने कहानी, नाटक, जीवन-चरित और निबंध के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का अभूतपूर्व परिचय दिया।
(अ) उपन्यास – कर्मभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, वरदान, सेवासदन, रंगभूमि, गबन, गोदान और मंगलसूत्र (अपूर्ण)
(ब) कहानी संग्रह – नवनिधि, ग्राम्य जीवन की कहानियाँ, प्रेरणा, कफन, कुत्ते की कहानी, प्रेम-प्रसून, प्रेम-पचीसी, प्रेम-चतुर्थी, मनमोदक, मानसरोवर (दस भाग), समर-यात्रा, सप्त-सरोज, अग्नि-समाधि, प्रेम-गंगा और सप्त- सुमन
(स) नाटक – कर्बला, प्रेम की वेदी, संग्राम और रूठी रानी
(द) जीवन-चरित – कलम, तलवार और त्याग, दुर्गादास, महात्मा शेखसादी और राम-चर्चा
(य) निबंध-संग्रह – कुछ विचार
(र) संपादित – गल्प-रत्न और गल्प-समुच्चय
(ल) अनूदित – अहंकार, सुखदास, आजाद-कथा, चाँदी की डिबिया, टॉलस्टाय की कहानियाँ और सृष्टि का आरंभ
भाषा शैली
प्रेमचंद जी की भाषा के दो रूप हैं- एक रूप तो जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है और दूसरा रूप जिसमें उर्दू, संस्कृत और हिंदी के व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी भाषा का प्रयोग इन्होंने अपनी श्रेष्ठ कृतियों में किया है। यह भाषा अधिक सजीव, व्यावहारिक और प्रवाहमयी है। यही भाषा प्रेमचंद जी की प्रतिनिधि भाषा है। प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य की रचना जनसाधारण के लिए की। इसी कारण उन्होंने सरल, सजीव एव सरस शैली में ही अपनी रचनाओं का सृजन किया। वे विषय एवं भावों के अनुरूप शैली को परिवर्तित करने में दक्ष थे। प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य में निम्नलिखित शैलियों का प्रयोग किया है-
(अ) वर्णनात्मक शैली – किसी पात्र, वस्तु, घटना आदि का वर्णन करते समय इस शैली का प्रयोग किया गया है। नाटकीय सजीवता इनके द्वारा प्रयुक्त इस शैली की प्रमुख विशेषता है।
(ब) विवेचनात्मक शैली – प्रेमचंद जी ने अपने गंभीर विचारों को व्यक्त करने के लिए विवेचनात्मक शैली को अपनाया है। इस शैली में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग अधिक किया गया है।
(स) मनोवैज्ञानिक शैली – प्रेमचंद जी ने मन के भावों तथा पात्रों के मन में उत्पन्न अंतर्द्वद्वों को चित्रित करने के लिए इस शैली का प्रयोग किया है।
(द) हास्य-व्यंग्यात्मक शैली – सामाजिक विषमताओं का चित्रण करते समय इस शैली का प्रभावपूर्ण प्रयोग किया गया है।
(य) भावनात्मक शैली – काव्यात्मक एवं आलंकारिकता पर आधारित इनकी इस शैली के अंतर्गत मानव जीवन से संबंधित विभिन्न भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
साहित्यिक योगदान
कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद युगांतकारी परिवर्तन करने वाले कथाकार तथा भारतीय समाज के सजग प्रहरी व एक सच्चे प्रतिनिधि-साहित्यकार थे। डा० द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है- “हिंदी साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का आगमन एक ऐतिहासिक घटना थी। उनकी कहानियों में ऐसी घोर यंत्रणा, दुःखद गरीबी, असप्त दुःख, महान स्वार्थ और मिथ्या आडंबर आदि से तड़पते हुए व्यक्तियों की अकुलाहट मिलती है, जो हमारे मन को कचोट जाती है और हमारे हृदय में टीस पैदा कर देती है।” तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए, जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित। एक श्रेष्ठ कथाकार और उपन्यास सम्राट के रूप में हिंदी-साहित्याकाश में उदित इस ‘चंद्र’ को सदैव नमन किया जाता रहेगा।
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