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मूल डिक्री की अपील पर टिप्पणी। The Appeal of The Original Decree in Hindi

मूल डिक्री की अपील
मूल डिक्री की अपील

मूल डिक्री की अपील पर टिप्पणी लिखिये। Write comment on the appeal of the original decree

मूल डिक्री की अपील पर टिप्पणी – मूल डिक्रियों की अपीलें (धारा 96) धारा 96 के अन्तर्गत अपील करने के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है –

(1) अपील की विषय-वस्तु डिक्री होनी चाहिये। दूसरे शब्दों में बाद के सभी या किन्हीं विषयों के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों पर निश्चायक रूप से अवधारण होना चाहिये। भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 49 के अन्तर्गत कोई अवधारण (determination) डिक्री नहीं है। अतः इसके विरुद्ध मूल डिक्री की अपील पर टिप्पणी नहीं की जा सकती।

(2) ऐसे अवधारण से वह पक्षकार जो अपील कर रहा है उसके हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। “कोई आवश्यक नहीं है कि डिक्री से केवल निर्णत-ऋणी के हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उसके हित पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, और वह डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है। कभी-कभी डिक्री से डिक़ीदार भी दुखी होता है और उसके हित पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, अतः ऐसी स्थिति में वह भी डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है।

उदाहरण के लिये ‘अ’ एक वाद 25,000 रुपये प्राप्त करने के लिये ‘ब’ के विरुद्ध संस्थित करता है। न्यायालय ‘अ’ के पक्ष में 15,000 रुपये की डिक्री पारित करता है। यहाँ निर्णीत ऋणी अर्थात ‘ब’ तो दुःखी है ही क्योंकि उसके हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है। न केवल निर्णत ऋणी मूल डिक्री की अपील पर टिप्पणी कर सकता है वरन् डिक्रीदार ‘अ’ भी अपील कर सकता है क्योंकि वह भी निर्णय से दुःखी है जहाँ तक उसे 10,000 रुपये नहीं प्राप्त हुये हैं। दूसरे शब्दों में उसके हित पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

जो ‘अ’ को प्राप्त हुआ है उसे स्वीकार कर सकता है और शेष के लिये अपील कर सकता है। नियम यह है कि वह डिक्री का उस सीमा तक अनुमोदन कर सकता है जहाँ तक उसे डिक्री कुछ देती है, और जो डिक्री अस्वीकार करती है उसके लिये उसे नामंजूर कर सकता है। (He may approbate the decree as to what it awards him and reprobate the decree as to what it refuses him.)

जहाँ वाद सविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये विकल्प के रूप में अग्रिम धन के वापस लौटाने के लिये लाया गया है, और वादी को वैकल्पिक अनुतोष (अग्रिम धन की प्राप्ति) प्राप्त होता है वहाँ मद्रास उच्च न्यायालय की एक पूर्णपीठ में अन्ना पूरानी अम्मल बनाम रामास्वामी नाइकर AIR 1999 मद्रास नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि वादी एक व्यथित (दुःखी) व्यक्ति हैं और वह वाद में डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है, वह पोषणीय है।

दुःखी व्यक्ति (Aggrieved person)

एक दुःखी व्यक्ति वह है जिसे विधिक क्षति पहुँची है (has suffered a legal grievance), एक व्यति जिसके विरुद्ध एक निर्णय दिया गया है जो उसे गलत तरीके से कुछ बीजों से वंचित करता है, या गलत तरीके से उसे कुछ चीज़ों को देने से अस्वीकार करता है या गलत तरीके से कुछ चीजों के प्रति उसके स्वत्व (title) को प्रभावित करता है।

धारा 96 के अधीन हर उस डिक्री के विरुद्ध अपील होगी जो आरम्भिक अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी न्यायालय द्वारा पारित की गयी है। इस धारा के अधीन एकपक्षीय (expert) मूल डिक्री के विरुद्ध भी अपील हो सकेगी।

परन्तु जहाँ डिक्री पक्षकारों की सहमति से पारित की गयी है वहाँ उस डिक्री के विरुद्ध कोई अपील नहीं होती। अपील डिक्री के विरुद्ध होती है न कि मात्र निष्कर्ष या निर्णय के विरुद्ध । एक पक्षीय डिक्री के विरुद्ध अपील-धारा 96 (2) के प्रावधानों अनुसार पक्षीय पारित मूल डिक्री के भी विरुद्ध अपील हो सकेगी।

जहाँ एक पक्षीय डिक्री को निरस्त करने के लिये आवेदन आदेश 9 नियम 13 के अन्तर्गत दिया गया और ऐसा आवेदन खारिज हो गया है, वहाँ भी एक पक्षीय पारित डिक्री के विरुद्ध नियमित अपील धारा 96 (2) के अन्तर्गत पोषणीय है। पुनः आदेश 9 नियम 13 के अधीन कार्यवाही और एक नियमित अपील दोनों साथ-साथ चल सकती हैं। ऐसा निर्णय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने अर्चना कुमार बनाम पुरेन्द्र प्रकाश मुखर्जी AIR 2000 ( म०प्र०) नामक वाद में दिया।

एकपक्षीय डिक्री के विरुद्ध एक पक्षीय डिक्री के विरुद्ध प्रतिवादी को दो उपाय उपलब्ध हैं या तो वह बारा 96(2) के अन्तर्गत अपील दाखिल कर सकता है या आदेश 9. नियम 13 के अन्तर्गत एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने के लिये आवेदन दे सकता है।

एक बार जहाँ उसका आवेदन आदेश 9 नियम 13 के अन्तर्गत खारिज कर दिया जाता है, वहाँ वह प्रथम अपील दाखिल करके उसमें न तो वह एक पक्षीय सुनवाई की सत्यता को चुनौती दे सकता है और न ही अपने उपसजात न होने के लिये कारण दर्शित कर सकता है।या तो अपील हो सकती है या आदेश 9 नियम 13 के अन्तर्गत डिक्री को निरस्त करने की कार्यवाही हो सकती है। दोनों कार्यवाहियां साथ-साथ चल सकती हैं। अपील का अधिकार छीना नहीं जा सकता। एक आवेदन देकर आदेश 9 नियम 13 के अन्तर्गत।

सहमति की डिक्री (Consent decree) 

वह डिक्री जो दोनों पक्षकारों के सहमति के आधार पर न्यायालय पारित करती है वह सहमति की डिक्री होती है और ऐसी डिक्री अपील योग्य नहीं होती। परन्तु क्या ऐसी डिक्री के विरुद्ध किन्हीं परिस्थितियों में अपील हो सकती है? उच्चतम न्यायालय ने पुष्पा देवी भगत बनाम राजिन्दर सिंह में स्थित स्पष्ट की है।

उसके अनुसार आदेश 23 नियम (3) में जो संशोधन 1976 में किये गये और जो 1-2-77 से लागू हुये जैसे नियम (3) में परन्तुक जोड़ा गया और नियम 3 (क) भी जोड़ा गया के सम्मिलित परिणाम से जो तस्वीर अब स्पष्ट रूप से उभरती है वह निम्न है:

(i) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 96 (3) में अन्तर्विष्ट विशिष्ट वर्जना को ध्यान में रखते सहमति या समझौते की डिक्री के डिक्री विरुद्ध अपील नहीं हो सकती|

(ii) न्यायालय द्वारा समझौते को अभिलिखित किये जाने के आदेश ओर न ही समझौते के अभिलिखित किये जाने से अस्वीकार किये जाने के विरुद्ध अपील हो सकती है। ऐसा आदेश 43 नियम 1 और उपनियम (ङ) को विलोपित करने के कारण हुआ है।

(iii) नियम 3क में अन्तर्विष्ट वर्जना के नाते समझौते की को निरस्त करने के लिये कोई स्वतन्त्र वाद नहीं संस्थित किया जा सकता|

(iv) एक सहमति की डिक्री विबन्ध के रूप में लागू होती है और तब तक विधिसम्मत और बाध्य कर होती है जब तक उसको न्यायालय के द्वारा जिसने सहमति की डिक्री पारित की, आदेश 23 नियम (3) के परन्तुक के अन्तर्गत आवेदन पर निरस्त न कर दी जाय।।

अतः सहमति की डिक्री के एक पक्षकार को एकमात्र उपाय जो उपलब्ध है, ऐसी सहमति को डिक्री से बचे रहने का (to avoid) वह है उस न्यायालय के पास पहुँचने का (to approach) या उससे निवेदन करने का जिसने समझौता अभिलिखित किया और उसके अनुसार डिक्री पारित किया, यह स्थापित या साबित करने का कि ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ था।

जहाँ एक समझौते की डिक्री कष्ट से प्राप्त की गयी है वहाँ ऐसी डिक्री को निरस्त करने के लिये एक दीवानी वाद नहीं लाया जा सकता। उसके लिये उचित तरीका होगा, आदेश 23 नियम 3 के परन्तुक के अन्तर्गत एक याचिका के माध्यम से उस पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाये।

जहाँ एक वाद के अन्तर्गत समझौता (compromise) किया जाता है और एक पक्षकार ऐसे समझौते को चुनौती देता है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने बनवारी लाल बनाम चाँदी देवी नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि वह या तो आदेश 23 नियम 3 के अन्तर्गत पिटीशन (याचिका दाखिल कर सकता है या संहिता की धारा 96 (1) के अन्तर्गत अपील दाखिल कर सकता है और ऐसे अपील में समझौते की विधि मान्यता के प्रश्न को (आदेश 43 नियम 1-क के अनुसार) उठा सकता है।

लघुवाद न्यायालय की डिक्री से अपील-धारा 96 की उपधारा (4) अनुसार किसी लघुवाद न्यायालय द्वारा संज्ञेय वाद में पारित डिक्री के विरुद्ध अपील तभी हो सकेगी जब ऐसी डिक्री की रकम या उसका मूल्य दस हजार रुपये से अधिक है या जहाँ डिक्री की रकम या उसका मूल्य दस हजार से कम है वहाँ केवल विधि के प्रश्न पर ही अपील हो सकेगी।

विधि का सारवान प्रश्न  – अपील के उद्देश्य के लिये और द्वितीय अपील के लिये “विधि का सारवान् प्रश्न” में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता।

पश्चात्वर्ती घटनायें – अपीलीय न्यायालय के अधिकार में है कि वह पश्चात्वर्ती घटनाओं का संज्ञान ले सकती हैं, वे घटनायें जो वाद दाखिल करने के पश्चात् घटी हैं, और अनुतोष को तदनुसार बदल सकती हैं।

सभी विवाद्यकों पर विचार करना चाहिये- यदि प्रथम अपीलीय न्यायालय उच्च न्यायालय है तो उसे विचारण न्यायालय द्वारा सभी विवाद्यकों पर चाहे वे विधि सम्बन्धी हो। या तथ्य सम्बन्धी सभी पर विचार करना चाहिये और तभी अपील का विनिश्चय करना चाहिये। किसी भी विवाद्यक पर विचारण न्यायालय के विनिश्चय की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये और न ही उसकी अनदेखी करनी चाहिये।

यही नहीं उच्च न्यायालय को प्रथम अपील का निर्धारण आदेश 41 नियम 31 की प्रक्रिया के अनुसार करन चाहिये। वाद, संविदा के समापन के कारण क्षतिपूर्ति के लिये संस्थित किया गया, अपीलीय न्यायालय ने केवल तथ्यों का उल्लेख किया, विचारण न्यायालय द्वारा विरचित विवाद्यकों को ध्यान में लिया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि क्षतिपूर्ति की डिक्री पोषणीय नहीं है।

उच्चतम न्यायालय में यूनाइटेड इंजीनियर्स एण्ड काण्ट्रैक्टर्स बनाम सेक्रेटरी टू गवर्नमेण्ट ऑफ ए0पी0 में अभिनिर्धारित किया कि अपील का निस्तारण आदेश 41 नियम 30 के अनुसार नहीं था।

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