धारा 80 के अधीन नोटिस के क्या आवश्यक तत्व हैं?- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 79 में वह प्रक्रिया दी गयी है। जिसके तहत सरकार के द्वारा किसी के विरुद्ध वाद दायर किया जा सकता है अथवा किसी के द्वारा सरकार के विरुद्ध वाद दायर किया जा सकता है। यह धारा किसी भी प्रकार सरकार के विरुद्ध या सरकार द्वारा दावों या प्रवर्तनीय दायित्वों को न तो बढ़ाती है और न ही उसको प्रमाणित करती है। उन दावों और दायित्वों का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 294, 300 के अधीन होगा।
सरकार के विरुद्ध वाद कब संस्थित किया जा सकता है? इस प्रश्न का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 300 (1) के अनुसार किया जाना चाहिए।
सरकार के द्वारा वाद के पक्षकार
सरकार के द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद संस्थित किये जाने के लिए वादी या प्रतिवादी के रूप में, जैसी भी स्थिति हो, निम्नलिखित को पक्षकार बनाया जाएगा |
(क) जहाँ वाद केन्द्रीय सरकार द्वारा या विरुद्ध संस्थित किया जाना हो वहाँ वादी या प्रतिवादी के रूप में (जैसी भी स्थिति हो) अंकित अधिकारी “भारत का संघ” होगा।
(ख) जहाँ वाद राज्य सरकार के द्वारा या विरुद्ध संस्थित किया जाना हो वहाँ वादी या प्रतिवादी के रूप में (जैसी भी स्थिति हो) अंकित प्राधिकारी संपृक्त “राज्य” होगा, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि ।
सूचना
सरकार के विरुद्ध अथवा किसी लोक प्राधिकारी के विरुद्ध वाद दायर किये जाने से पूर्व सरकार या लोक प्राधिकारी को सूचना अथवा नोटिस दिये जाने का प्रावधान है।
जिसके बारे में धारा 80 में उपबन्ध किया गया है। धारा 80 के अनुसार
(1) उसके सिवाय जैसा कि उपधारा में उपबन्धित है, सरकार के (जिसके अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार भी आती है) विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यित है कि वह ऐसे लोक-अधिकारी द्वारा अपने पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध कोई वाद तब तक संस्थित नहीं किया जाएगा जब तक वादहेतुक का, वादी के नाम वर्णन और निवास स्थान का और जिस अनुतोष का वह दावा करता है उसका कथन करने वाली लिखित सूचना –
(क) केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में वहाँ के सिवाय जहाँ वह रेल से सम्बन्धित है, उन सरकार के सचिव को |
(ख) केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में वहाँ वह रेल से सम्बन्धित है, उस रेल के प्रधान प्रबन्धक को, जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में, उस सरकार के मुख्य सचिव को या उस सरकार द्वारा इस निर्मित्त प्राधिकृत किसी अन्य अधिकारी को,
(ग) किसी अन्य राज्य सरकार के विरुद्ध दशा में, उस सरकार के सचिव को या जिले के कलेक्टर को, परिदत्त किये जाने या उसके कार्यालय को छोड़े जाने के और लोक अधिकारी की दशा में उसे परिदत्त किए जाने या उसके कार्यालय में छोड़े जाने के पश्चात् दो मास का अवसान न हो गया हो, और वादपत्र में यह कथन अन्तर्विष्ट होगा कि ऐसी सूचना ऐसे परिदत्त कर दी गई है या छोड़ दी गई है।
(2) सरकार के (जिनके अन्तर्गत जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार भी आती है) विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यित है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध कोई अत्यावश्यक या तुरन्त अनुतोष अभिप्राप्त करने के लिए कोई वाद, न्यायालय की इजाजत से, उपधारा (1) द्वारा यथा अपेक्षित, किसी सूचना की तामील किये बिना, संस्थित किया जा सकेगा |
किन्तु न्यायालय वाद में अनुतोष चाहे अन्तरिम या अन्यथा, यथास्थिति, सरकार या लोक अधिकारी को बाद में आवेदित अनुतोष की बाबत हेतुक दर्शित करने का उचित अवसर देने के पश्चात् ही प्रदान करेगा अन्यथा नहीं परन्तु यदि न्यायालय के पक्षकारों के सुनने के पश्चात्, यह समाधान हो जाता है कि यह वाद में कोई अत्यावश्यक या तुरन्त अनुतोष प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है तो वह बाद पत्र को वापस कर देगा कि उसे उपधारा (1) की अपेक्षाओं का पालन करने के पश्चात प्रस्तु किया जाय।
(3) सरकार के विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्थित है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध संस्थित किया गया कोई वाद केवल इस कारण खारिज नहीं किया जाएगा कि उपधारा (1) में निर्दिष्ट सूचना में कोई त्रुटि या दोष है, यदि ऐसी सूचना में –
(क) वादी का नाम, वर्णन और निवास स्थान इस प्रकार दिया गया है जो सूचना की तामील करने वाले व्यक्ति की शिनाख्त करने में समुचित प्राधिकारी या लोक अधिकारी को समर्थ करे और ऐसी सूचना उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट समुचित प्राधिकारी के कार्यालय में परिदत्त कर दी गई है या छोड़ दी गई है |
(ख) वाद हेतुक और वादी द्वारा किया गया अनुतोष सारतः उपदर्शित किया गया है।
उद्देश्य
धारा 80 के अधीन सूचना देने का उद्देश्य है, सम्बन्धित सरकार या लोक अधिकारी को एक अवसर प्रदान करना ताकि वह अपनी विधिक स्थिति पर पुनः विचार कर ले और अगर यह उचित समझे तो दावे को न्यायालय से बाहर सुलझा ले। अगर सरकार या लोक अधिकारी ऐसा कर लेता है तो वादी को वाद संस्थित करने की आवश्यक नहीं पड़ेगी।
वादी और सरकार दोनों अनावश्यक मुकदमेबाजी एवं व्यय से बच जायेंगे।
धारा के अधीन सूचना का परीक्षण
धारा 80 के प्रावधानों का परीक्षण कड़ाई से किया जाना चाहिए किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि धारा के अधीन नोटिस का परीक्षण पांडित्य प्रदर्शन हेतु किया जाय। दूसरे शब्दों में नोटिस की शब्दावली का परीक्षण एक कृत्रिम ढंग से किया जाय।
वाद हेतु एवं सूचना
धारा के अधीन नोटिस वाद-हेतुक उत्पन्न होने के बाद ही दिया जाना चाहिए। वाद हेतुक के उत्पन्न होने से पहले दी गयी नोटिस अवैध या अविधिमान्य होगी। सूचना की अवधि – सूचना वाद संस्थित किए जाने से कम से कम दो माह पूर्व दी जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में नोटिस देने के पश्चात् दो माह व्यतीत हो जाने पर ही वाद संस्थित किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
सूचना की विषय वस्तु
नोटिस में निम्न बातें अवश्य लिखी रहनी चाहिए।
(1) वाद हेतुक
(2) यादी का नाम, वर्णन
(3) वादी का निवास स्थान तथा
(4) यह अनुतोष वादी जिसका दावा करता है।
नोटिस का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। लेकिन नोटिस की भाषा में यह स्पष्ट होना चाहिए कि वादी क्यों दावा करना चाहता है, वाद हेतुक कैसे उत्पन्न होता है और वादी क्या अनुतोष चाहता है।
सूचना का अभित्यजन
कोई कारण नहीं है कि वह अधिकारी या सरकार जिसको नोटिस दी जानी है वह नोटिस का अभित्यजन न कर सके क्योंकि नोटिस उसके हितों की रक्षा के लिए है। किन्तु जहाँ ऐसा अभित्यजन किया है वहाँ यह प्रमाणित करना वादी का काम है। सूचना का अभित्यजन आचरण द्वारा भी किया जा सकता है।
बगैर नोटिस के बाद संस्थित करना
संशोधन अधिनियम 1976 के जरिये धारा 80 की उपधारा (2) में यह वर्णित किया गया कि जहाँ सरकार अथवा सरकारी अधिकारी के खिलाफ, शीघ्र अनुतोष पाना है वहाँ न्यायालय की आज्ञा से बगैर नोटिस या सूचना के भी वाद दायर किया जा सकता है।
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