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परिसीमा विधि की प्रकृति | Nature of Law of Limitation in Hindi

परिसीमा विधि की प्रकृति
परिसीमा विधि की प्रकृति

परिसीमा विधि की प्रकृति (Nature of Law of Limitation)

परिसीमा विधि की प्रकृति – परिसीमा विधि एक निरोधात्मक विधि है। यह विधि निर्धारित समय सीमा बीत जाने के पश्चात् किसी वाद या विधिक कार्यवाही का संज्ञान लेने से न्यायालय को रोकती है। परिसीमा अधिनियम की धारा 3 के अनुसार विहित काल (निर्धारित) समय सीमा) के पश्चात् संस्थित प्रत्येक वाद, की गई अपील तथा किया गया आवेदन खारिज कर दिया जायेगा यद्यपि प्रतिरक्षा के तौर पर परिसीमा (परिसीमा अवधि) की बात उठाई न गई हो ।

धारा 3 का मुख्य उद्देश्य यह है कि वह इस बात से न्यायालय को सन्तुष्ट करे कि उसके द्वारा दायर किया गया वाद या अपील या उसके द्वारा किया गया आवेदन अधिनियम द्वारा निर्धारित समयावधि (परिसीमा काल) के भीतर है। राजेन्द्र सिंह बनाम सन्त सिंह (1973 SC) नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालय यह देखने के लिए कर्तव्यवद्ध है कि दायर किया गया वाद या दायर की गई अपील या किया गया आवेदन निर्धारित समय सीमा के भीतर है।

इस अधिनियम के अन्त में अनुसूची दी गई है जिसमें वाद या अपील या आवेदन करने हेतु भिन्न-भिन्न समयावधि निर्धारित की गई है। इस प्रकार परिसीमा विधि निर्धारित समयावधि के बीत जाने के पश्चात् वाद या अपील या आवेदन दायर कर किसी अधिकार को लागू नहीं करवाया जा सकता परन्तु यह विधि अधिकार समाप्त नहीं करती।

यहाँ यह सूक्ति उचित बैठती हैं कि “विधि जागरूक की सहायता करती है, उसकी नहीं जो अपने अधिकारों के प्रति सोते हैं।” कहने का तात्पर्य यह है कि वाद या अपील या आवेदन निर्धारित समय के अन्दर न्यायालय में दायर करना चाहिए।

परिसीमा विधि की प्रकृति अधिकार नष्ट नहीं करती परन्तु उपचार बाधित करती है – परिसमा या परिसीमन के नियम प्राथमिक रूप से प्रक्रिया के नियम हैं। परिसीमा विधि न तो किसी पक्षकार के पक्ष में कोई अधिकार सृजित करती है और न ही किसी वाद-कारण को सृजित करती है परन्तु यह प्रावधान करती है कि कोई उपचार कुछ निश्चित समय से पूर्व प्राप्त कर लेना चाहिए न कि उसके पश्चात् परिसीमा विधि का उद्देश्य यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को कोई अधिकार प्रदान किया जाय परन्तु यह है कि कोई वर्तमान अधिकार एक निश्चित सीमा के अन्तर ‘न्यायालय के माध्यम से लागू करवा लिया जाय।

इस प्रकार परिसीमा विधि यह मान कर चलती है कि किसी अधिकार या वादकारण का अस्तित्व है तथा उस वादकारण को लागू कराने हेतु शीघ्रातिशीघ्र लाया जाय। इस अधिनियम के पीछे दो सिद्धान्त कार्य करते हैं- प्रथम राज्य का हित मुकदमेबाजी पर समय की पाबन्दी लगाने में है तथा विधि सतकों की सहायता करती है न कि उनकी जो अपने अधिकारों पर सोते हैं।

न्यायमूर्ति स्टोरी ने अपनी पुस्तक कन्फ्लिक्ट ऑफ लॉज में सही लिखा है कि यदि संव्यवहार पुराने हो जाते हैं तो सन्देह उत्पन्न होता है अत: यदि अधिकार निर्धारित समयावधि के अन्तर्गत लागू न करा लिये जायें तो उन्हें समाप्त मान लिया जाना चाहिए। इस बिन्दु पर परिसीमा विधि चिस्भोगाधिकार से भिन्न है क्योंकि चिरभोगाधिकार के अन्तर्गत यदि एक पक्षकार लम्बे समय तक किसी अधिकार का प्रयोग शांतिपूर्ण ढंग से कर रहा है तो यह अधिकार प्राप्त हो जाता है परन्तु परिसीमा अधिनियम के अन्तर्गत किसी अधिकार को निर्धारित समयावधि के अन्दर न्यायालय के माध्यम से लागू करा लेने की बाध्यता होती है अन्यथा निर्धारित समय बीत जाने के .पश्चात् उस अधिकार को न्यायालय के माध्यम से लागू कराने का उपचार समाप्त हो जाता है।

सीता देवी बनाम अन्ना राव (1970 AP) के बाद में कहा गया कि, “मर्यादा विधि ऐसी अनियमितता को रोकती है क्योंकि परिसीमा अधिनियम का लक्ष्य दीर्घकालीन कब्जे को शान्त करना और ऐसी माँगों को समाप्त करना है जो समय से परे हैं।”

परिसीमा विधि सिर्फ उपचार बाधित करती है – यहाँ यह उल्लेखनीय है कि परिसीमा विधि एक अधिकार को निर्धारित समयावधि बीत जाने के पश्चात् लागू कराने के उपचार पर प्रतिबन्ध लगाती है। परन्तु यदि एक व्यक्ति किसी अन्य माध्यम से वह अधिकार लागू करवा लेता है तो वह ऐसा करने के लिए स्वतन्त्र है। परिसीमा अधिनियम का प्रभाव सिर्फ यह है कि वह किसी अधिकार को उसे प्रवर्तित कराने के लिए न्यायालय की शरण लेने से रोकती है यदि उस अधिकार को न्यायालय के माध्यम से प्रवर्तित कराने के लिए निर्धारित अवधि समाप्त हो गयी है।

अत: यह देखना कि कोई वाद निर्धारित समयावधि के भीतर दाखिल किया गया है कि नहीं यह देखना न्यायालय का प्रथम कर्तव्य है क्योंकि परिसीमा अधिनियम की धारा 3 यह प्रावधान करती है कि यदि कोई वाद, अपील या आवेदन निर्धारित समयावधि के पश्चात दायर किया गया है तो न्यायालय ऐसे वाद, अपील या आवेदन को खारिज कर देगा। यह प्रावधान आदेशात्मक है अर्थात् न्यायालय ऐसा करने के लिए बाध्य है।

इस प्रकार परिसीमा विधि किसी वाद कारण या अधिकार को लागू करने के न्यायिक उपचार पर प्रतिबन्ध लगाती है किन्तु वह अधिकार समाप्त नहीं हो जाता। यदि पक्षकार चाहे तो अन्य माध्यम से वह अधिकार प्राप्त कर सकता है। इसे इस उदाहरण से समझें : मान लें ‘क’, ‘ख’ को 5000 रुपये का देनदार है तथा यह ऋण दिनांक 5 मई, 1997 को देय है। अत: वाद कारण 5 मई, 1997 को उत्पन्न हुआ।

अब परिसीमा विधि में निर्धारित समयावधि (तीन वर्ष) के अन्दर ऋणदाता द्वारा ऋण प्राप्त करने हेतु वाद लाया जाना आवश्यक हैं। यदि दिनांक 5 मई, 2000 तक इस ऋण को प्राप्त करने हेतु न्यायालय में वाद नहीं लाया जाता तो इसके पश्चात् ऋण वापसी हेतु लाये गये वाद को न्यायालय खारिज कर देगा। परन्तु यदि ऋणी ‘क’ कोई सामान “ऋणदाता ‘ख’ के पास गिरवी रखता है या प्रतिभूति के रूप में रखता है तो ‘ख’ वह सामान तब तक रोके रख सकता है जब तक रुपये 5000 वापस न कर दिया जाय।

यह अधिकार तीन वर्ष पश्चात् भी बना रहता है क्योंकि निर्धारित समय के बीत जाने के पश्चात् भी ऋण वापस प्राप्त करने का ‘ख’ का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता। इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को समयावधि बीत जाने के पश्चात् भी ऋण वापस कर देता है तो वह इस अधार पर भुगतान की गई।

ऋण की राशि को वापस करने की माँग नहीं कर सकता कि ऋण का भुगतान निर्धारित समयावधि के समाप्त होने के पश्चात् किया गया था क्योंकि ऋण वापस करने हेतु निर्धारित समयावधि बीत जाने के पश्चात् भी ऋण वापस प्राप्त करने का ऋणदाता का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता सिर्फ वह अपने ऋण को वापस पाने के अधिकार को न्यायालय के माध्यम से वापस पाने के उपचार को लागू कराने से प्रतिबन्धित हो जाता है। ऋण तथा ऋणदाता का सम्बन्ध समयावधि बीत जाने के पश्चात् भी यथावत बना रहता है।

परिसीमा विधि का अपवाद

परिसीमा अधिनियम की धारा 27 उस नियम का अपवाद है कि परिसीमा विधि अधिकार समाप्त नहीं करती है परन्तु उपचार बाधित करती है। धारा 27 सिर्फ उन मामलों पर लागू होती है जहां किसी सम्पत्ति पर कब्जे हेतु कोई समयावधि निर्धारित को गई है। यदि किसी सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त करने हेतु कोई निश्चित समयावधि निर्धारित की गई है तो उस निर्धारित समयावधि के समाप्त हो जाने के पश्चात् उस व्यक्ति का सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार समाप्त हो जाता है।

परन्तु यह धारा बन्धक के मामलों पर लागू नहीं होती। इस प्रकार यदि एक व्यक्ति किसी सम्पत्ति पर एक निर्धारित अवधि तक काबिज है तो वह उस अवधि के समाप्त होने के पश्चात् उस सम्पत्ति पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार इस अपवाद के अन्तर्गत निर्धारित समयावधि समाप्त हो जाने के पश्चात् एक व्यक्ति का अधिकार समाप्त हो जाता है परन्तु दूसरे व्यक्ति के पक्ष में अधिकार सृजित हो जाता है।

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