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विधि की उपधारणा के प्रकार | खण्डनीय और अखण्डनीय उपधारणा में अन्तर

विधि की उपधारणा के प्रकार
विधि की उपधारणा के प्रकार

विधि की उपधारणा के प्रकार(Types of Presumption of Law)

विधि की उपधारणायें दो प्रकार की होती हैं –

1. खण्डनीय (Rebuttable) और

2. अखण्डनीय (Irrebuttable) |

1. खण्डनीय उपधारणा

जब विधि की उपधारणाएँ खण्डन योग्य होती है तो उन्हें खण्डनीय उपधारणा कहा जाता है और इस अधिनियम की धारा 4 में उन्हें ‘उपधारणा करेगा’ अभिव्यक्ति द्वारा उपदर्शित किया गया है। इसके अन्तर्गत की गई उपधारणा तभी तक मान्य होती है जब तक उनके प्रतिकूल साबित नहीं किया जाता।

जब किसी स्त्री की मृत्यु विवाह के 7 वर्ष के भीतर दहेज की माँग के सम्बन्ध में करता के कारण या तंग करने के कारण हुई हो और ऐसा आचरण उसके पति या पति के नातेदारों द्वारा किया गया हो और ऐसा व्यवहार उसकी मृत्यु से कुछ पूर्व किया गया था तो न्यायालय उपधारणा करने के लिए बाध्य है कि उस स्त्री की मृत्यु दहेज-मृत्यु है।

जिस व्यक्ति या व्यक्तियों (पति या पति के नातेदार के विरुद्ध ऐसी उपधारणा की जाती है वह ऐसी उपधारणा का साक्ष्य द्वारा खण्डन (नासावित) कर सकता है। न्यायालय दहेज मृत्यु की दुष्प्रेरण की उपधारणा करने के लिए बाध्य है। उक्त उपधारणा विधि की खण्डनीय उपधारणा है।

1. विधि की अखण्डनीय उपधारणा को निश्चायक उपधारणा कहा जाता है और निचायकत्मक उपधारणा / सबूत का साक्ष्य द्वारा खण्डन नहीं किया जा सकता है।

2. अखण्डनीय उपधारणा विधि की अखण्डनीय उपधारणायें वे हैं जो खण्डन योग्य नहीं है और वे निश्चायक होती हैं। इन उपधारणाओं का खण्डन साक्ष्य द्वारा नहीं किया जा सकता है। जहाँ विधि द्वारा एक तथ्य को दूसरे तथ्य का निश्चायक सबूत घोषित किया गया हो वहाँ न्यायालय इसके खण्डन में साक्ष्य दिये जाने की अनुज्ञा किसी भी हालत में नहीं दे सकता है।

धारा 41 के कुछ निर्णय, आदेश या डिक्रियाँ, प्रोबेट-विषयक, विवाह-विषयक, नावधिकरण विषयक या दीवाला विषयक निर्णीत विषयों के लिए निचायक सबूत होते हैं।

धारा 113, ब्रिटिश राज्य क्षेत्र के भारत में केवल स्वतंत्रता से पूर्व अध्यर्पित होने का सबूत से सम्बन्धित है। ब्रिटिश संसद ही ब्रिटिश राज्यक्षेत्र को अव्यर्पित करने के लिए सक्षम थी। इस धारा का स्वतंत्रता के बाद अब कोई महत्व नहीं रह गया है।

निश्चायक साक्ष्य / सबूत की उपधारणा का खण्डन करने के लिए साक्ष्य नहीं दिया जा सकता।धारा 112 के अधीन यह तथ्य कि किसी व्यक्ति का जन्म (क) उसकी माता और किसी पुरुष के बीच विधिमान्य विवाह के कायम रहते हुए, या (ख) उसके विघटन के बाद माता के अविवाहित रहते हुए दो सौ अस्सी दिन के भीतरहुआ था इस बात का निश्चात्मक सबूत होगा कि उस पुरुष का धर्मज पुत्र है। इस धारा के अधीन उपधारणा विधि की निश्चायक उपधारणा है।

इस उपधारणा का खण्डन यह साक्ष्य देकर किया जा सकता है कि जब गर्भाधान हुआ उस समय उस स्त्री तक उसकी पहुँच नहीं थी। पहुँच होना या न होना मैथुन के अवसर का होना या न होना दर्शित करते हैं।

खण्डनीय और अखण्डनीय उपधारणा में अंतर 

खण्डनीय उपधारणा अखण्डनीय उपधारणा
1. खण्डनीय उपधारणा का खण्डन साक्ष्य देकर किया जा सकता है। 1. अखण्डनीय उपधारणाओं का खण्डन साक्ष्य देकर नहीं किया जा सकता है।
2. खण्डनीय उपधारणायें तभी तक मान्य होती हैं जब तक कि उनके प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता। खण्डनीय उपधारणाओं के उदाहरण धारा 79, 85, 89, 105 में मिलते हैं। 2. अखण्डनीय उपधारणायें सदैव मान्य होती है और उनका खण्डन नहीं किया जा सकता। इसके उदाहरण धारा 41, 112 और 113 तथा भा. द. सं. धारा 82 में मिलते हैं।

3. धारा 81 के अनुसार, जब कोई व्यक्ति भारत सरकार का गजट न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है तब न्यायालय उपधारणा करेगा कि गजट और गजट में प्रकाशित अधिसूचनायें असली है।

3. जहाँ विधि का एक तथ्य दूसरे तथ्य का निश्चायक सबूत घोषित किया गया हो वहाँ न्यायालय उसके खण्डन में साक्ष्य दिये जाने की अनुशा किसी भी हालत में नहीं दे सकता।

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