न्यायालय तथ्यों की उपधारणा कब करेगा ? When will the court presume facts.
न्यायालय तथ्यों की उपधारणा कब करेगा – धारा 114 न्यायालय किन्हीं तथ्यों का अस्तित्व उपधारित कर सकेगा न्यायालय ऐसे किसी तथ्य का अस्तित्व उपधारित कर सकेगा जिसका घटित होना उस विशिष्ट मामले के तथ्यों के सम्बन्ध में प्राकृतिक घटनाओं, मानवीय आचरण तथा लोक और प्राइवेट कारबार के सामान्य अनुक्रम को ध्यान में रखते हुए वह सम्भाव्य समझता है।
दृष्टान्त – न्यायालय उपधारित कर सकेगा
(क) क चुराये हुए माल पर जिस मनुष्य का चोरी के शीघ्र उपरान्त कब्जा है, जब तक कि वह अपने कब्जे का कारण न बता सके, या तो वह चोर है या उसने माल को चुराया हुआ जानते हुए प्राप्त किया है:
(ख) कि सह-अपराधी विश्वसनीयता के अयोग्य है जब तक कि तात्विक विशिष्टयों में उसकी सम्पुष्टि नहीं होती;
(ग) कि कोई प्रतिगृहीत या पृष्ठांकित विनिमयपत्र समुचित प्रतिफल के लिए प्रतिगृहीत नवे या पृष्ठांकित किया गया था,
(घ) कि ऐसी कोई चीज या चीजों की दशा अब भी अस्तित्व में है, जिसका उतनी कालावधि से, जितनी से ऐसी चीजों की दशायें, प्रायः अस्तित्व शून्य हो जाती हैं, लघुत्तर से कालावधि में होना दर्शित किया गया है;
(ङ) कि न्यायिक और पदीय कार्य नियमित रूप से सम्पादित किये गये है,
(च) कि विशिष्ट मामलों में कारबार के सामान्य अनुक्रम का अनुसरण किया गया है;
(छ) कि यदि वह साक्ष्य जो पेश किया जा सकता था और पेश नहीं किया गया है, पेश किया जाता तो उस व्यक्ति के अननुकूल होता जो उसका विचारण किये हुए है;
(ज) कि यदि कोई मनुष्य ऐसे किसी प्रश्न का उत्तर देने से इन्कार करता है, जिसका उत्तर देने के लिए विधि द्वारा विवश नहीं है, तो उत्तर, यदि वह दिया जाता, उसके अननुकूल (Unfavorable) होता;
(झ) कि जब किसी बाध्यता का सृजन करने वाला दस्तवेज बाध्यताकारी के हाथ में यह है, तब उस बाध्यता का उन्मोचन हो चुका है।
यह धारा न्यायालय को कुछ उपधारणायें करने का प्राधिकार देती हैं। वे सब ऐसी उपधारणायें हैं जो स्वाभाविक रूप से पैदा हो सकती हैं। यह धारा घोषित करती है कि सभी मामलों में चाहे वे जैसे हो न्यायालय अपने समक्ष तथ्यों से जो भी निष्कर्ष वह उचित समझे निकाल सकता है।
तथ्य की उपधारणा का अर्थ है किसी के स्वयं के अनुभव या स्वभाविक रूप से घटित होने वाली घटनाओं से अनुभव प्राप्त करके दिन-प्रतिदिन होने वाली बातों से सबक लेकर किसी तथ्य के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालना। उपधारणा स्वयं कोई साक्ष्य नहीं है किन्तु जिस पक्षकार के प्रति इसे लागू किया जाता है उसका प्रथम दृष्टया मामला अवश्य बन जाता है।
यदि उपधारणा खण्डनीय है तो पक्षकार को साक्ष्य के लिए कहा जाता है और यदि वह साक्ष्य द्वारा यह सिद्ध कर देता है कि स्थिति वैसी नहीं है जैसी कि उपधारित की गयी है तो उपधारणा का प्रयोजन समाप्त हो जाता है।
उपधारणा या तो विधि की हो सकती है या तथ्य की और जब विधि की उपधारणा की जाती है तो वह या तो निशायक या खण्डनीय हो सकती है, किन्तु जब तथ्य की उपधारणा की जाती है तो वह सदैव खण्डनीय ही होती है।
विधि की उपधारणाओं को विधि का बल प्राप्त होता है।
विपरीत साक्ष्य के अभाव में विधि की उपधारणाएँ निश्चायक होती है जबकि तथ्य की उपधारणा करना न्यायालय के विवेक पर है। विधि की खण्डनीय उपधारणाओं का मुख्य कार्य यह अवधारित करना है कि सबूत का भार किस पर है।
जहाँ किसी पुरुष और स्त्री का लम्बा और निरन्तर सहवास हो, वहाँ विधि इस बारा के अधीन विवाह की उपधारणा करेगा।
वह व्यक्ति जिसके कब्जे में चोरी के तुरन्त बाद ही चुराया हुआ माल मिलता है वह वा तो (1) चोर ही है, या (2) उसने उस माल को चुराया हुआ जानते हुए प्राप्त किया है। यह ऐसी उपधारणा है जिसे करने के लिए न्यायालय आबद्ध नहीं है किन्तु उसे करना न्यायालय के मत पर निर्भर करता है किन्तु इससे सबूतका भार अभियुक्त पर नहीं चला जाता। अभियुक्त उस वस्तु के कब्जे में आने का कारण बता सकता है।
इस धारा के दृष्टान्त (क) के अन्तर्गत उपधारणा केवल तब बनती है जब पक्ष ने (1) प्रश्नगत वस्तु का स्वामित्व (2) उस वस्तु की चोरी, और (3) उसका अभियुक्त अभियोजन के कब्जे में होना साबित कर दिया गया हो चुराई हुई सम्पत्ति का हाल ही में कब्जे का तथ्य मात्र चोरी का साक्ष्य है, न कि दोषपूर्ण ज्ञान से चुराई हुई सम्पत्ति प्राप्त करने का।
जिस उपधारणा का अनुध्यान दृष्टान्त (क) में किया गया है वह कब्जे के तथ्य के बारे में उपधारणा नहीं है, बल्कि दोषिता की उपधारणा है जो अभियुक्त के चुराये हुए उस माल के उसके कब्जे में होने के कारण न बताने से है जिसके बारे में यह साबित हो चुका है कि चोरी के है तुरन्तवाद वह उसके कब्जे में था।
इस दृष्टान्त की उपधारणा चोरी के अपराधों तक ही सीमित नहीं है, वरन् आरोपों तक विस्तृत है वे चाहे शास्तिक (Penal) क्यों न हो। है सभी धारा 114 के दृष्टान्त (ख) के अनुसार सह-अपराधी विश्वसनीयता के अयोग्य है जब तक तात्विक विशिष्टयों में उसकी सम्पुष्टि नहीं हो जाती।
सम्पुष्टिक साक्ष्य वह साक्ष्य है जो दर्शित करता है या दर्शित करने की प्रवृत्ति रखता कि सह-अभियुक्त का यह वृतान्त सच है कि अभियुक्त ने ही अपराध किया है। तात्विक विशिष्टियों में सम्पुष्टि होनी चाहिए जो अभियुक्तों को प्रत्येक अपराध से जोड़ दे।
हसीन बनाम तमिलनाडु राज्य [2005 क्रि. एल. जे. 143 एस.सी.) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसे साक्ष्य की सम्पुष्टि करना बुद्धिमता की निशानी है तथा बुद्धिमानी इसी में है कि बिना सम्पुष्टि के ऐसे साक्ष्य को स्वीकार न किया जाये। इस दृष्टान्त और धारा 133 को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए।
सह-अपराधी किसी व्यक्ति के विरुद्ध सक्षम साक्षी होता है और उसके परिसाक्ष्य के आधार पर अभियुक्त की दोषसिद्धि की जा सकती है। लेकिन आपवादिक मामलों के सिवाय बिना सम्पुष्टि के दोषसिद्धि नहीं की जानी चाहिए।
जहाँ सह-अपराधी वास्तव में अपराधी नहीं है बल्कि गुप्तचर या मुखबिर है, वहाँ उसके साक्ष्य की सम्पुष्टि की कोई आवश्यकता नहीं है। धारा 114 के दृष्टान्त (छ) साक्ष्य रोके जाने से उत्पन्न होने वाली उपधारणा के बारे में है। साक्ष्य रोकने वाले व्यक्ति के आचरण का कारण वह अनुमित मान हो सकता है कि यदि वह साक्ष्य पेश कर दिया गया हो तो वह उसके विरुद्ध प्रवर्तित होगा।
किसी आपराधिक मामले में सुसंगत तथ्यों का साक्ष्य न पेश कर पाने से यह उपधारणा की जाती है कि वह साक्ष्य जो पेश किया जा सकता था, पेश न कर पाने से यह उपधारणा की जाती है कि वह साक्ष्य जो पेश किया जा सकता था, पेश नहीं किया गया है, यदि पेश कर दिया जाता तो उस व्यक्ति के विरुद्ध जाता जो उसे रोके हुए हैं।
यह विधि का मान्य नियम है कि एक अच्छे साक्ष्य को मामला सिद्ध करने के लिए पेश किया जाना चाहिए किन्तु यह अभियोजन या अभियुक्त पर निर्भर करता है कि वे कैसा साक्ष्य देते हैं क्योंकि दण्ड प्रक्रिया संहिता के अनुसार किसी भी पक्षकार को साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा साक्ष्य है जो पक्षकारों के हितों के विरुद्ध है उसे रोकने से धारा 114 के दृष्टान्त (छ) के अधीन उपधारणा की जा सकती है। जब किसी मामले में तात्विक साक्षियों को बुलाया न गया हो और उनकी गैर हाजिरी का कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण न दिया गया हो, तो न्यायालय उपधारणा कर सकता है कि वे अभियोजन का समर्थन नहीं करेंगे।
जहाँ अभियोजन पक्ष ने तात्विक साक्षी न पेश किये जाने का युक्तियुक्त स्पष्टीकरण दिया था, वहाँ कोई उपधारणा नहीं बनी। अभियोजन का विवेकाधिकार है कि वह कुछ साक्षियों की परीक्षा न करे। ऐसे परीक्षा न करने से विपरीत आशय का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता (हरपाल सिंह बनाम देवेन्द्र सिंह, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 2914)
इसे भी पढ़ें…
- साइबर अपराध क्या है?
- साइबर कैफे किसे कहते हैं?
- बौद्धिक सम्पदा अधिकार पर टिप्पणी
- वित्तीय अपराध पर संक्षिप्त लेख
- बाल अश्लीलता क्या है?
- साइबर अश्लीलता क्या है
- हैकिंग कैसे करते हैं?
- हैकिंग क्या है?
- अन्तर्राष्ट्रीय साइबर अपराध की विधि
- साइबर अपराध क्या है?