विबन्ध के अपवाद निम्न हैं-
( 1 ) सिद्धान्त का अनुप्रयोग जब सत्यता दोनों पक्षकारों को मालूम हो – यदि दोनों पक्षकारों को असली तथ्य ज्ञात हो तो विबन्ध का नियम लागू न होगा धारा 115 से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह धारा उस मामले में लागू नहीं होती जहाँ पर सत्य बात दोनों पक्षकारों को मालूम हो त्रिवी कौंसिल ने मोहरी बीबी बनाम धरमदास घोष में कहा है कि विबन्धन का नियम वहाँ लागू नहीं होता है जहाँ पर किसी व्यक्ति ने किसी तथ्य के बारे में निरूपण किया है जिसकी सत्यता दोनों पक्षकारों को मालूम है। सिद्धान्त यह है कि ऐसे मामले में विबन्धन का नियम नहीं लागू होता है, जहाँ पर कि निरूपण से प्रभावित पक्षकार को व्यपदेशन के आधार पर कार्य करने से पूर्व यह मालूम हो कि निरूपण झूठा है।
( 2 ) विधि के प्रश्न पर विवन्ध व्युत्पन्न नहीं हो सकता- धारा 115 तब लागू होती है जब कि एक व्यक्ति दूसरे को किसी बात की सत्यता पर विश्वास दिलाता है और वह उस विश्वास पर अपने हित के प्रतिकूल काम करता है। पक्षकार अपने वकील के विधि के प्रश्न पर स्वीकृति से बाध्य नहीं है।
( 3 ) कानून के विरुद्ध विबन्ध नहीं हो सकता- यह माना गया है कि निरूपण द्वारा विबन्ध सिद्धान्त को अधिकतर मामलों में तब तक लागू नहीं करना चाहिए कि जब तक निरूपण संविदा या अनुज्ञप्ति के तुल्य न हो।
(4) अधिनियम के विरुद्ध विबन्ध नहीं- संविधि के खिलाफ विबन्ध नहीं हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि विबन्ध के सिद्धान्त द्वारा संविधि की शर्तों को हटाया नहीं जा सकता है। संविदा के प्रतिकूल विबन्धन नहीं हो सकता है विबन्ध केवल संविदा करने योग्य पक्षकारों के मध्य लागू होता है। विधि का कोई नियम विबन्ध के सिद्धान्त के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।
उदाहरण के लिए जब तक अवयस्क ने अपनी आयु गलत बता कर कोई संविदा किया हो तो बाद में अपनी सही आयु बताकर संविदा को रद्द कर सकता है संविदा विधि का यह नियम है कि अवयस्क संविदा के लिए सक्षम नहीं है और यह नियम रद्द हो जायेगा अगर अवयस्क से सही आयु बताने का अधिकार छीन लिया जाय। इसी कारण यह नियम है कि किसी अधिनियम के उपबन्धों को विबन्ध के सिद्धान्त से काटा नहीं जा सकता। यह पुराना नियम चला आ रहा है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के बालकृष्ण बनाम रीवा यूनिवर्सिटी, 1978 एम.पी. में पूर्ण पीठिका के निर्णय में एक आधुनिक दृष्टान्त मिलता है। इस केस में निर्णीत किया|
गया था कि जब कोई प्रत्याशी दुर्व्यपदेशन द्वारा किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होता है तो विश्वविद्यालय को उसकी परीक्षा काटने का अधिकार मिलेगा अगर उसका ऐसी परीक्षा में बैठना विधि के किसी नियम के खिलाफ है।
( 5 ) सम्प्रभु कार्यों के खिलाफ कोई विबन्ध नहीं – उच्चतम न्यायालय ने प्रतिपादित किया कि यह बात भली भाँति स्थापित है कि सरकार के खिलाफ, सम्प्रभु कार्यो. विधायी कार्यों या शासकीय कार्यों के सम्बन्ध में कोई विबन्ध नहीं हो सकता। यह मामला सरकार द्वारा एक विज्ञप्ति से उत्पन्न हुआ था जिसमें 2 वर्ष के लिए एक क्षेत्र किसी व्यक्ति को दे दिया गया था और बाद में अन्तिम आशा के पूर्व ही वही क्षेत्र किसी अन्य व्यक्ति को दे दिया गया। निर्णीत हुआ कि सरकार को ऐसा करने का अधिकार था और पहली विज्ञप्ति से सरकार के खिलाफ विबन्ध नहीं पैदा हुआ था।
( 6 ) केवल चुप रहना विबन्ध नहीं है- मात्र चुप रहना ही व्यपदेशन नहीं है, कि विवन्ध उत्पन्न हो, किन्तु जहाँ पर बोलना कर्त्तव्य है, किन्तु जानबूझ कर चुप रहा जाता है, वह व्यपदेशन तुल्य है और उससे विबन्धन उत्पन्न होता है। जहाँ पर बोलना कर्त्तव्य है, वहाँ चुप रहना विबन्ध है जहाँ पर किसी व्यक्ति को बोलना आवश्यक है किन्तु वह चुप रहता है, तो बाद में उसको बोलने से रहित कर दिया जायेगा। दूसरे शब्दों में, जब ऐसी परिस्थिति है कि यदि चुप रहा जाये तो विपक्षी पर जालसाजी होगी, वहाँ विबन्ध हो जाएगा। मौन रहना कभी-कभी स्वीकृति के तुल्य होता है और सामान्य भाषा में इसके लिए “मौन सम्मति” शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसे कानून में “मौन सम्मति” कहा जाता है, “मौन स्वीकृति लक्षणम्।”
मरकैन्टाईल बैंक ऑफ इण्डिया लिमिटेड बनाम सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड 1938 में भी न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि आचरण के द्वारा असावधानी या लोप भी विबंध होता है, जब सत्य बोलना किसी व्यक्ति का कर्त्तव्य हो एवं वह सत्य नहीं बोलकर मौन रह जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने सैयद सुल्तान हुसैन बनाम सैयद इलामुद्दीन, 1987 में भी यह स्पष्ट रूप से कहा कि मौन के विरुद्ध भी विबंध का नियम लागू होता है, जब बोलना किसी व्यक्ति का कर्त्तव्य हो और वह व्यक्ति मौन धारण कर लेता है एवं उसका मौन विबंध के सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करता है।
(7) अवयस्क के विरुद्ध विबन्ध नहीं- विबन्ध के लिए व्यपदेशन आवश्यक है और व्यपदेशन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए जो संविदा करने के लिए सक्षम हो अर्थात्
(1) वह अवयस्क न हो,
(2) स्वस्थ चित्त हो, एवं
(3) किसी विधि के द्वारा जिसके वह अधीन है, संविदा करने से निरर्हित न हो। अतः अवयस्क पर विबन्ध का नियम लागू नहीं होता।
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