रूसो का जीवन परिचय
महान दार्शनिक, युग प्रवर्त्तक, शिक्षा विद्, उद्भट राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री एवं अद्वितीय विचारक रूसो का जन्म इटली के जेनोआ नगर में 28 जून सन् 1712 ई. में एक गरीब घड़ीसाज पिता के घर में हुआ। जन्म के कुछ समय बाद उनकी माता का देहान्त हो गया इसलिए उनके लालन-पालन का सम्पूर्ण भार उसके पिता पर आ गया। पिता घड़ीसाज का काम करते थे और बच्चे की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। बचपन से ही वह प्रकृति – सौन्दर्य का प्रशंसक थे और उनका यह प्रकृति-प्रेम बराबर बढ़ता गया। अध्ययन और प्रकृति के अवलोकन से रूसो मनस्वी और भावुक बन गये। मार खाने के डर से वह स्कूल नहीं जाते थे किन्तु उन्हें पढ़ने का शौक था। 6 वर्ष की आयु में ही उन्होंने साहित्य, धर्म और इतिहास सम्बन्धी अनेक पुस्तकें पढ़ डालीं, जिनका उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। 10 वर्ष की अवस्था में रूसो को ‘बोसी’ नाम की ग्राम पाठशाला में भर्ती कराया गया। इस प्रकार 11 वर्ष की आयु तक उसका जीवन इसी प्रकार अनिश्चित रूप से चलता रहा। इसके बाद उन्हें एक झूठे आरोप में कठोर दण्ड भुगतना पड़ा जिससे उसके हृदय को बड़ी ठेस पहुँची। कारावास से छूटकर रूसो ने चार वर्ष तक एक शिल्पकार के पास काम सीखा, बाद में यह कार्य छोड़ दिया।
25 वर्ष की आयु में रूसो ने अध्ययन प्रारम्भ किया। समाज में फैली बुराईयों को देखकर उन्हें सामाजिक जीवन से घृणा होने लगी थी । यद्यपि वह स्वयं एक महान समाज सुधारक हुए। सन् 1744 ई. में (40 वर्षीय कुरूप, गंवार, मूर्ख, चरित्रहीन, बदनाम तथा हीन चरित्र वाली स्त्री) थेरस लेविसर (Therese Levasseur) से रूसो ने विवाह कर लिया।
रूसो नवीन युग के प्रवर्तक थे। नैपोलियन के शब्दों में यदि रूसों न हुआ होता तो फ्राँस की महान क्रान्ति घटित ही न हुई होती। रूसो की दार्शनिक भूमिका से प्रभावित होकर दान्ते (Dante) जैसे प्रसिद्ध कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाओं ने देश में उथल-पुथल मचा दी। रूसो के ऊपर उसके देश की सरकार ने अभियोग लगाया, जिससे उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनके अन्तिम दिन अत्यन्त दुखद रहे। 2 जुलाई सन 1778 को रूसो का देहान्त हुआ। 38 वर्ष की आयु में रूसो की निम्नलिखित रचनायें प्रकाशित हुई-
(1) Discourse on the Science and Arts, 1750
(2) Origin of Inequality Among Men, 1755
(3) The New Heloise, 1761
(4) The Social Contract, 1762
(5) Emile, 1762
(6) Confessions, 1770
(7) Dialogue, 1773
रूसो का जीवन दर्शन (Rousseau’s Philosophy of Life)
रूसो के परम अनुयायी थे, विशुद्ध मानव एवं राज्य सम्बन्धी विचार रूसो के आदर्श थे। रूसो आदर्शवादी के साथ-साथ प्रकृतिवादी भी थे। इन्होंने ‘प्रकृति की ओर लौटो’ का विचार प्रस्तुत किया।
(1) रूसो के दार्शनिक चिन्तन की तत्व मीमांसा (Metaphysics Elements of Rousseau’s Philosophy)- यद्यपि रूसो ईश्वरवादी थे परन्तु इन्होंने संसारिक संरचना या आत्मा-परमात्मा के विषय में कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। रूसो की तत्व मीमांसा यह थी कि उन्होंने वस्तुगत की रचना को ईश्वर द्वारा रचित माना है और उसके अस्तित्व को भी स्वीकार किया है परन्तु पादरियों का विरोध किया है। उन्होंने मनुष्य को ईश्वर द्वारा रचित उत्कृष्ठ कृति माना है।
(2) रूसो के दार्शनिक चिन्तन के ज्ञान एवं तर्क की मीमांसा (Metaphysics of Knowledge and Logic of Rousseau’s Philosophy)– रूसो प्रकृतिवादी भी है और प्रकृति के अनुसार ही प्राप्त ज्ञान को सच्चा ज्ञान माना है। जन्मजात प्रकृति एव प्रदत्त प्रकृति, इन दो रूपों में प्रकृति मनुष्य को प्राप्त होती है। इन्होंने मनुष्य प्रकृति के अनुरूप ज्ञान प्राप्त करके उसके सम्पूर्ण विकास पर बल दिया है। रूसो ने बालक को कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों तथा स्वयं अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का साधन बताया है।
(3) रूसो के दार्शनिक चिन्तन की मूल्य एवं आचार मीमांसा (Metaphysics of Value and Ethics of Rousseau’s Philosophy)- रूसो के दार्शनिक चिन्तन की मूल्य भीमांसा के आधार पर मनुष्य को ईश्वर द्वारा रचित सर्वश्रेष्ठ कृति माना गया है। मनुष्य को स्वतन्त्र करके उसकी प्रकृति अनुरूप, प्रेम, सहयोग द्वारा जीवनयापन करने का उद्देश्य दिया। रूसो के अनुसार उच्च एवं प्रबुद्ध वर्ग, निम्न एवं सामान्य वर्ग का शोषण करता है क्योंकि वह नकारात्मक बातों का अनुसरण करने लगता है। वे व्यक्ति को सरल एवं शुद्ध आचरण करने, सत्य बोलने, धोखा न देना तथा प्रेम व सहयोग पूर्ण ढंग से साथ रहने की अपेक्षा करते हैं। अतः इन्होंने मनुष्य द्वारा निर्मित एक आदर्श समाज का प्रारूप प्रस्तुत किया है।
रूसो के शिक्षा सम्बन्धी विचार (Rousseau’s Educational Thoughts)
रूसो बालक की प्रवृत्तियों को एक युवा (प्रौढ़) व्यक्तियों की प्रवृत्तियों से एकदम अलग मानते थे। उनके अनुसार, “बालक को बालक समझना चाहिए, उसे युवा (प्रौढ़) व्यक्तियों के कर्तव्यों में शिक्षा देना भूल है।” जो वस्तु प्रौढ़ के लिए उपयोगी है वह बालक के लिए हानिकारक हो सकती है। अतः बालक को उपयोगी वस्तुओं के विषय में जानकारी देने के लिए सर्वप्रथम उसके स्वभाव का गहन अध्ययन करना चाहिए। उसके स्वभाव को समझे बिना उन्हें ज्ञान देने का प्रयत्न करना गलत होगा क्योंकि बालक इससे पूरे शिक्षा -क्रम से डरने लगता है। रूसो के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य विभिन्न अंगों और शक्तियों के स्वाभाविक विकास से है। यह स्वाभाविक विकास बालक की स्वाभाविक आवश्यकताओं को समझे बिना नहीं हो सकता। उसकी स्वाभाविक आवश्यकताओं को समझने के लिए हमें उसके स्वभाव को समझना चाहिए। रूसो का यह विचार है “बालक को शिक्षा देने से पूर्व उसके स्वभाव को समझना चाहिए।” शिक्षा क्षेत्र में रूसो की यह सबसे बड़ी देन है।
इसलिए रूसो ने तर्क दिया है, “बच्चे को अकेला छोड़ो, उसको प्राकृतिक मानव बनने दो, सभ्य मानव बनाने की चिन्ता न करो। “
According to Rousseau, “Leave the child alone, let him be a natural man rather than a civilised man.”
रूसो ने शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर भी प्रकाश डाला है जो इस प्रकार है-
(1) शिक्षा के कार्य (Functions of Education)- रूसो ने अपने समय की प्रचलित विनयन प्रणाली तथा उपदेशात्मक विधियों की आलोचना करके शिक्षकों का ध्यान बालक के स्वभाव के अध्ययन की ओर आकर्षित किया। बालक की शिक्षा के क्रम में उन्होंने ज्ञानेन्द्रियों के महत्व को हमारे सामने बड़े प्रभावी तरीके से रखा है। रूसो ने हमें प्रकृति के अध्ययन और शारीरिक शिक्षा के महत्व को समझाया है। उनकी पुस्तक ‘एमील’ का प्रभाव शिक्षा पर स्थायी रूप से पड़ा है। 18 शताब्दी में शिक्षा प्रणाली बड़ी दोषपूर्ण हो गई थी। शिक्षा के सम्बन्ध में रूसो ने अपने विचार अनेक प्रकार से रखे हैं-
रूसो के अनुसार, “पुस्तकें ज्ञान नहीं, बल्कि बातें करना सिखाती हैं। “
According to Rousseau, “Books teach us talking but not knowledge.”
रूसो के अनुसार, “शिक्षा का प्रमुख कार्य मनुष्य को उसके वास्तविक रूप में मनुष्य बनाना है।”
(2) पाठ्यचर्या (Curriculum)- शिक्षा के उद्देश्यों की तरह रूसो ने पाठ्यचर्या का निरूपण भी विकास की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार किया है। शैशवावस्था के पाठ्यचर्या में बालक के शरीर को दृढ़ करने वाली क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए। जैसे चलने फिरने का अभ्यास करना चाहिए, वार्तालाप का अवसर देना चाहिए, स्नान करने का अवसर देना चाहिए. खेलने-कूदने का अवसर देना चाहिए आदि। बाल्यावस्था के पाठ्यचर्या में शाब्दिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं है। इस अवस्था में बालक को ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से स्वयं अनुभव करने देना चाहिए। तैरना, देखना, सुनना, उठना बैठना, कूदना, खेलना, नापना, तौलना, गिनना निरीक्षण करना आदि क्रियाएँ बालक के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। उसे अपने अंग-प्रत्यंग और इन्द्रियों को काम में लाने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए और कुछ अपने अनुभव से सीखने का अवसर मिलना चाहिए। किशोरावस्था में व्यवसाय एवं उद्योग के विषय, भूगोल, इतिहास, विज्ञान, भाषा, संगीत, सामाजिक शास्त्र, ज्योतिष, कला आदि विषयों का प्रायोगिक रूप में अध्ययन करना चाहिए न कि केवल पुस्तकीय ढंग से।
रूसो के अनुसार, “विज्ञान से बालकों में अन्वेषण करने की शक्ति पैदा होगी, कला से उसके नेत्रों व मांसपेशियों को प्रशिक्षण प्राप्त होगा और हस्त-कार्य तथा व्यवसाय के द्वारा उसकी बुद्धि तथा विवेक शक्ति का विकास होगा और उसकी परिश्रम करने की शक्ति बढ़ेगी।” युवावस्था में बालक को नैतिक शिक्षा उसकी क्रियाओं के द्वारा ही दी जानी चाहिए। उसके चरित्र का विकास उसके स्वयं के अनुभवों और क्रियाओं के द्वारा होने देना चाहिए। इस नैतिक शिक्षा के अतिरिक्त इतिहास, धर्म, सौन्दर्यानुभूति, व्यायाम, कला, संगीत तथा यौन शिक्षा के विषय इस अवस्था के पाठ्यचर्या में होने चाहिए।
(3) शिक्षण विधियाँ (Methods of Teaching) – रूसो ने निम्नलिखित शिक्षण विधियों को प्रयोग में लाने पर बल दिया है-
(i) प्रत्यक्ष अनुभव (Learning by Self-Experience)- उसने शिक्षा की सहज और प्रत्यक्ष निर्देशन विधियों का समर्थन किया तथा अभिव्यक्ति से पूर्व अनुभव और शब्दों से पूर्व वस्तुओं की शिक्षा पर बल दिया।
रूसो के अनुसार, “अपने छात्र को मौखिक पाठ न दो, उसको अनुभव के साथ पढ़ाया जाना चाहिए।”
According to Rousseau, “Give your scholor no verbal lesson. He should be taught along with experience.”
(ii) कार्य करते हुए सीखना (Learning by Doing) – जब भी हो सके, कार्य करते हुए सीखने की प्रेरणा दो और जब कार्य करना सम्भव न हो, केवल उसी दशा में शब्दों का निर्देश दो । पुस्तकीय ज्ञान कम से कम दिया जाए।
(iii) खेल-खेल में शिक्षा (Play way Method) – उन्होंने टिप्पणी की कि इन्द्रियों को स्वयं मार्ग-दर्शन पाने दो और इस तरह रूसो ने खेल-खेल में शिक्षण की विधि का समर्थन किया। उसका यह मानना था कि बच्चे के लिए काम या खेलना एक जैसे हैं।
(iv) प्राकृतिक वस्तुओं के माध्यम से शिक्षा (Learning through Natural Objects)- रूसो, ने प्राकृतिक शिक्षा पर बहुत बल दिया और कहा, “सामान्यतया स्वंय चीज के स्थान पर उसका स्थानापन्न नहीं हो सकता।” अतः जब सम्बन्धित चीज दुर्लभ हो, केवल उन्हीं दशाओं में प्रतीकों अथवा चित्रों का प्रयोग किया जाना चाहिए। उनके अनुसार प्रतीक या चिह्न बच्चे का ध्यान आकर्षित करते हैं तथा इस तरह मूल वस्तु को बच्चा भूल जाता है। उसे कम से कम 12 वर्ष तक पुस्तकों से दूर रखना चाहिए।
(4) शिक्षक (Teacher)- रूसो ने शिक्षा में बालक को केन्द्र माना है और उसके मनोवैज्ञानिक विकास की ओर ध्यान दिया है। उसकी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक का स्थान पथ-प्रदर्शक का है। रूसो के अनुसार, “शिक्षक को बालक की क्रियाओं में बाधक न होकर सहायक होना चाहिए, अधिकारी न होकर बराबर वाला होना चाहिए और निर्देशक न होकर पथ-प्रदर्शन करने वाला होना चाहिए।” रूसो का कहना है कि शिक्षक ऐसा होना चाहिए जो बालकों से प्रेम करे, उनसे सहानुभूति रखे और उनकी शारीरिक, भावात्मक तथा बौद्धिक शक्तियों का उचित विकास करे।
(5) स्त्री शिक्षा (Women Education) – रूसो महिलाओं के लिए पुरुषों जैसी शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं। उनकी धारणा के अनुसार पुरुष और महिलाओं के कार्य पूर्णतः भिन्न-भिन्न हैं। महिलाएँ सेवा करने के लिए जन्म लेती हैं और पुरुष सुख पाने के लिए जन्म लेते हैं। वह आगे कहते हैं कि एक महिला का कार्य मनुष्य को बचपन में पालन-पोषण करना, उसको मनुष्यत्व की ओर बढ़ाना, पूरे जीवन उसको परामर्श देना तथा उसके जीवन को सुखमय बनाना होता है। यही महिलाओं का प्रमुख कर्तव्य है जिसे उनको बचपन से ही सिखाया जाना चाहिए। उनके लिए उच्च शिक्षा का परामर्श नहीं बल्कि गृहस्थी चलाना, कपड़े सिलना, कशीदाकारी करना और धार्मिक शिक्षा की संस्तुति की गई है।
अन्य शिक्षा (Other Education)
(1) जन शिक्षा
(2) स्त्री शिक्षा
(3) व्यावसायिक शिक्षा
(4) धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा
रूसो की निषेधात्मक शिक्षा (Rousseau’s Prohibitive Education)
रूसो विद्यालय शिक्षा के विरूद्ध थे और निषेधात्मक शिक्षा को उपयुक्त मानते थे।
रूसो के अनुसार, “प्रचलित व्यवहार से बिल्कुल उल्टा करो और तुम सदैव ठीक करोगे।”
According to Rousseau, “Take the reverse of the accepted practice and you will always do right.”
रूसो ने अपने शिक्षा-सिद्धान्तों के प्रतिपादन में एक ऐसी विचारधारा का सृजन किया है जिसे निषेधात्मक शिक्षा की संज्ञा दी गई है। यहाँ निषेधात्मक शिक्षा का तात्पर्य यह है कि सबसे पहले हमें ‘गुण’ और ‘सत्य’ के सिद्धान्त नहीं पढ़ाने चाहिए, वरन् हृदय की पाप से और मस्तिष्क की भ्रम से रक्षा करनी चाहिए।
शिक्षा के अन्तर्गत बालक के विविध अंगों, ज्ञानेन्द्रियों तथा विभिन्न शक्तियों को उपयोग में लाना चाहिए। इस प्रकार उसके मस्तिष्क को तब तक निष्क्रिय रखना चाहिए जब तक उसमें निर्णय शक्ति का प्रादुर्भाव न हो जाए। बाहरी दूषित प्रभावों से बालक को बचाने की चेष्टा करनी चाहिए तथा उसे पापों से बचाने के लिए गुण देने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए क्योंकि जब तक उसमें विवेक का विकास न होगा तब तक वह गुण को ‘गुण’ नहीं समझ पाएगा। इस प्रकार की सोच को रूसो लाभप्रद समझते हैं। वे कहते हैं कि यदि हम निर्दिष्ट स्थान की ओर बिना किसी हानि के बढ़ते जाते हैं तो उसे लाभ ही समझना चाहिए।
रूसो के अनुसार, “मैं निषेधात्मक शिक्षा उसे कहता हूँ जो समय के पहले ही मस्तिष्क को प्रौढ़ बनाना चाहती है और बालक को युवा पुरूषों के कर्तव्यों में शिक्षा देती है। मैं निषेधात्मक शिक्षा उसे कहता हूँ, जो ज्ञान देने के पूर्व ज्ञान को ग्रहण करने वाले अंगों को दृढ़ बनाने का प्रयत्न करती है और जो ज्ञानेन्द्रियों के समुचित उपयोग से विवेक-शक्ति को बढ़ाती है। निषेधात्मक शिक्षा गुण नहीं देती, वह पाप से बचाती है।”
निषेधात्मक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Prohibitive Education)
निषेधात्मक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
(1) समय की बचत नहीं (No Time Savings) – रूसो के अनुसार, “बचपन में समय की बचत नहीं की जायेगी, इसके बजाय समय को बर्बाद किया जाए। बच्चे को दौड़ना, उछलना और दिन भर खेलने दें। वह जो कुछ भी करना चाहे उसे करने दें। उसे किसी प्रकार के नियन्त्रण में बाँधकर रखना उचित नहीं । उसे स्वतन्त्र रूप से क्रियाएँ करते रहना देना चाहिए।”
(2) पुस्तकीय ज्ञान नहीं (No Bookish Knowledge) – रूसो कहते है, कि “मैं पुस्तकों से घृणा करता हूँ क्योंकि वे बच्चों के लिए अभिशाप हैं, वे केवल हमें ऐसी बात करना सिखाती हैं, जिन्हें हम नहीं जानते। बच्चे को अपनी पुस्तकों का कीड़ा बनाने की बजाय मैं उसको कार्यशाला में व्यस्त रखता हूँ। उसके हाथ उसके मन के लाभ का कार्य करेंगे।” रूसो ने यह अनुभव किया कि पुस्तकों में भली-भाँति तैयार पाठ्य सामग्री नगण्य लाभ देती है। बच्चों को अपने प्रयासों तथा विभिन्न प्रकार के अनुभवों से सीखने दें।
(3) आदत निर्माण नहीं (No Habit Formation) – रूसो के शब्दों में, “बच्चे की जिस आदत का निर्माण होने दिया जाता है, वह किसी आदत के बन्धन में न पड़ने की आदत है, अतः छोटे बच्चों को सुदृढ आदतों का दास नहीं बनाया जाए। उन्हें प्रत्येक प्रकार के कार्य करने के लिए स्वतन्त्र रखा जाए। यह समय अच्छी व बुरी आदतों के निर्माण का नहीं होता। इसका निर्णय भविष्य में करना उचित समझा जाता है।
(4) कोई सामाजिक शिक्षा नहीं (No Social Education) – रूसो के में समाज का उच्च वर्ग भ्रष्ट था। वह बच्चों को ऐसे समाज से अलग रखने और समाज की बुराईयों से अपने को बचाने के लिए तर्क और ज्ञान की पूर्णता प्राप्त करने तक उन्हें प्रकृति के मध्य पढ़ाना चाहता था।
(5) कोई नैतिक शिक्षा नहीं (No Moral Education) – रूसो नैतिक शिक्षा देने के पक्ष में नहीं है। बच्चे को अपने कार्यों के परिणामों से सही और गलत को समझने के लिए कार्य करने दो, वह कहते हैं कि आपके निरन्तर उपदेश और नैतिक शिक्षा से अच्छाई की बजाय बुराई अधिक होती है। वह पुनः कहते हैं, “बच्चे को किसी तरह दण्डित न करो तथा कभी भी माफी मांगने को न कहो, वह कुछ भी गलत नहीं कर सकता है।”
(6) औपचारिक अनुशासन नहीं (No Formal Discipline)- रूसो बच्चों के स्वतन्त्र और सार्थक अनुशासन के समर्थक थे। बच्चों को अपने कार्यों के प्राकृतिक परिणामों को पाने दो। यदि बच्चा खिड़की के पास बैठकर ठंडी हवा के झोंके का आनन्द लेना चाहता है तो उसे लेने दो यदि वह वृक्ष पर चढ़ता है तो उसको गिरने और फिर से पेड़ पर चढ़ने दो। इस प्रकार रूसो अनुशासन की दृष्टि से बालक पर कोई औपचारिक अनुशासन थोपने के पक्ष में नहीं है।
(7) शिक्षा के पारम्परिक तरीके के साथ लगाव नहीं (No Sticking to Traditional Method of Education) – रूसो देश के प्रचलित सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और शैक्षणिक दशाओं से बहुत क्षुब्ध थे। इसी कारण उन्होंने शिक्षा की परम्परागत कार्यविधि को यह कहते हुए चुनौती दी कि, “मुझे पूर्णतः अज्ञानी बारह वर्ष का एक बच्चा दो। पन्द्रह वर्ष का होने पर मैं उसको तुम्हें बचपन से पढ़ाये गये बच्चे से अधिक ज्ञानवान बनाकर सौपूँगा।” साथ ही उसमें और बचपन से सिखाये गये बच्चे में यह अन्तर भी दिखाई देगा कि बचपन से पढ़ाया गया बच्चा चीजों को कंठस्थ करेगा, जबकि मेरे द्वारा सौंपा गया बच्चा सीखी गई बातों के व्यावहारिक उपयोग में सिद्धहस्त होगा।
निश्चयात्मक शिक्षा (Positive Education)
रूसो की निश्चयात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में स्वयं रूसो ने लिखा है, ‘निश्चयात्मक शिक्षा वह शिक्षा है, जो मनुष्य के विकास से पहले उसके मस्तिष्क का विकास करती है और बच्चे को प्रौढ़ों के कर्तव्यों से परिचित कराती है।”
According to Rousseau, “I call positive education one that tends to form the mind prematurely and instinct the child in the duties that belong to man.”
निश्चयात्मक शिक्षा द्वारा मनुष्य के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है क्योंकि वह मनुष्य की प्रकृति को बुरा समझता है। अतः निश्चयात्मक शिक्षा से तात्पर्य अध्यापक द्वारा पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करके व्यक्ति में प्रेम, नैतिकता, नागरिकता, सामाजिकता तथा कर्त्तव्यपरायणता के गुणों का विकास करना एवं स्वस्थ गुणों एवं आदतों का निर्माण करना है। रूसो ने निश्चयात्मक शिक्षा को तीन भागों में बाँट दिया है-
1. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा
2. जीवन सम्बन्धी अनुभव
3. स्वतन्त्रता एवं शारीरिक व्यायाम
(1) ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा- रूसो ने ज्ञान को परिमित होने के साथ-साथ यर्थाथ माना है तथा उसके विचार को रटने की अपेक्षा मस्तिष्क में स्थायी माना है। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक सृजनशील होता है।
(2) जीवन सम्बन्धी अनुभव – रूसो ने इसमें व्यक्ति के स्वयं की आत्मानुभूति एवं प्रयास द्वारा प्राप्त ज्ञान को अधिक स्थायी एवं वास्तविक माना है।
(3) स्वतन्त्रता एवं शारीरिक व्यायाम- इसमें रूसो ने बालक को सुनियंत्रित स्वतन्त्रता प्रदान करके प्रारम्भिक अवस्था से ही कार्य देना चाहिए जिससे उसका नैतिक विकास हो सके। इसके साथ ही शारीरिक व्यायाम हेतु स्पार्टा एवं जिम्नास्टिक की शिक्षा को सम्मिलित किया है।
रूसो के शैक्षिक चिन्तन का मूल्यांकन (Evaluation of Rousseau’s Educational Thoughts)
रूसो के शैक्षिक चिन्तन का मूल्यांकन गुण एवं दोषों के आधार पर निम्वत् है-
गुण (Merits)
(1) रूसों के अनुसार शिक्षा एक प्राकृतिक क्रिया है और सीखना मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है। इनके अनुसार जो शिक्षा प्राकृतिक विकास में सहायक हो वही वास्तविक शिक्षा है।”
(2) रूसो ने शिक्षा के काल को चार भागों में बाँटा ओर सभी कालों के अलग-अलग उद्देश्य निश्चित किए। उनके अनुसार शारीरिक विकास, इन्द्रिय प्रशिक्षण, बौद्धिक विकास, भावात्मक विकास, अधिकारों की रक्षा और स्वतन्त्र व्यक्तित्व का निर्माण शिक्षा के उददेश्य होने चाहिए।
(3) रूसो ने मानव विकास को चार भागों शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और युवा-अवस्था में बाँटा है। उन्होंने प्रत्येक अवस्था का उद्देश्य और पाठ्यचर्या अलग-अलग दी हैं।
(4) इन्होंने बच्चों को समाज के कृत्रिम और दोषपूर्ण पर्यावरण के स्थान पर प्रकृति की गोद में उसकी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। उन्होंने कर के सीखना, स्वानुभव द्वारा सीखने पर बल दिया।
(5) उनके अनुसार बच्चों के व्यवहार की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उनके अनुसार बच्चों को गलत कार्य के लिए प्रकृति स्वयं दण्ड देती है।
दोष (Demerits)
(1) रूसो ने शिक्षा को प्राकृतिक माना है जबकि जन्मजात शक्तियों को किसी माध्यम से ही मनुष्य सीखता है।
(2) रूसो की शिक्षा के उद्देश्य शिक्षा के एक ही स्तर पर बल तथा मनुष्य को जन्म से शूद्र माना, नागरिकता की शिक्षा को भी नहीं माना, जो पूर्णतया दोषपूर्ण है।
(3) मनुष्य के विकास को विभिन्न स्तरो में बाँटने का प्रयास का शिक्षा जगत में विशेष महत्व है परन्तु शिक्षा के उद्देश्यों एवं पाठ्यचर्या से विद्वान पूर्ण सहमत नहीं है।
(4) रूसो ने बच्चों को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा सीखने, स्वक्रिया तथा अनुभवों के माध्यम से सीखने के अवसर दिए परन्तु समाज से पृथक करके शिक्षा देने का मत मान्य नहीं है।
(5) अनुशासन के क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता का नारा रूसो की भूल कही जाएगी क्योंकि प्रत्येक समय बच्चे को छूट नहीं दी जा सकती है।
रूसो की शिक्षा को देन (Rousseau’s Contribution to Education)
रूसो की शिक्षा योजना में अनेक महत्वपूर्ण और शाश्वत विशेषताएँ हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-
(1) रूसो ने शिक्षा के क्षेत्र में तीन प्रवृत्तियों मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति, वैज्ञानिक प्रवृत्ति, और सामाजिकतावादी प्रवृत्ति को जन्म दिया। मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति के फलस्वरूप शिक्षा मनोवैज्ञानिक बन गयी, वैज्ञानिक प्रवृत्ति के फलस्वरूप वैज्ञानिक विषयों की उपयोगिता बढ़ी और सामाजिकतावादी प्रवृत्ति के फलस्वरूप शिक्षा में जनतान्त्रिक भावना का प्रादुर्भाव हुआ।
(2) शिक्षक या विषय की अपेक्षा बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना जाने लगा और इस प्रकार शिक्षा बाल-केन्द्रित हो गयी।
(3) पाठ्यचर्या में विभिन्नता और विविधता का समावेश हुआ। बालक की विशेषताओं, आवश्यकताओं और स्तर के अनुकूल पाठ्यचर्या का निर्माण आरम्भ हो गया।
(4) रूसो के विचारों के फलस्वरूप विविध शिक्षण विधियों- क्रियात्मक विधि, खोज विधि, डाल्टन विधि, किण्डरगार्टन प्रणाली, मॉन्टेसरी प्रणाली, खेल विधि आदि का जन्म हुआ । इन सब शिक्षण विधियों का सार यही है कि बालक को स्वतन्त्र वातावरण में शिक्षा दी जाए, उसको नियन्त्रण से मुक्त रखा जाए और उसके स्वाभाविक विकास पर बल दिया जाए।
(5) स्थूल से सूक्ष्म की ओर, निश्चित से अनिश्चित की ओर, व्यवहार से सिद्धान्त की ओर, प्रकृति का अनुसरण करो आदि शिक्षण सूत्रों के पीछे भी रूसो की प्रेरणा ही कार्य कर रही है।
(6) हाथ, मस्तिष्क और हृदय की शिक्षा पर बल दिया।
(7) विकास की अवस्थाओं पर ध्यान केन्द्रित करने के कारण शिक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक हो गयी।
(8) जन साधारण की शिक्षा के प्रति क्रान्तिकारी भावना रूसो ने प्रथम बार जागृत की।
(9) औद्योगिक और व्यावसायिक शिक्षा का बीजारोपण हुआ।
(10) शिक्षा में स्वतन्त्रता के साथ बढ़ने, जीने और कार्य करने की भावना का विकास हुआ।
वास्तव में रूसो एक युग प्रवर्तक शिक्षा दार्शनिक है। अतएव शिक्षा जगत पर उसका बहुत भारी प्रभाव पड़ा है। रस्क का यह कथन पूर्णतया सही है कि रूसो का आधुनिक शिक्षा में वही स्थान है, जो प्लेटो का प्राचीन शिक्षा में था। प्लेटो की रिपब्लिक के बाद रूसो का एमील ग्रन्थ शिक्षा जगत के लिए बहुत बड़ी देन है।
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