दर्शनशास्त्र या दर्शन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Philosophy)
दर्शन शब्द का अंग्रेजी रूपान्तरणं फिलॉसफी (Philosophy) शब्द दो यूनानी शब्दों फिलॉस (Philos) और सोफिया (Sophia) से मिलकर बना है। ‘Philos’ का अर्थ ‘Love’ और ‘Sophia’ का अर्थ है ‘Wisdom’। इस प्रकार Philosophy (दर्शन) का शाब्दिक अर्थ हुआ- ‘Love of Wisdom’ (ज्ञान से प्रेम)। ड्यूवी के अनुसार, “जब कभी दर्शन को गम्भीरता से समझा गया है तब सदैव यह धारणा रही है कि इसका अर्थ विद्वता व ज्ञान प्राप्त कर लेना है, जो जीवन के मार्ग को प्रभावित करता है।”
दर्शन की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
ब्राइटमैन के अनुसार, “दर्शनशास्त्र को एक ऐसे प्रयास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसके द्वारा मानव अनुभूतियों के सम्बन्ध में समग्र रूप में सत्यता से विचार किया जाता है अथवा जो सम्पूर्ण अनुभूतियों को बोधगम्य बनाता है।”
According to Brightman, “Philosophy may be defined as the attempt to think truly about human experience as whole or to make out whole experience intelligible.”
आर.डब्ल्यू. सेलर्स के अनुसार, “दर्शन एक व्यवस्थित विचार द्वारा विश्व और मनुष्य की प्रकृति के विषय में ज्ञान प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास है। “
According to R.W. Sellers, “Philosophy is a persistent attempt to gain insight into the nature of the world and of ourselves by means of systematic reflection.”
प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के शब्दों में, “जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने तथा नयी-नयी बातों को जानने के लिए रुचि प्रकट करता है, जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता, उसे दार्शनिक कहा जाता है। “
According to Plato, “He who has a taste for every sort of knowledge and who is curious to learn and is never satisfied may be justly termed a philosopher.”
कान्ट के अनुसार, दर्शन बोध क्रिया का विज्ञान और उसकी आलोचना है।”
According to Kant, “Philosophy is the science and criticism of cognition.”
फिक्टे के शब्दों में, “दर्शन ज्ञान का विज्ञान है।”
According to Fischte, “Philosophy is the science of knowledge.”
बटरैण्ड रसेल के अनुसार, “अन्य क्रियाओं के समान दर्शन का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है।”
According to Bertrand Russell, “Philosophy, like all other studies, aims primarily at knowledge.”
वस्तुतः दर्शन के अन्तर्गत् प्रकृति, व्यक्तियों व वस्तुओं तथा उनके लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के विषय में निरन्तर विचार किया जाता है। यह ईश्वर, ब्रह्माण्ड एवं आत्मा के रहस्यों तथा इनके पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन करता है। उस व्यक्ति को हम दार्शनिक कहने लगते हैं जो इन्ही सब प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करता है।
दर्शनशास्त्र का स्वरूप / प्रकृति (Nature of Philosophy)
अंग्रेजी का ‘फिलॉसफी शब्द दो ग्रीक शब्दों के योग से बना हैं – Philos (प्रेम या अनुराग) और Sophia (ज्ञान या विद्या) । अतः फिलॉसफी का अर्थ हुआ ‘ज्ञान से प्रेम’ या “विद्यानुराग’ विद्या शब्द विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ है “जानना”। अतः फिलॉसफी का अर्थ हुआ ‘जानने से अनुराग । अब हमें यह देखना हैं कि यह जानना किस वस्तु का है अर्थात् इसका विषय क्या हैं तथा यह जानना कैसा है।
वास्तविक जानना तो वही है जो अधूरा न हो, जो सम्पूर्ण विश्व का स्वरूप बता दे, जिसके जानने के बाद फिर कुछ जानना शेष न रहे। विश्व के अलग-अलग वर्गों का अध्ययन करने से विश्व के अंगों का ज्ञान तो होता है परन्तु सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान नहीं होता। किसी भी पदार्थ को कई भागों में बाँट देने पर उनके पृथक् अध्ययन से अंशों की जानकारी तो हो जाती है किन्तु उस वस्तु का उसकी सम्पूर्णता में ज्ञान नहीं होता। जब उसका उसकी सम्पूर्णता में अध्ययन किया जाए तब उसका वास्तविक ज्ञान होता है। बहुत-से दार्शनिकों ने दृश्यजगत् और वास्तविकता या तत्व में अन्तर मानते हुए केवल तत्व को ही दर्शन का विषय बतलाया है। उन्होंने दृश्यजगत् को अवास्तविक बतलाया है क्योंकि यह अस्थायी है। वस्तु विशेष की सृष्टि होती है और विनाश भी हो जाता है। वे इसलिए यथार्थ सत्य या वास्तविक नहीं है। सत्य वह है जो सनातन हो । अतः वहीं दर्शनशास्त्र का विषय है। यह मत प्लेटो, ब्राडने आदि दार्शनिकों का है पर वास्तव में दृश्यजगत् भी तत्व का ही व्यक्त रूप है, भले ही अपूर्ण हो तथा दोनों सम्बद्ध हैं। अतः तत्व और दृश्यजगत् दोनों ही दर्शनशास्त्र के विषय हैं। दर्शन में हम मनुष्य की सम्पूर्ण अनुभूतियों की व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि जानना कैसे होता है? जानना मनुष्य के मानसिक प्रयत्न का फल है। साधारण तरीके से किसी भी पदार्थ के जानने में हम मानसिक प्रयत्न करते है पर विषय की उतनी खोजबीन नहीं करते। इसलिए हमारा ज्ञान विरोधों से पूर्ण होता है। इसलिए दर्शन विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने की मानसिक चेष्टा है।
दर्शन का भारतीय एवं पाश्चात्य स्वरूप (Indian and Western Nature of Philosophy)
दर्शन, पाश्चात्य हो या भारतीय, दोनों की उत्पत्ति जिज्ञासा को शान्त करने के लिए होती है। मानव-स्वभाव है सोचना। इसी कारण दुनिया के अन्य प्राणियों से वह भिन्न माना जाता है। यही उसका धर्म है। सोचने के लिए उसे रुकना नहीं पड़ता, न वह अपने अनुभवों तक ही सोचने में सीमित रहता है। अनुभव के दायरे के बाहर भी जाने की शक्ति उसमें होती है वह जिस विश्व में रहता है उसके विषय में उसे जिज्ञासा होती है और वह उसके विषय में विचार करता है। यही है उसका दर्शन। इसलिए जब तक मनुष्य है, दर्शन भी अवश्य ही होगा। एक दूसरे में अन्तर बस इतना ही है कि यदि किसी का सोचना विरोध-रहित और सुव्यवस्थित होता है तो उसके विचारों को अच्छा दर्शन और यदि दूसरे का सोचना अव्यवस्थित और भ्रमयुक्त तो उसके दर्शन को भ्रमात्मक कहेंगे।
मनुष्य का सोचना भी वास्तव में देश और काल से प्रभावित होता है। इसलिए सभी देशों का दार्शनिक दृष्टिकोण एक-सा नहीं होता। सभी दर्शनों में साम्य होते हुए भी दृष्टिकोण का अन्तर अवश्य होता जाता है। यही अन्तर हम पाश्चात्य और भारतीय दर्शन में भी पाते हैं।
भारत में दार्शनिक चिन्तन का जीवन से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। दार्शनिक चिन्तन का उद्देश्य केवल सत्य का अन्वेषण या खोज ही नहीं, जैसा कि पश्चिमी देशों का विचार है अर्थात् सत्य का साक्षात्कार माना जाता है। इसलए इसे हम दर्शन अर्थात साक्षात्कार कहते हैं। दर्शन केवल सैद्धान्तिक अन्वेषण ही नहीं बल्कि उसके अनुकूल जीवन को ढालने का प्रयत्न है। इसीलिए दर्शन केवल मानसिक व्यायाम ही नहीं बल्कि जीवन भर का आधार है। दर्शन का यह उद्देश्य हम पश्चिमी देशों में कम पाते हैं। आधुनिक काल में कुछ पश्चिमी दार्शनिकों ने इस पहलू को भी ध्यान में रखा है। उन्होंने दर्शन को वैयक्तिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन की आधारशिला बतलाया है।
दूसरी बात यह है कि पाश्चात्य दर्शन का उद्भव शुद्ध जिज्ञासा को शान्त करने के हेतु हुआ है पर भारतीय दर्शन का लक्ष्य, अधिकतर, दुःख का निवारण ही माना जाता है। इसका उददेश्य है मोक्ष की प्राप्ति । मोक्ष की प्राप्ति तब होती है जब साधक को सत्य का साक्षात्कार होता है। अतः दुःख के निवारण के हेतु ही भारतीय दर्शन की उत्पत्ति हुई है।
दोनों दृष्टिकोणों में यह अन्तर रहने पर भी दोनों में आधारभूत साम्य हैं। दोनों का विषय एक ही है – सम्पूर्ण विश्व को इसलिए दोनों में मौलिक भेद नहीं मानना चाहिए।
दर्शनशास्त्र का क्षेत्र (Scope of Philosophy)
दर्शनशास्त्र के स्वरूप से ही उसका क्षेत्र स्पष्ट हो जाता । विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने की मानसिक चेष्टा ही दर्शन है। इसलिए मानव-अनुभूति का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जिससे दर्शनशास्त्र का सम्बन्ध नहीं है। समस्त विश्व ही सामान्य रूप से दर्शनशास्त्र का विषय है पर दुनिया की हर चीज का विवरणात्मक अध्ययन किसी के लिए सम्भव नहीं है। अतः भिन्न-भिन्न पदार्थों के भिन्न वर्ग बने हुए हैं। विशिष्ट वर्गों का अध्ययन विज्ञानों में होता है। जैसे- भौतिकशास्त्र में जड़ तत्व का अध्ययन किया जाता है, रसायनशास्त्र में रसायनों का, जीवनशास्त्र में जीव का, प्रत्येक विज्ञान बिना विवेचना किए ही कुछ मूल आधारों को सत्य मान लेता है परन्तु उन्हीं मूल आधारों की विवेचना दर्शनशास्त्र में होती है। इसमें विज्ञान द्वारा प्राप्त नियमों का सम्बन्ध तथा मूल्यांकन होता है।
प्रत्येक विज्ञान का सम्बन्ध दृश्य-जगत् से है अर्थात् वैसे पदार्थ से जिनका अनुभव किया जाता है। अनुभव-जगत् के परे कोई तत्व है या नहीं, इसकी विवेचना दर्शनशास्त्र में होती है। इसी विवेच्य क्षेत्र में आत्मा और ईश्वर आते हैं। प्रकृति, आत्मा और ईश्वर तीनों ही दर्शनशास्त्र के विवेच्य विषय हैं।
किसी भी समस्या के समाधान की चेष्टा मनुष्य ज्ञान के लिए ही करता अतः सत्य को जानने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि जानने का अर्थात् ज्ञान का साधन और उसकी वास्तविकता क्या है? ज्ञान-सम्बन्धी समस्याएँ भी दर्शनशास्त्र के विषय हैं।
दर्शन और जीवन में बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः मनुष्य अपने अनुभवों का मूल्यांकन करता है। उन मूल्यों के लिए अच्छा-खराब, उचित – अनुचित, सुन्दर – कुरूप आदि संज्ञाएँ दी जाती हैं। इन मूल्यों का अर्थ क्या है? क्या ये हमारे विचार मात्र है या इनका वास्तविक अस्तित्व भी है? इसकी मीमांसा भी दर्शनशास्त्र में होती है।
कुछ दार्शनिकों के अनुसार ईश्वर, आत्मा आदि जो अनुभव के परे हैं, उन्हें दर्शनशास्त्र का विषय नहीं मानना चाहिए। उनके अनुसार वही सार्थक है, जिसको अनुभव द्वारा सिद्ध किया जा सके। ईश्वर, आदि के विचारों की अनुभव द्वारा परीक्षा सम्भव नहीं है, अतः ये शब्द निरर्थक है। अतएव किसी भी विज्ञान के ये विवेच्य विषय नहीं हो सकते। ईश्वर आत्मा आदि के सम्बन्ध में जो इनके विचार हैं, उनकी योग्यता चाहे जो भी हो, दर्शनशास्त्र के विषय में इनका मत मान्य नहीं है।
यदि दर्शन अनुभव-जगत् तक ही सीमित हो तो विज्ञान और दर्शन में फर्क ही क्या रह जाएगा। फिर यह विचारने के लिए भी कि ईश्वर, आत्मा आदि निरर्थक है, हमें इन विषयों का विचार करना पड़ता है। अतः ये दर्शनशास्त्र के विवेच्य विषय हो जाते हैं।
भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार दर्शन का उद्देश्य है दुःख का निवारण अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति। अतएव जितनी भी विद्याएँ हैं, वे दर्शन के साधन मानी जाती हैं। दर्शन का क्षेत्र सर्वव्यापक है, इसलिए औषधि-विज्ञान, व्याकरण आदि विद्याएँ भी उसी के अन्तर्गत् विचारी जाती हैं। पश्चिम के आधुनिक विद्वानों ने भी दर्शन में व्याकरण, साहित्य आदि पर विचार करना आरम्भ किया है।
अतः हम कह सकते हैं कि दर्शनशास्त्र में जिन समस्याओं पर विचार किया जाता है, वह सब दर्शन के क्षेत्र के अन्तर्गत ही आती हैं।
शिक्षा और दर्शन का सम्बन्ध (Relation between Philosophy and Education)
दर्शन जीवन और समाज के मूल्यों और आदर्शों के विषय में निर्देशित करता है, समाज विशेष की संस्कृति के सन्दर्भ में इन मूल्यों तथा आदर्शों की गहराई में जाकर व्याख्या करता है तथा उच्च जीवन मानदण्ड निश्चित करता है। शिक्षा अपनी व्यावहारिक योजनाओं के माध्यम से दार्शनिक सिद्धान्तों को ही क्रियात्मक रूप प्रदान करती है। बिना दर्शन के शिक्षा अपना आधार ही जैसे खो बैठेगी। शैक्षिक दृष्टिकोण से दर्शन का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा शिक्षा का पथ-प्रदर्शन किया जाता है।
बटलर के अनुसार, “दर्शन शिक्षा के प्रयोगों के लिए पथ-प्रदर्शक है, शिक्षा अनुसन्धान के क्षेत्र के रूप में दार्शनिक निर्णय के लिए निश्चित सामग्री को आधार प्रदान करती है।
According to Butler, “Philosophy is a guide to educational practice, education as a field of investigation yields certain data as a basis for philosophical judgement.”
शिक्षा का दर्शन की शाखाओं (तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा एवं मूल्य मीमांसा) से परस्पर सम्बन्ध निम्न प्रकार होता है-
(1) तत्व मीमांसा (Metaphysics) – तत्व मीमांसा मानव की उत्पत्ति के विषय में चिन्तन व्यक्त करता है। यह मानव के ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध पर भी ध्यान देता है। ईश्वर के सम्बन्ध में धारणाओं का स्पष्टीकरण तत्व मीमांसा द्वारा होता है।
शिक्षा के लिए तत्व मीमांसा का निहितार्थ (Implication of Metaphysics for Education)- वस्तुतः तत्व मीमांसा की जीव जगत सम्बन्धी छात्र की संकल्पना छात्र- शिक्षक सम्बन्ध, पाठ्यचर्या तथा शैक्षिक मूल्यों को प्रभावित करती है। उदाहरणार्थ भौतिकवादी दर्शन में आस्था रखने वाला शिक्षक बालक को एक भौतिक पदार्थ के रूप में रह ही देखेगा तथा उसकी शिक्षण विधि भी उद्दीपन-अनुक्रिया के सिद्धान्त पर आधारित होगी। ऐसी स्थिति में जीवन के मूल्य भी भोगवादी तथा ठोस जगत में सुखपूर्वक सकने से सम्बद्ध होंगे लेकिन इसके विपरीत, यदि जगत तत्वों से बना हुआ स्वीकार किया जायेगा तो छात्र तथा शिक्षा सम्बन्धी अवधारणाएँ उसी के अनुरूप बदल जायेंगी।
(2) ज्ञान मीमांसा (Epistemology) – प्राचीन काल में इस विभाग को ही दर्शन विभाग कहा जाता था और तत्कालीन दर्शनशास्त्रियों ने इसे ही दर्शनशास्त्र की प्रमुख विषय-वस्तु के रूप में स्वीकार किया था। इस विभाग में मानव – बुद्धि एवं उसकी ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया जाता है, जैसे- सृष्टि के ज्ञान प्राप्त करने की सीमा, उसके साधन, प्रमाण- ज्ञान के स्वरूप, सत्य और असत्य के स्वरूप, यथार्थ और भ्रम के स्वरूप तथा मानव बुद्धि के यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकने की सम्भावनाएँ आदि।
ज्ञान मीमांसा तथा तत्व मीमांसा में सम्बन्ध (Relation between Epistemology and Metaphysics)
ज्ञान तत्व मीमांसा से सम्बद्ध होती है। उदाहरणार्थ, जगत के सम्बन्ध में यदि हमारा दृष्टिकोण भौतिकवादी है तो ज्ञान प्राप्ति के साधन प्रत्यक्ष इन्द्रिय-ज्ञान से सम्बद्ध होंगे। ज्ञान प्राप्ति की विधि वैज्ञानिक मानी जायेगी और प्रत्यक्ष ज्ञान ही केवल वैध जायेगा, जबकि जगत को यदि आध्यात्मिक माना जाता है तो ज्ञान प्राप्ति की विधि तर्कपरक तथा सहज ज्ञान से सम्बद्ध होगी।
शिक्षा के लिए ज्ञान मीमांसा का निहितार्थ (Implication of Epistemology for Education)
विद्यालय का पाठ्यचर्या निर्धारित करते समय ज्ञान मीमांसा हमें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। विषयों के चयन, पाठ्यचर्या के संकलन तथा पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में यह हमें स्पष्ट रूप से प्रभावित करती है। ज्ञान मीमांसा हमारी शिक्षण विधियों को भी प्रभावित करती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में वैज्ञानिक विधि का कम प्रयोग, अनुकरण तथा सतत् वाक्य की महत्ता, सहज ज्ञान पर अधिक निर्भर रहना, हमारी दार्शनिक धारणाओं को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करते हैं।
(3) मूल्य मीमांसा (Axiology)- मूल्य मीमांसा का सम्बन्ध मानव जीवन के विभिन्न मूल्यों, उद्देश्यों और आदर्शों से होता है। इसके अन्तर्गत निम्न तीन विभाग होते हैं-
(i) तर्कशास्त्र- मूल्य मीमांसा के अन्तर्गत इस विभाग का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि तर्क के द्वारा ही यथार्थ के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है। यह शास्त्र ही अपनी आगमन एवं निगमन विधियों के द्वारा तर्क की वैज्ञानिक विधि का बोध कराता है। इस विभाग के अन्तर्गत् तर्कपूर्ण चिन्तन, कल्पना अथवा अनुमान, उसके लक्षण, तर्क की पद्धति, आदि के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।
(ii) नीतिशास्त्र – इस विभाग के अन्तर्गत् मनुष्य के आचरण से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं पर विचार करके विश्लेषण किया जाता है कि मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए और कैसा नहीं करना चाहिए।
(iii) सौन्दर्यशास्त्र – इस विभाग में सौन्दर्य सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं पर विचार किया जाता है, जैसे सौन्दर्य अथवा असौन्दर्य क्या है? उसके लक्षण क्या हैं? तथा उनके मानदण्ड क्या हो सकते हैं?
शिक्षा के लिए मूल्य मीमांसा के निहितार्थ (Educational Implications of Axiology)
शिक्षा की दृष्टि से दर्शनशास्त्र की इस शाखा का अत्यधिक महत्व है। नैतिक जीवन नीतिशास्त्र के क्षेत्र में आता है तथा सदजीवन सौन्दर्यशास्त्र एवं नीतिशास्त्र के अन्तर्गत् आता है। इसके अतिरिक्त मूल्य मीमांसा हमारी अनुशासन सम्बन्धी धारणाओं को प्रभावित करती है। मूल्य मीमांसा के अन्तर्गत् करणीय तथा अकरणीय की व्याख्या की जाती है एवं मानव-व्यवहार के औचित्य अनौचित्य का विचार किया जाता है। दूसरे शब्दों में, यह विभाग सुन्दर-असुन्दर, शुभ-अशुभ एवं अच्छे-बुरे की विवेचना से सम्बन्धित होता है।
दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Philosophy on Education)
शिक्षा पर दर्शन के प्रभाव को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट जा सकता है-
(1) दर्शन शिक्षा के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है (Philosophy Affects Various Aspects of Education)- दर्शन वह सूर्य है जिसके चारों ओर के विभिन्न पहलू परिक्रमा करते हैं। शिक्षा की सभी समस्याएँ दर्शन की समस्याएँ है। शिक्षा के विभिन्न अंग दर्शन से सदैव प्रभावित होते रहे हैं। दूसरे शब्दों में, जब भी किसी दार्शनिक विचारधारा में परिवर्तन होता है, तभी शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या, शिक्षण विधियाँ एवं पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन होना प्रारम्भ हो जाता है। कभी-कभी शिक्षा के सम्पूर्ण स्वरूप में भी परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
(2) दर्शन उस लक्ष्य को निर्धारित करता है जिस पर शिक्षा को चलना है (Philosophy Decides the Goal for Education to Follow) – शिक्षा का अर्थ है, बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाना लेकिन समस्या यह है कि व्यवहार परिवर्तन किस दिशा में होना चाहिए तथा वास्तविक लक्ष्य क्या हो? दर्शन जीवन के वास्तविक लक्ष्यों का निर्धारण करता है तथा इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से शिक्षा का मार्गदर्शन करता है एवं उसका संचालन भी करता है। इसलिए हमें विभिन्न वादों के अन्तर्गत शिक्षा के लक्ष्य भी भिन्न-भिन्न देखने को मिलते हैं।
(3) शिक्षा दर्शन का गत्यात्मक पहलू है (Education is a Dynamic Aspect of Philosophy) – वस्तुतः दर्शन विभिन्न कार्यों का सैद्धान्तिक पक्ष है जबकि शिक्षा व्यावहारिक पक्ष है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि दर्शन ही हमारे जीवन के लक्ष्य एवं सिद्धान्तों का निर्माण करता है तथा शिक्षा उन सिद्धान्तों को प्रयोग में लाती है। अर्थात् शिक्षा के माध्यम से ही जीवन के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा एवं दर्शन का घनिष्ठ सम्बन्ध है।
(4) महान दार्शनिक, महान शिक्षाशास्त्री भी हुए हैं (Great Philosophers were also become Great Educationists) – यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि प्रत्येक समय के महान दार्शनिक महान शिक्षाशास्त्री भी हुए हैं। उदाहरण के रूप में प्लेटो, सुकरात, रूसो, गाँधी, एवं अरविन्द घोष आदि के नाम लिए जा सकते हैं। ये अपने समय के महान दार्शनिक थे तथा महान शिक्षाशास्त्री भी। इन विद्वानों द्वारा लिखे गए ग्रन्थ, शिक्षा जगत में अमूल्य कृतियाँ मानी जाती हैं।
(5) दर्शन व शिक्षा की शाखाएँ (Branches of Philosophy and Education)- इसके अन्तर्गत तीन प्रकार की शाखाएँ आती हैं – तत्व मीमांसा तथा शिक्षा, ज्ञान मीमांसा तथा शिक्षा, मूल्य मीमांसा तथा शिक्षा । तत्व मीमांसा के अन्तर्गत् वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति के बारे में अध्ययन किया जाता है, ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत् ज्ञान सम्बन्धी समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाता है तथा मूल्य मीमांसा में तर्क, मूल्य तथा सौन्दर्य इन तीनों विषयों पर विचार किया जाता है।
(6) दर्शन अन्तिम प्रश्नों के उत्तर देता है (Philosophy Answers Ultimate Queries) – शैक्षिक – दर्शन दर्शन के आधार पर शैक्षिक समस्याओं की व्यवस्थित रूप में व्याख्या करता है। रसेल (Russell) के अनुसार, “शिक्षा के अन्तिम प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास ही दर्शन है।” अतः शिक्षा के अन्तिम प्रश्न दर्शन के भी अन्तिम प्रश्न होते हैं। इस प्रकार दर्शन शिक्षा को निर्देशन प्रदान करता है तथा अनुत्तरित प्रश्नों का संतोषजनक ढंग से उत्तर देता है जो मानव मस्तिष्क में निरन्तर विचरण करते रहते हैं।
शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव (Impact of Education on Philosophy)
दर्शन पर शिक्षा के प्रभाव को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) शिक्षा दर्शन के की आधारशिला है (Education Lays Foundation for Philosophy)– वस्तुतः दर्शन के निर्माण और विकास हेतु अवलोकन, चिन्तन एवं मनन आवश्यक होता है। शिक्षा के द्वारा ही हम भाषा सीखते हैं। अशिक्षित व्यक्ति से दर्शन जैसे के सम्बन्ध के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षा दर्शन के निर्माण की आधारशिला है। इस प्रकार चाहे हम भारतीय दर्शन की बात करें अथवा पाश्चात्य दर्शन की, उनके मूल में शिक्षा की संकल्पना ही कार्य करती है।
(2) शिक्षा दर्शन का संरक्षण करती है (Education Protects Philosophy) – दर्शन के द्वारा नए सिद्धान्तों, नई विचारधाराओं तथा नवीन तथ्यों की खोज की जाती है तथा शिक्षा इन्हें नई पीढ़ी तक पहुँचाती है। शिक्षा के अभाव में नयी पीढ़ी इन दार्शनिक सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से दर्शन के ज्ञान को संचित एवं सुरक्षित रखा जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा दर्शन की हर प्रकार से सहायता करती है तथा उसे एक सही राह पर लेकर चलती है।
(3) शिक्षा दार्शनिक सिद्धान्तों को मूर्त रूप प्रदान करती है (Education Provides Concrete Form Philosophical Views) – प्रायः दार्शनिक सिद्धान्त अत्यन्त सूक्ष्म एवं गूढ़ होते हैं। शिक्षा के माध्यम से ही इन दार्शनिक सिद्धान्तों को मूर्त एवं स्थूल रूप प्रदान किया जाता है, जिससे इनको प्राप्त करना सरल हो जाता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि “शिक्षा जीवन के सिद्धान्तों एवं आदर्शों को प्राप्त करने का वास्तविक साधन है। दर्शन इतने गूढ़ तथ्यों से भरा होता है कि इन्हें आसानी से नहीं समझा जा सकता। शिक्षा इन तथ्यों को मूर्त रूप प्रदान कर सहज रूप प्रदान करती है ताकि इन्हें आसानी से समझा जा सके।
(4) शिक्षा दर्शन को नई समस्याओं से परिचित कराती है (Education makes Philosophy Familiar with New Problems) – मनुष्य एक गतिशील एवं प्रगतिशील प्राणी है। विकास के पथ में उसके सामने नित नई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जब दार्शनिक इन समस्याओं पर चिन्तन करके अपने विचारों का मंथन करता है तो दर्शन का विकास होता है। के. एल. श्रीमाली शिक्षाशास्त्री से यह अपेक्षा करते थे कि वह नई समस्याओं का दार्शनिक हल तलाश करें ताकि उनका सामाजिक जीवन में सार्थक उपयोग किया जा सके।
(5) शिक्षा दर्शन को गतिशील रखती है (Education Moves Philosophy)– शिक्षा व्यक्ति में निरीक्षण एवं चिन्तन शक्ति का विकास करती है तथा उसे जीवन की नई-नई समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाती है। दार्शनिक इन नवीन समस्याओं के दार्शनिक हल ढूँढते हैं। इस समस्या समाधान की प्रक्रिया में नवीन दार्शनिक सिद्धान्तों का निर्माण होता है। बाद में यही ज्ञान दर्शनशास्त्र का अंग बनता जाता है। साथ ही दर्शन उन सिद्धान्तों का त्याग करता जाता है जो असत्य सिद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार शिक्षा दर्शन को गतिशील रखती है तथा उसमें नित नये आयाम विकसित करती है।
दर्शन की शाखाएँ (Branches of Philosophy)
दर्शनशास्त्र के स्वरूप से ही उसका क्षेत्र स्पष्ट हो जाता है। विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने की मानसिक चेष्टा ही दर्शन है। इसलिए मानव अनुभूति का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जिससे दर्शनशास्त्र का सम्बन्ध नहीं है। समस्त विश्व ही सामान्य रूप से दर्शनशास्त्र का विषय है पर दुनिया की हर चीज का विवरणात्मक अध्ययन किसी के लिए सम्भव नहीं है। अतः भिन्न-भिन्न पदार्थों के भिन्न वर्ग बने हुए हैं। दर्शन के अध्ययन हेतु दर्शन की खाओं का विस्तृत अध्ययन करना आवश्यक है जिनका विवरण निम्नलिखित है-
(1) तत्व मीमांसा (Metaphysics)
(2) ज्ञान मीमांसा ( Epistemology)
(3) मूल्य मीमांसा (Axiology)
तत्व-मीमांसा (Metaphysics)
तत्व या सत्ता मीमांसा दर्शन की वह शाखा है जिसमें सत्ता या तत्व के अस्तित्व एवं उससे सम्बन्धित अनेक प्रश्नों का अध्ययन किया जाता है। तत्व-मीमांसा यथार्थ जीवन की समस्या का समाधान खोजता है। यह ऐसे प्रश्नों के उत्तर की खोज करता है जैसे कि अस्तित्व की अपने में ही प्रकृति क्या है? इसके विपरीत भौतिक विज्ञान तथा विज्ञान की अन्य शाखाएँ अस्तित्व के वस्तु रूप का अवलोकन करते हैं। तत्व-मीमांसा अन्तिम रूप से यथार्थ क्या है इसकी ही खोज करता है।
दर्शनशास्त्र की प्रथम शाखा तत्व-मीमांसा है। तत्व-मीमांसा को अंग्रेजी में “मेटाफिजिक्स” ( Metaphysics) कहते हैं। शाब्दिक दृष्टि से देखा जाए तो यह दो शब्दों से मिलकर बना है- (Meta + Physics) | मेटा का अर्थ है ‘के परे’ तथा फिजिक्स का अर्थ है ‘भौतिक जगत इस प्रकार मेटाफिजिक्स (Metaphysics) का तात्पर्य उस शास्त्र से है जो भौतिक जगत से परे विषयों का अध्ययन करे। तत्व-मीमांसा के अन्तर्गत परम् सत्ता का अध्ययन किया जाता है। बहुत बार दार्शनिक लेखन में यह शब्द सत्ता मीमांसा (Ontology) के पर्यायवाची शब्द की भाँति प्रयोग किया जाता है। अतः स्पष्ट होता है कि तत्व सम्बन्धी अध्ययन को ऑन्टोलॉजी (Ontology) भी कहा गया है जिसका शाब्दिक अर्थ सत्ता मीमांसा (Ontos + Logica) है। इसे सत्ता से मीमांसा करने वाला शास्त्र कहा गया है। तत्व-मीमांसा में आत्मा, जगत एवं परमात्मा का अध्ययन किया जाता है। तत्व-मीमांसा के क्षेत्र में सवस्तु का ज्ञान, आत्मा का दर्शन एवं सृष्टि शास्त्र को भी सम्मिलित किया जाता है।
ज्ञान मीमांसा (Epistemology)
ज्ञान से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के प्रश्न हमारे मस्तिष्क में उठते हैं। ज्ञान के स्वरूप से सम्बन्धित प्रश्नों का अध्ययन ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत किया जाता है। ज्ञानशास्त्र को दर्शनशास्त्र की एक प्रमुख शाखा के रूप में मान्यता प्राप्त है।
ज्ञान का क्षेत्र एवं महत्व अत्यन्त व्यापक है। ज्ञान की महत्ता एवं गहराई के कारण ही फिक्टे ने दर्शनशास्त्र को ज्ञान के विज्ञान की मान्यता दी। इसके अन्तर्गत विभिन्न समस्याओं जैसे- ज्ञान प्राप्त करने के साधन, सत्य एवं असत्य का स्वरूप, प्रमाण एवं अ- प्रमाण का स्वरूप, भ्रम एवं भ्रम निवारण हैं अर्थात् ज्ञान मीमांसा ज्ञान की सीमाओं का अध्ययन हैं। इसके अन्तर्गत सत्य को जानना, ज्ञान की प्रकृति, सीमाएँ व उसके प्रादुर्भाव का अध्ययन किया जाता है।
ज्ञान मीमांसा के लिए अंग्रेजी के ‘एपिस्टिमोलॉजी’ (Epistemology) शब्द प्रयुक्त होता है। यह शब्द ग्रीक भाषा के ‘Episteme’ और ‘Logos’ से बना हैं। Episteme का अर्थ है- Knowledge तथा लोगोस का अर्थ विज्ञान से है।
अतः एपिस्टिमोलॉजी का शाब्दिक अर्थ है- ज्ञान का सिद्धान्त जिसे दार्शनिक दृष्टि से ज्ञान मीमांसा कहा जा सकता है। ज्ञान मीमांसा में प्रमुख तीन प्रश्न होते हैं-
(1) ज्ञान के स्रोत क्या है? वास्तविक ज्ञान क्या है? इन प्रश्नों को ज्ञान की उत्पत्ति कहा जा सकता है।
(2) द्वितीय प्रश्न ज्ञान के स्वरूप को लेकर है? क्या मन के बाहर कोई अन्य वास्तविक संसार है? और यह प्रश्न आभास बनाम सत्य का है।
(3) तीसरा प्रश्न ज्ञान की वैधता या प्रमाणिकता का है?
ज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। ज्ञान मीमांसा में आगमन एवं निगमन, संश्लेषण एवं विश्लेषण जैसी दार्शनिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। अतः सूक्ष्म रूप से कहा जा सकता है कि ज्ञान मीमांसा में यथा – ज्ञान की उत्पत्ति, ज्ञान का स्वरूप एवं ज्ञान की सत्यता की कसौटी से सम्बन्धित समस्याएँ सम्मिलित की जाती है। इन समग्र प्रश्नों के उत्तर जिस शाखा के अन्तर्गत मिलता है, ज्ञान मीमांसा कहलाती है।
जर्मन दार्शनिक कान्ट के अनुसार, “ज्ञान मीमांसा ज्ञान का विज्ञान एवं समालोचना है।”
मूल्य मीमांसा (Axiology)
दर्शनशास्त्र की तीसरी शाखा मूल्य-मीमांसा है। यह मूल्यों के प्रकारों, मापदण्डों एवं उनके स्रोत तथा प्रभाव, नैतिक शिक्षा या मूल्य शिक्षा पर बल देती है। मूल्य-मीमांसा से ही नीतिशास्त्र एवं आचारशास्त्र का विकास हुआ है। इसमें बताया जाता है कि क्या उचित है तथा क्या अनुचित है? क्या सुन्दर है एवं क्या असुन्दर है? क्या उपयोगी है तथा क्या अनुपयोगी है? क्या अनुकरणीय है तथा क्या त्यागने योग्य है? समाज में आदर्श जीवन चलाने के लिए व्यक्ति को आदर्श होना चाहिए, उसमें आदर्श मानवीय एवं सामाजिक मूल्य होना चाहिए, उत्तम चरित्र होना चाहिए, सदाचार होना चाहिए।
मूल्यों का निर्धारण करने वाली धर्म एवं संस्कृति होती है तथा अर्थापन दर्शन करता है। इस प्रकार मूल्यों की पृष्ठभूमि दर्शन, धर्म एवं संस्कृति है। अतः मूल्यों की सार्वभौमिक परिभाषा देना एवं उनका अर्थापन करना कठिन है । प्रत्येक दर्शन मूल्यों का अर्थापन अपने तरीके से करता है। इस प्रकार प्रत्येक समाज के अपने मूल्य होते हैं। मूल्य मीमांसा को अंग्रेजी में ‘Axiology’ कहते हैं जो दो शब्दों का मिश्रण है- एक्सीऑस (Axios) + लॉजी (Logy) एक्सीऑस (Axios) का अर्थ मूल्य (Value or Worth) होता है तथा लॉजी (Logy) का अर्थ विज्ञान (Science) होता है।
इस प्रकार मूल्य मीमांसा के अन्तर्गत जीवन के बौद्धिक, सौन्दर्यपरक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विवेचन किया जाता है। इसके प्रमुख प्रश्न हैं- अच्छा क्या है, क्या मूल्य वस्तुनिष्ठ है या व्यक्तिनिष्ठ है? आदि का विवेचन किया जाता है।
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