शिक्षण के सिद्धान्त (Principles of Teaching)
शिक्षण के कुछ सामान्य सिद्धान्त होते हैं। शिक्षण करते समय प्रत्येक शिक्षक को इन सिद्धान्तों की सहायता लेनी पड़ती है। ऐसा किए बिना वह अपने शिक्षण को सफल नहीं बना सकता है। अतः प्रत्येक शिक्षक को शिक्षण के इन सामान्य सिद्धान्तों की जानकारी होना अनिवार्य है।
(1) स्वक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Self- Activity) – विकास का आधार स्वक्रिया है। बालक संसार में कुछ मूल प्रवृत्तियों को लेकर आता है। फलस्वरूप बालक के शरीर और मस्तिष्क को क्रियाशील बनाकर ही उसको किसी बात को सही ढंग से सिखाया जा सकता है। फ्रोबेल का विचार है कि अपनी प्रेरणाओं एवं भावनाओं को पूरा करने के लिए बालक स्वयं अपने मन से सक्रिय होकर कार्य करें। स्वक्रिया के सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करते हुए फ्रोबेल महोदय लिखते हैं, पेड़ का बीज अपने सम्पूर्ण पेड़ का रूप धारण किए रहता है। प्रत्येक वस्तु का भावी विकास और रूप उत्पत्ति के समय ही उनमें होता है। अतः फ्रोबेल का कथन है कि बालक क्रिया के द्वारा ही कार्य को सीखता है”।
(2) प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)- व्यक्ति की वह आन्तरिक शक्ति, जो उसमें ऐसी क्रियाशीलता उत्पन्न करती है जो लक्ष्य की प्राप्ति तक चलती रहती है, प्रेरणा कहलाती है। प्रेरित हो जाने पर बालक स्वंय क्रियाशील हो जाता है। बालक को प्रेरित करने के लिए शिक्षक को बालक की जन्मजात प्रवृत्तियों (Innate tendencies) से लाभ उठाना चाहिए। यह एक प्रवृत्ति जिज्ञासा है। अतः अध्यापक को बालक के समक्ष पाठ्यवस्तु इस प्रकार प्रस्तुत करनी चाहिए कि उसमें उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो। किसी वस्तु के निर्माण की प्रक्रिया पढ़ाने के लिए बालक को कारखाने में ले जाकर निर्माण की प्रक्रिया दिखाकर प्रेरित किया जा सकता है।
(3) अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience)- जीवन एक अनुभव है। अतः बालक को सिखाई जाने वाली बात का सम्बन्ध उसके जीवन के अनुभवों से होना चाहिए। हम प्रति दिन एवं प्रति क्षण अनुभव प्राप्त करते रहते हैं परन्तु इन अनुभवों में से वे ही स्थायी हो पाते हैं, जिनका सम्बन्ध पिछले अनुभवों से होता है। अतः बालक के अनुभवों का उसके पुराने अनुभवों से सम्बन्ध स्थापित किया जाना आवश्यक है। ऐसा करने से बालक नये ज्ञान या अनुभव को सरलता और सुगमता से सीखकर उसको अपने जीवन का स्थायी अंग बना लेता है। रायबर्न बफोर्ज ने कहा है कि “प्रत्येक पाठ का आरम्भ उस बात से होना चाहिए जिसका अनुभव बालक कर चुके हैं।”
(4) सोद्देश्यता का सिद्धान्त (Principle of Purposeness) – जिस प्रकार प्रत्येक कार्य का कोई न कोई उद्देश्य होता है, उसी प्रकार प्रत्येक पाठ का भी उद्देश्य निश्चित होना चाहिए। यदि शिक्षक को पाठ के उद्देश्य की जानकारी नहीं है तो उसे अपने कार्य में सफलता नहीं मिलती है। उद्देश्यों का पहले से ज्ञान होने से ही शिक्षण स्पष्ट, रोचक एवं प्रभावशाली बनता है। छात्रों को भी पाठ्य विषय के उद्देश्यों की जानकारी होनी चाहिए, इससे वे पढ़ने में रूचि लेंगे और शिक्षण सफल होगा।
(5) मानसिक तैयारी का सिद्धान्त (Principle of Mental Preparation)- जब तक बालक किसी भी कार्य को करने या सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होगा तब तक वह उस कार्य को करने में असफल होगा, अनेक गलतियाँ करेगा या उसे पूर्ण करने में बहुत अधिक समय लेगा। अर्थात् जिस कार्य को सीखने के प्रति बालक की जैसी मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में वह उसे सीखता है। यही कारण है कि एक उत्तम शिक्षक विभिन्न प्रकार से प्रेरणा देकर बालकों को नवीन ज्ञान को ग्रहण करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है। इससे शिक्षक को शिक्षण में सफलता प्राप्त होती है।
(6) चुनाव का सिद्धान्त (Principle of Selection)- शिक्षक एक कालांश में बहुत अधिक ज्ञान नहीं दे सकते हैं। अतः शिक्षक को अपने विषय और पाठ्यवस्तु को कई भागों में विभक्त कर लेना चाहिए। इसके उपरान्त उसे यह चयन करना चाहिए कि किस स्तर के बालक को एक कालांश में वह क्या और कितना पढ़ाए, जिससे उसका शिक्षण सफल हो सके। चयन कार्य का महत्व बताते हुए रायबर्न ने लिखा है कि “चयन का सिद्धान्त अति महत्वपूर्ण है और शिक्षक की अच्छे चयन की योग्यता पर उसके कार्य की सफलता बहुत कुछ निर्भर करती है। “
(7) रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest)- अपनी रूचि के कार्य को बालक अधिक मन लगाकर करता है। शिक्षण को उपयोगी और प्रभावशाली बनाने के लिए पाठ्य विषय में बालक की रुचि उत्पन्न करना अति आवश्यक है। स्वक्रिया का सिद्धान्त, प्रेरणा का सिद्धान्त, अनुभव का सिद्धान्त आदि का अनुसरण करके छात्रों में विषय व पाठ्य-वस्तु के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है। छात्र द्वारा रुचि न लिए जाने की स्थिति में सफल शिक्षण सम्भव नहीं है।
(8) पूर्व-नियोजन का सिद्धान्त (Principle of Pre-Planning)- शिक्षण की सफलता का आधार नियोजन है। शिक्षक को किसी भी पाठ को पढ़ाने से पूर्व छात्रों की आयु, स्तर, क्या पढ़ाना है, किस विधि का प्रयोग करना है, किस शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग करना है और सम्भावित समस्याओं को किस प्रकार हल करना है आदि सभी बिन्दुओं को निश्चित कर लेना चाहिए। जिससे उसके शिक्षण की सफलता की सम्भावना में वृद्धि होती है। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि पाठ योजना शिक्षक की स्वामिनी न होकर उसकी सेविका है। शिक्षक शिक्षण के समय किसी भी पाठ योजना में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर सकता है। अतः उसकी योजना लचीली होनी चाहिए।
(9) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Freedom)- शिक्षक को कक्षा का वातावरण लोकतन्त्रीय रखना चाहिए, दमनकारी नहीं, उसे छात्रों का मित्र एवं मार्गदर्शक होना चाहिए। लोकतान्त्रिक वातावरण में बालक खुशी से स्वतन्त्रता का अनुभव करते हुए कार्यों को अधिक सफलता के साथ पूर्ण करते हैं। मांटेसरी ने बालक की शिक्षा में स्वतन्त्रता को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया है उन्होंने कहा है कि “अनुशासन स्वतन्त्रता द्वारा आना चाहिए तथा यदि बालक को वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करना है तो विद्यालय को उसके स्वतन्त्र व स्वाभाविक रूप से प्रकट होना चाहिए।”
(10) व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Difference)- एक कक्षा में सभी बालक नहीं मिलते हैं जिनके सभी कार्यों, चारित्रिक गुणों एवं बुद्धि स्तर आदि में एकरूपता हो। अतः शिक्षक को शिक्षण करते समय बालकों की विभिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए। उसे प्रतिभाशाली छात्रों के साथ-साथ औसत एवं मन्दबुद्धि छात्रों का भी ध्यान रखना चाहिए। जिससे कक्षा के सभी छात्र अधिगम करने में समर्थ हो सकें और शिक्षण प्रभावशाली बन सकें।
(11) दोहराने का सिद्धान्त (Principle of Revision)- शिक्षक को छात्रों को पाठ के जरूरी भाग को दोहराने का अभ्यास कराना चाहिए। आवृत्ति के द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है। कठिन पाठ को अधिक बार अभ्यास कराना चाहिए एवं सरल पाठ को कम बार अभ्यास करके भी अच्छी प्रकार समझा जा सकता है। यह निर्णय शिक्षक पर निर्भर करता है कि पाठ विशेष को किस छात्र को कितनी बार अभ्यास करना है। प्रत्येक पाठ हर बालक के लिए कठिन नहीं हो सकता या आसान नहीं हो सकता है। यह बालक की व्यक्तिगत विभिन्नता पर निर्भर करता है।
(12) सहसम्बन्धता का सिद्धान्त (Principle of Correlation) – किसी भी विषय का शिक्षण करते समय उसका सम्बन्ध अन्य विषयों के साथ भी स्पष्ट करना चाहिए। जैसे कला, विज्ञान एवं समाज विज्ञान आदि से सम्बन्ध। इसी प्रकार प्रकरण का सम्बन्ध अन्य प्रकरण व पाठ से भी स्पष्ट करना चाहिए।
उपरोक्त वर्णित सभी शिक्षण सिद्धान्त शिक्षक के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इनके अभाव में शिक्षक अपने शिक्षण को उपयोगी, रूचिकर एवं प्रभावपूर्ण नहीं बना सकता है। जब तक छात्र सीखने के लिए तत्पर नहीं होंगे तब तक कोई भी शिक्षक शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सफल नही हो सकता है। सफल शिक्षक बनने के लिए इन सभी शिक्षण सिद्धान्तों का प्रयोग शिक्षक द्वारा अपने शिक्षण कार्य में किया जाना चाहिए।
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