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समाजीकरण की विशेषताएँ | समाजीकरण की प्रक्रिया

समाजीकरण की विशेषताएँ
समाजीकरण की विशेषताएँ

समाजीकरण की विशेषताएँ  (Characteristics of socialization)

समाजीकरण में निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं-

(i) समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है।

(ii) समाजीकरण जन्म से मृत्यु तक चलने वाली एक सतत् प्रक्रिया है।

(iii) समाजीकरण द्वारा सामाजिक परिवेश से अनुकूलन तथा व्यक्तित्व को विकसित करने की क्षमता प्रदान की जाती है।

(iv) समाजीकरण संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया है।

(v) समाजीकरण समाज की प्रकार्यात्मक सदस्य बनने की प्रक्रिया है।

(vi) समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति के आत्म का विकास होता है।

(vii) समाजीकरण द्वारा ही समूह अथवा समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाता है।

समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialization)

समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसकी सहायता से व्यक्ति जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनता है अर्थात् सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों की जानकारी हो जाना ही समाजीकरण है। इसके द्वारा व्यक्ति समाज की संस्कृति को सीखता है। समाजीकरण की प्रक्रिया बचपन से ही आरम्भ हो जाती है। जॉनसन ने इसकी प्रक्रिया को चार भागों में बाँटा है-

(1) मौखिक अवस्था (Oral stage)

(2) गुदा अवस्था ( Anal stage)

(3) अन्तर्निहित अवस्था (Latency stage)

(4) किशोरावस्था (Alolescence)

गिलिन एवं गिलिन ने भी इसे तीन स्तरों में विभाजित किया है- (i) बाल्यावस्था (Infant stage) (ii) युवावस्था (youth stage) (iii) प्रौढावस्था (The adult)

इस तरह समाजीकरण मुख्य रूप से चार चरणों में सम्पन्न हो जाता है-

1. मौखिक स्तर (The Oral Stage)- यह अवस्था जन्म से लेकर एक-डेढ़ वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में बच्चे अपनी संवेदनाओं को परेशानियों को रोकर, चिल्लाकर, हँसकर, मुस्कुराकर अर्थात् मुख के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं, क्योंकि इस अवस्था में भाषा का अभाव पाया जाता है। इस अवस्था में बच्चे सिर्फ अपनी माँ के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। माँ की गोद ही उनके लिए सभी सुख की अनुभूति होती है। इस अवस्था में बच्चे स्वयं को माँ से अलग नहीं कर पाते हैं, इसलिए जॉनसन का मानना है कि “Mother and infant are merged.” अर्थात् माँ एवं बच्चे एक-दूसरे में समा जाते हैं। फ्रायड ने इस स्थिति को ‘प्राथमिक परिचय’ (Primary Indentification) कहा है।

2. गुदा स्तर (The Anal Stage) – द्वितीय स्तर में बच्चों की उम्र एक साल से तीन साल तक चलती है। यह प्रथम अवस्था का विकसित रूप है। इस अवस्था में माँ बच्चों को शौच प्रशिक्षण देने का प्रयास करती है और इस तरह उसे आत्म-निर्भर बनाने की कोशिश की जाती है। इस अवस्था में बोलना, चलना, सफाई आदि आदतों की जानकारी दी जाती है । इस अवस्था में बच्चे परिवार के दूसरे सदस्यों के सम्पर्क में भी आते हैं और क्रोध, प्रेम, स्नेह, विरोध आदि भाव को भी समझने लगते हैं। बच्चे अपने एवं माँ के सम्बन्ध को समझने लगते हैं। माँ के अतिरिक्त दूसरे सम्बन्ध भी उन्हें समझ में आने लगते हैं। बच्चे इस अवस्था में प्यार लेना एवं प्यार देना भी सीख जाते हैं। इसलिए फिचर ने कहा है, “समाजीकरण एक व्यक्ति तथा उसके अन्य साथी व्यक्तियों के बीच पारस्परिक प्रभाव की एक प्रक्रिया है, यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति सामाजिक व्यवहार के प्रतिमानों को स्वीकार करता है।”

(3) मातृरति या अन्तर्हित अवस्था (The Oedipal Stage) – यह अवस्था चौथे वर्ष से प्रारम्भ होकर बारह-तेरह वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में बच्चा अपने परिवार के सदस्यों की भूमिका समझने लगता है और उसी के अनुरूप व्यवहार भी करने लगता है। इस उम्र के बच्चे अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करना सीख जाते हैं, लेकिन ये पूर्णरूपेण यौन-व्यवहार से परिचित नहीं होते। अतः इस उम्र में लड़कियों का लगाव पिता से एवं लड़कों का लगाव माता से देखा जाता है। इस उम्र के बच्चों में विपरीत लिंग आकर्षण भी देखा जाता है। इस उम्र में बच्चे स्कूल भी जाने लगते हैं तथा उन्हें विभिन्न सामाजिक गुणों को सीखने का भी अवसर प्राप्त होता है।

(4) किशोरावस्था (Adolesence) – इन अवस्था का आरम्भ 14-15 वर्ष से लेकर 20-21 वर्ष तक चलता है। इस अवस्था के बच्चों में स्वतन्त्रता की चाहत प्रबल होती है। वे अपने माँ-बाप की बन्दिशों से मुक्त होना चाहते हैं। यह उम्र महाविद्यालय में जाने की होती है। इन समय शारीरिक परिवर्तन भी देखे जाते हैं जो उनकी मानसिक स्थिति को उद्वेलित कर देते हैं । यह अवस्था बचपन से जवानी की अवस्था तक मानी जाती है। यह समाजीकरण की वह अवस्था है, जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यक्तिगत अनुभवों के द्वारा आत्म-नियन्त्रण की भावना को बल मिलता है। उपर्युक्त चार अवस्थाओं के बाद भी समाजीकरण की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहती है, लेकिन इन चारों अवस्थाओं के बाद इसकी तीव्रता में कमी आ जाती हैं। किशोरावस्था के बाद वह जीवन की अन्य भूमिकाएँ ग्रहण करता है, जैसे- पति-पत्नी, माता-पिता, चाचा, काका-काकी इत्यादि तथा इनके अनुरूप ही प्रचलित व्यवहार प्रतिमानों को स्वीकार करता है। अतः किशोरावस्था के बाद समाजीकरण की प्रक्रिया स्वत: चालित होती है। इन चारों अवस्थाओं में व्यक्ति समाजीकृत होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि कोई भी बच्चा समाज के अनुरूप कैसे व्यवहार करने लगता है। समाज के आदर्शों, मूल्यों, विश्वास, प्रेरणा, मनोवृत्ति आदि को कैसे सीखता है? ये सारे गुण व्यक्ति में जन्मजात नहीं होते बल्कि उसे अर्जित करने पड़ते हैं।

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