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बालक के सामाजिक विकास में परिवार की भूमिका

बालक के सामाजिक विकास में परिवार की भूमिका
बालक के सामाजिक विकास में परिवार की भूमिका

बालक के सामाजिक विकास में परिवार की भूमिका

बालक के सामाजिक विकास में परिवार की भूमिका- बालक का सामाजिक विकास परिवार से ही प्रारम्भ होता है। बालक सबसे पहले अपने माता-पिता और परिवार के लोगों के सम्पर्क में आता है। परिवार को बालक के सामाजिक विकास की सर्वोत्तम संस्था माना जाता है। बालक के सामाजिक विकास पर परिवार के प्रभाव को निम्नवत् समझा जा सकता है-

(i) जिन परिवार के सदस्यों में आपसी प्रेमभाव और मधुर सम्बन्ध होते हैं, उन परिवारों के बच्चे दूसरों के साथ घुल-मिलकर मित्रवत् रहना सीखते हैं।

(ii) परिवार अपने बालकों की अवांछित माँगों एवं असामाजिक व्यवहारों को नियंत्रित करने का कार्य करता है।

(iii) परिवारों में होली, दीपावली, ईद, क्रिसमस जैसे त्योहार मनाये जाते हैं। इससे बालकों को अपने रीति-रिवाजों, सामाजिक आचार-विचारों और मूल्यों का ज्ञान होता है।

(iv) पारिवारिक परिस्थितियों को देखकर ही बच्चों की मनःस्थिति विनिर्मित होती है। जन्म देने वाले माता-पिता जितना सुसभ्य और सुसंस्कृत होते हैं, संतान भी उसी साये में ढलती चली जाती है।

(v) परिवार के द्वारा ही बालक शिष्टाचार, सदाचार की शिक्षा ग्रहण करता है। परिवार बालक को सिखाता है कि वह शिष्ट व्यवहार करे, मीठी वाणी बोले, बड़ों का सम्मान करे, उनका उचित अभिवादन करे।

(vi) संस्कारों की प्रथम पाठशाला घर-परिवार होता है, जिसके प्रथम शिक्षक माता-पिता होते हैं। इनमें भी माता का क्रम पहला होता है। संस्कार बालक की चेतना का आभास कराते हैं, जिसके आधार पर बालक का आचरण परिष्कृत होता है।

(vii) प्रतिदिन के अतिथि तथा मित्रादि के सत्कार रूपी लोक व्यवहार को बालक परिवार से ही सीखता है।

(viii) बालक दिन-प्रतिदिन यह देखता है कि परिवार में माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य सदस्य किस प्रकार परिवार के कार्यों में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं, एक-दूसरे के प्रति स्नेह रखते हैं, परिवार को एक सदस्य बीमार हो जाता है तो अन्य लोग किस तरह सेवा करते हैं। बालक इन समस्त गुणों का धारण करता है। इससे सामाजिक समायोजन में सफल होता है।

(ix) बालक बाहरी दुनिया में कैसे समायोजन करे, इसकी तैयारी परिवार से ही आरम्भ होती है।

(x) अवकाश काल का सदुपयोग करना बालक परिवार के द्वारा ही सीखते हैं। बच्चों को व्यस्त रखने के लिए माता-पिता बालकों को ऐसे अवसर उपलब्ध कराते हैं कि बालक समूह में खेल सकें, घूम-फिर सकें या अन्य प्रकार से गुणात्मक समय व्यतीत कर सकें। इससे बालकों का सामाजिक विकास समृद्ध होता है।

(xi) अक्सर माता-पिता के साथ बच्चे छुट्टियों में नाना-नानी, दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों के घर जाते हैं। इससे वे संयुक्त रूप से रहने की कला सीखते हैं।

(xii) बालक जब खराब मानसिक स्थिति में होता है तो परिवार की देखभाल और स्नेह से ही उसे सहारा मिलता है।

(xiii) माता-पिता बच्चों को ऐसे साहित्य, पुस्तकें आदि उपलब्ध कराते हैं, जिससे बालक समाज के बारे में बहुत कुछ सीखते हैं।

उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट होता है कि बालक सामाजिकता का पहला पाठ अपने माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों का अनुकरण करके सीखता है। परिवार में भाई-बहनों की संख्या, परिवार के सदस्यों के आपासी सम्बन्ध, परिवार की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, पारिवारिक मूल्य, परम्परायें और मान्यतायें आदि सभी बातें बच्चों के विकास को प्रभावित करती हैं।

विचारणीय बातें (Considerations)- यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि यदि बालक को परिवार में स्वस्थ और सामाजिक वातावरण मिलता है तो बालक का सामाजिक विकास उन्नत और सकारात्मक होता है। परंतु जिन परिवारों में सम्बन्धों में कटुता और वैमनस्य पाया जाता है, माता-पिता या अन्य बड़े लोगों में सामाजिक कुसंस्कार और बुराइयाँ व्याप्त होती हैं, वहाँ बच्चों का अवांछित सामाजिक विकास होता है। अतः निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

(i) मनोवैज्ञानिकों ने इस बात से सहमति जतायी है कि जिन माता-पिता द्वारा बालकों के प्रति हार्दिकता नहीं दिखाई जाती, उनके बालक समाज-विरोधी व्यवहार अपना लेते हैं। अतः बालक को परिवार से प्रेम, सहानुभूति, अपनापन और समुचित देखभाल सेवायें मिलनी चाहिए।

(ii) परिवार का वातावरण स्वस्थ परम्पराओं से निर्मित किया जाना चाहिए ताकि बालक उन्हें अपने जीवन में अपना सकें।

(iii) परिवार के सदस्यों में आपसी मतभेद होते हुए भी बच्चों के समक्ष इस मतभेद को उजागर न करें, बल्कि समन्वय स्थापित करने का प्रयास करें।

(iv) अध्यापकों से समय-समय पर माता-पिता को मिलना चाहिए, ताकि उन्हें विद्यालय में बालक के व्यवहार, मित्रों के समूह आदि की जानकारी मिल सके।

(v) माता-पिता बालकों को संस्कृति और मूल्यों के विषय में उपदेश न दें, बल्कि अपने व्यवहार और कृत्यों से संस्कृति और मूल्यों का प्रदर्शन करें।

(vi) माता-पिता को बालकों के प्रति रूखी, चिड़चिड़ी, अलगाव और आक्रामक, अभिवृत्ति नहीं रखनी चाहिए।

(vii) माता-पिता को बालकों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। बालकों में ऐसी क्षमता विकसित करनी चाहिए कि वे दबावों व तनावों को झेल सकें।

(viii) माता-पिता का यह उत्तरदायित्व है कि बालकों को अपने समाज और संस्कृति की विरासत और मूल्यों से परिचित होने और उनके प्रति सम्मानजनक भाव रखने तथा अपने आपको उनके अनुकूल ढालने में उचित सहायता करें।

(ix) वातावरणजन्य सुविधायें प्रदान करना परिवार का कर्त्तव्य है।

(x) माता-पिता को अपने बालकों के व्यवहार में समस्या दिखाई पड़े तो सुधार के लिए विशेष प्रयास करने चाहिए तथा विशेषज्ञों की सलाह लेने में भी संकोच नहीं करना चाहिए।

(xi) बच्चों को आवश्यकता से अधिक नियंत्रण या आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार करना हानिकारक होता है।

(xii) परिवार के बड़े सदस्यों को परिवार के सभी बच्चों से पक्षपातरहित व्यवहार करना चाहिए।

(xiii) बच्चों के मनोरंजन की स्वस्थ व्यवस्था करनी चाहिए ताकि स्वस्थ मनोरंजन के अभाव में बालक कुसंगति में न पड़े।

(xiv) बालक को स्वयं प्रयोग करने, गलतियाँ करने और फिर सुधरने और सीखने का अवसर देना चाहिए।

(xv) अच्छा व्यवहार या अनुक्रिया करने पर बच्चों की प्रशंसा करनी चाहिए।

(xvi) बाहर वालों या अन्य बालकों के सामने किसी बात पर अपने बच्चे को डाँटने-मारने के बजाय एकांत में उसको समझाना चाहिए।

(xvii) समाज में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों (दुर्गा पूजा, दीपावली, समाज-सेवा कार्य आदि) में बच्चों को प्रतिभागिता के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

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