गृहविज्ञान

गृह विज्ञान में शोध के प्रकार | अनुसंधान के विविध प्रकार

गृह विज्ञान में शोध के प्रकार
गृह विज्ञान में शोध के प्रकार

गृह विज्ञान में शोध के प्रकार अथवा  अनुसंधान के विविध प्रकार

शोध के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित है-

(1) विशुद्ध शोध- विशुद्ध अनुसन्धान (शोध) व्यावहारिक उपयोगिता को दृष्टि में रखकर नहीं किया जाता है। किसी समस्या के कारण को ढूँढ़ निकालना और उसका हल प्रस्तुत करना भी विशुद्ध शोध के अन्तर्गत नहीं आता है। विशुद्ध शोध तो ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ (Knowledge for Knowledge sake) के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ता है। जब किसी घटना की खोज-ज्ञान प्राप्ति हेतु की जाय और वह भी वैज्ञानिक तटस्थता या वस्तुनिष्ठता बनाये रखकर तो उसे विशुद्ध, मौलिक या आधारभूत शोध कहते हैं। इस प्रकार के शोध कार्य में नीति-निर्माण या उपयोगिता का दृष्टिकोण सम्मिलित नहीं होता है। विशुद्ध शोध का लक्ष्य किसी समस्या को हल करना या किन्ही आवश्यकताओं की पूर्ति करना नहीं है बल्कि ज्ञान की प्राप्ति, मौजूदा ज्ञान भण्डार में वृद्धि और पुराने ज्ञान का शुद्धिकरण है। सत्य की खोज, रहस्यों को जानने की इच्छा, सामाजिक घटनाओं को समझने की लालसा ही शोध-कर्ता के प्रमुख लक्ष्य होते हैं, इसी दृष्टि से वह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। ज्ञान की प्राप्ति तथा मौजूदा ज्ञान के परिमार्जन एवं परिवर्द्धन के लिए वैज्ञानिक प्रविधियों को काम में लेते हुए जो शोध कार्य किया जाता है, उसे ही विशुद्ध या मौलिक शोध कहते हैं। इस प्रकार के शोध कार्य द्वारा सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में मौलिक सिद्धान्तों एवं नियमों की खोज की जाती है।

विशुद्ध सामाजिक शोध का उद्देश्य सामाजिक घटनाओं में कार्य-कारण सम्बन्धों का पता लगाना होता है। साथ ही इस प्रकार के शोध कार्य द्वारा घटनाओं में निहित या घटनाओं को संचालित करने वाले नियमों का पता लगाया जाता है। प्रत्येक घटना चाहे वह प्राकृतिक हो या सामाजिक, कुछ निश्चित नियमों के अनुसार ही घटित होती है। इन नियमों को खोज निकालना विशुद्ध शोध का प्रमुख लक्ष्य है। प्राकृतिक घटनाओं को संचालित करने वाले अनेक नियमों का पता प्राकृतिक वैज्ञानिकों द्वारा विशुद्ध शोध के माध्यम से ही लगाया जाता है। समाजशास्त्र भी सामाजिक घटनाओं के पीछे छिपे नियमों को खोज निकालने की दिशा में प्रयत्नशील है। इन नियमों की खोज के लिए विशुद्ध शोध का सहारा लेना आवश्यक है।

(2) व्यावहारिक शोध- फ्रेस्टिंगर तथा काज ने बताया है कि जब उपयोगितावादी दृष्टिकोण को लेकर उद्योग या प्रशासन के लिए तथ्यों का संकलन किया जाता है एवं नीति- निर्माताओं को इसकी आवश्यकता होती है तो इसे व्यावहारिक शोध के नाम से जाना जाता है। होर्टन तथा इण्ट ने बताया है कि जब किसी ऐसे ज्ञान की खोज के लिए वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method) का प्रयोग किया जाता है जिसकी व्यावहारिक समस्याओं को हल करने में उपयोगिता है, तो इसे व्यावहारिक शोध कहा जाता है। ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष पर जोर देते हुए श्रीमती पी०वी० यंग ने लिखा है, ‘ज्ञान की खोज का लोगों की आवश्यकताओं एवं कल्याण के साथ एक निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है। वैज्ञानिक यह मानकर चलता है कि समस्त ज्ञान मूलतः उपयोगी है, चाहे उसका उपयोग निष्कर्ष निकालने में या किसी क्रिया अथवा व्यवहार को कार्यान्वित करने में, एक सिद्धान्त के निर्माण में या एक कला को व्यवहार में लाने में किया जाय। सिद्धान्त तथा व्यवहार अक्सर आगे चलकर एक-दूसरे में मिल जाते हैं।’ श्रीमती यंग के इस कथन से व्यावहारिक शोध की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।

व्यावहारिक शोध का सम्बन्ध सामाजिक जीवन के व्यावहारिक पक्ष से है। इसका प्रयोग केवल सामाजिक समस्याओं को यथार्थ रूप में समझने के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि सामाजिक नियोजन, समाज कल्याण, स्वास्थ्य-रक्षा, समाज-सुधार, धर्म, शिक्षा, सामाजिक अधिनियम, मनोरंजन आदि के सम्बन्ध में यथार्थ जानकारी प्राप्त करने के लिए भी किया जाता है। वर्तमान में तो उद्योग, व्यापार, प्रशासन, साम्प्रदायिक, प्रजातीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय तनाव तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की समस्या, आदि क्षेत्रों में व्यावहारिक शोध को उपयोगी माना जाता है।

(3) क्रियात्मक शोध- क्रियात्मक शोध को व्यावहारिक शोध का ही एक प्रकार माना जा सकता है क्योंकि इसका सम्बन्ध भी शोध द्वारा प्राप्त ज्ञान के व्यावहारिक उपयोग से है। सर्वप्रथम क्रियात्मक शोध का प्रारम्भ अमेरिका में हुआ। प्रो० कोलियर, लेविन तथा स्टेफन एम० कोरी ने क्रियात्मक शोध नामक अवधारणा को मूर्त रूप देने का प्रयास किया । इन लोगों की मान्यता है कि क्रियात्मक शोध के माध्यम से सामाजिक सम्बन्धों को ज्यादा अच्छा बनाया जा सकता है।

क्रियात्मक शोध के अर्थ को स्पष्ट करने की दृष्टि से गुडे एवं हाट ने लिखा है, क्रियात्मक शोध उस कार्यक्रम का एक भाग है जिसका कि लक्ष्य मौजूदा दशाओं को परिवर्तित करना होता है, चाहे वह गन्दी बस्ती की दशाएं हों या प्रजातीय तनाव तथा पूर्वाग्रह (Recial Tension and Prejudice) हों, या किसी संगठन की प्रभावशीलता हो।’

मैकग्रेथ एवं सहयोगियों ने बताया है कि क्रियात्मक शोध एक संगठित व खोजपूर्ण क्रिया है जिसका लक्ष्य व्यक्तियों या समूह से सम्बन्धित परिवर्तन एवं सुधार लाने हेतु उनका अध्ययन करना और साथ ही मौलिक परिवर्तन लाना है।

विद्वानों के उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि क्रियात्मक शोध में किसी सामाजिक समस्या या घटना के क्रियात्मक पक्ष पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है तथा शोध के निष्कर्षों का उपयोग किन्हीं सामाजिक अवस्थाओं में परिवर्तन लाने की योजना के एक भाग के रूप में किया जाता है। जब शोध अध्ययन के निष्कर्षों को किसी तात्कालिक या भविष्य की किसी योजना के अन्तर्गत मूर्त रूप देना हो तो उसे क्रियात्मक शोध नाम दिया जाता है। यदि शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की दृष्टि से कोई शोध कार्य हाथ में लिया जाय और उसके आधार पर प्राप्त निष्कर्षो को लागू करने पर जोर दिया जाय तो उसे क्रियात्मक शोध कहा जायेगा। इसी प्रकार से बाल अपराधियों को सुधारने एवं गन्दी बस्तियों की सफाई, आदि से सम्बन्धित कार्यक्रम भी क्रियात्मक शोध के अन्तर्गत आते हैं।

(4) मूल्यांकनात्मक शोध- आज अधिकांश देश नियोजित परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वे कल्याणकारी राज्य के रूप में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। जो देश अपने लोगों की खुशहाली के लिए विकास कार्यक्रमों पर अरबों-खरबों रुपया खर्च करता है, वह यह भी ज्ञात करना चाहता है कि आखिर उन कार्यक्रमों का उन लोगों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है जिनके लिए वे बनाये गये हैं। आज गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य, आवास, परिवार नियोजन, अपराध, बाल अपराध, समन्वित ग्रामीण विकास, आदि के क्षेत्र में अनेक शोध कार्य इस उद्देश्य से चलाये जा रहे हैं कि इन कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का पता लगाया जा सके, यह ज्ञात किया जा सके कि लक्ष्यों एवं परिणामों में कहां तक साम्यता है, कहां तक इच्छित लक्ष्यों के अनुरूप आगे बढ़ा जा सका है। इस प्रकार के शोध कार्यों द्वारा किसी कार्यक्रम, किसी विकास योजना की सफलता असफलता का मूल्यांकन किया जाता है। उदाहरण के रूप में, डॉ० एस०सी० दुबे ने शमीरपेट नाम गाँव के अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि वहां सामुदायिक विकास कार्यक्रम इच्छित मात्रा में जन सहयोग प्राप्त नहीं कर सका है। कार्यक्रम में मानवीय कारकों की उपेक्षा की गयी है और इसी के फलस्वरूप ग्रामीण लोगों ने उनके विकास हेतु प्रारम्भ की गई उत्तम से उत्तम योजनाओं को भी अस्वीकार कर दिया है। यह मूल्यांकनात्मक शोध का एक उदाहरण है। सन् 1960 से इस प्रकार के शोध की ओर भारत का झुकाव बढ़ा है।

5. अन्वेषणात्मक अथवा निरूपणात्मक शोध- जब शोधकर्ता किसी सामाजिक घटना के पीछे छिपे कारणों को ढूँढ़ निकालना चाहता है ताकि किसी समस्या के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष के सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो सके, तब अध्ययन के लिए जिस शोध का सहारा लिया जाता है, उसे अन्वेषणात्मक या निरूपणात्मक शोध कहते हैं। इस प्रकार की शोध का उद्देश्य किसी समस्या के सम्बन्ध में प्राथमिक जानकारी प्राप्त करके प्राक्कल्पना (Hypothesis) का निर्माण और अध्ययन की रूपरेखा तैयार करना है। हंसराज नामक विद्वान ने बताया है, ‘अन्वेषणात्मक शोध किसी भी विशेष अध्ययन के लिए प्राक्कल्पना का निर्माण करने तथा उससे सम्बन्धित अनुभव प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है।’ इस प्रकार के शोध द्वारा विषय अथवा समस्या का कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात हो जाता है। परिणामस्वरूप घटनाओं में व्याप्त नियमितता एवं श्रृंखलाबद्धता को स्पष्टतः समझा जा सकता है। इस प्रकार के शोध के माध्यम से शोध- विषय की उपयुक्तता का पता भी लगाया जाता है। उदाहरण के रूप में, यदि हम यह जानना चाहते हैं कि किशोरों एवं युवकों में विचलित व्यवहार या अपराधी व्यवहार के लिए कौन-कौन से कारण उत्तरदायी हैं तो इसके लिए हमें अन्वेषणात्मक शोध का सहारा ही लेना पड़ेगा।

6. वर्णनात्मक शोध- वर्णनात्मक शोध एक ऐसी शोध है जिसका उद्देश्य विषय या समस्या के सम्बन्ध में यथार्थ या वास्तविक तथ्यों को एकत्रित कर उनके आधार पर एक विवरण प्रस्तुत करना है। सामाजिक जीवन से सम्बन्धित कई पक्ष ऐसे होते हैं जिनके सम्बन्ध में भूतकाल में कोई गहन अध्ययन नहीं किये गये। ऐसी दशा में यह आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक जीवन से सम्बद्ध विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जाय, वास्तविक तथ्य या सूचनाएं एकत्रित की जाये और उन्हें जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया जाय। यहाँ मुख्य जोर इस बात पर दिया जाता है कि विषय से सम्बन्धित एकत्रित किये गये तथ्य वास्तविक एवं विश्वनीय हों अन्यथा जो वर्णनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जायेगा, वह वैज्ञानिक होने के बजाय दार्शनिक ही होगा। यदि हमें किसी जाति, समूह, या समुदाय के सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है तो हमारे लिए आवश्यक है कि किसी वैज्ञानिक प्रविधि को काम में लेते हुए वास्तविक तथ्य एकत्रित किये जायें। तथ्यों को प्राप्त करने हेतु अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची, प्रश्नावली अथवा किसी अन्य प्रविधि का प्रयोग किया जा सकता है। इन प्रविधियों के प्रयोग का उद्देश्य यही है कि यथार्थ सूचनाएँ एकत्रित की जायें। ऐसे शोध में घटनाओं को यथार्थ रूप में चित्रित करने पर विशेष बल दिया जाता है।

7. विशुद्ध शोध- विशुद्ध अनुसन्धान (शोध) व्यावहारिक उपयोगिता को दृष्टि में रखकर नहीं किया जाता। किसी समस्या के कारणी को ढूंढ़ निकालना और उसका हल प्रस्तुत करना भी विशुद्ध शोध के अन्तर्गत नहीं आता है। विशुद्ध शोध तो ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ (Knowledge for Knowledge sake) के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ती है। जब किसी घटना की खोज ज्ञान-प्राप्ति हेतु की जाय और वह भी वैज्ञानिक तटस्थता या वस्तुनिष्ठता बनाये रखकर तो उसे विशुद्ध, मौलिक या आधारभूत शोध कहते हैं। इस प्रकार के शोध कार्य में नीति-निर्माण या उपयोगिता का दृष्टिकोण सम्मिलित नहीं होता है। विशुद्ध शोध का लक्ष्य किसी समस्या को हल करना या किन्ही आवश्यकताओं की पूर्ति करना नहीं है बल्कि ज्ञान का प्राप्ति, मौजूदा ज्ञान भण्डार में वृद्धि पुराने ज्ञान का शुद्धिकरण है। सत्य की खोज, रहस्यों को जानने की इच्छा, सामाजिक घटनाओं को समझने की लालसा ही शोध-कर्ता के प्रमुख लक्ष्य होते हैं, इसी दृष्टि से वह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। ज्ञान की प्राप्ति तथा मौजूदा ज्ञान के परिमार्जन एवं परिवर्द्धन के लिए वैज्ञानिक प्रविधियों को काम में लेते हुए जो शोध-कार्य किया जाता है, उसे ही विशुद्ध या मौलिक शोध कहते हैं। इस प्रकार के शोध-कार्य द्वारा सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में मौलिक सिद्धान्तों एवं नियमों की खोज की जाती है।

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