बंगाल की कांथा कढ़ाई कला
बंगाल की कांथा कढ़ाई कला- कांथा वास्तव में कोई नया वस्त्र नहीं होता बल्कि पुरानी साड़ियों, चादरों या अन्य वस्त्रों का कई तह में व्यवस्थित करके, विशेष प्रकार के टांकों से एक विशेष रूप दे दिया जाता है।
कांथा कढ़ाई के अन्तर्गत विभिन्न फटे-पुराने वस्त्र जो पहनने योग्य नहीं होते हैं उनको जोड़कर इन पर रनिंग स्टिच द्वारा गोल-गोल घुमाकर फूल, पशु-पक्षी, चन्द्रमा, सूरज, शंख आदि के नमूने बनाएँ जाते हैं। सर्वप्रथम किनारे की रेखाएँ अर्थात बोर्डर बनाने के पश्चात् मध्य भाग भरा जाता है। कांथा का उपयोग फर्श अथवा चौकी पर बिछाने के लिए होता है।
कांथा में सभी टाँके एक समान एवं समान दूरी पर लिए जाते हैं। टाँकों की सूक्ष्मता एवं सुन्दरता की वजह से ये वस्त्र कला के सुन्दर नमूने बन जाते हैं।
कांथा बंगाल की पारम्परिक कढ़ाई कला है। कांथा – कार्य मुख्यतः बंगाली महिलाओं द्वारा किया जाता है। कांथा कढ़ाई में टाँकों में साटिन, कच्चा टाँका तथा लूप टाँके का अधिक उपयोग किया जाता है। यदि यह कढ़ाई बहुत ही कुशलता से किया जाए तो वस्त्र का उल्टा व सीधी पक्ष पहचानना अत्यन्त कठिन हो जाता है। रंग संयोजन, सूक्ष्मता एवं बारीकी से कांथा वस्त्र अत्यन्त सौन्दर्यमय एवं आकर्षक लगता है।
कांथा के प्रकार
कढ़ाई के दृष्टिकोण से कांथा वस्त्र निम्न प्रकार के होते हैं।
(1) ओर कांथा- ओर कांथा तकिये के गिलाफ पर की जाने वाली कढ़ाई है। इसमें सम्पूर्ण वस्त्र पर फूल-पत्तियों, पक्षियों, पेड़-पौधों के नमूने बड़ी कुशलतापूर्वक चित्रित किये जाते हैं। गिलाफ के बोर्डर पर विभिन्न नमूने बनाए जाते हैं तथा मध्य भाग में फूल आदि का चित्रण किया जाता है।
(2) लैप कांथा – ओढ़ने और बिछाने के वस्त्रों के किनारों एवं समस्त वस्त्र को साधारण कच्चे टाँके अथवा डार्किन टाँके से सिलने को लैप कांथा कहा जाता है।
(3) रूमाल- रूमाल एक वर्गाकार प्रायः एक फुट का टुकड़ा होता है। रूमाल के आकर्षण पैदा करने के लिए बोर्डर में फूल-पत्तियों के तथा मध्य भाग में फूल के नमूने बने होते हैं।
(4) आरसीलता- इस वस्त्र के द्वारा आइना, कंधी या श्रंगार सामग्रियों को ढ़कने के लिए कवर बनाए जाते हैं। कवर के चारों ओर सुन्दर नमूने से बोर्डर बनाए जाते हैं। वस्त्र के मध्य में भी पेड़-पौधे, फूल-पत्तियाँ या कृष्ण लीला करते हुए नमूने बनाए जाते हैं।
(5) सुजनी- सुजनी 6 फीट लम्बी एवं 3-4 फीट चौड़ाई वाला चादर के समान वस्त्र – होता है। जिसे विशिष्ट उत्सवों के अवसरों पर बिछाया जाता है। कढ़ाई के लिए समस्त वस्त्र को अनेक भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग पर बोर्डर बनाए जाते हैं। प्रत्येक भाग कमल, पशु-पक्षियों, फल-फूलों एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित चित्रों का चित्रण किया जाता है। इन्हें साधारण कच्चे टाँकों से काढ़ा जाता है। यह अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक लगता है।
(6) दुर्जनी- यह वर्गाकार वस्त्र होता है, इस चौकोर वस्त्र के तीन कोणों को पकड़कर मध्य में लोकर सिल दिया जाता है। जिससे यह एक लिफाफे की तरह दिखाई देता है। इसमें लटकाने के लिए डोरी लगाई जाती है ताकि इसे टाँगा जा सकता है।
(7) बेटन – इसे पुस्तकें एवं अन्य आवश्यक सामग्री आदि लपेटने के काम में लाया जाता है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई लगभग 3 फुट होती है। वस्त्र के मध्य प्रायः कमल के फूल का नमूना बनाया जाता है। वस्त्र के शेष भाग पर पक्षियों, फूल-पत्तियों, पशुओं, देवी-देवताओं आदि के नमूने का भी चित्रण किया जाता है।
कांथा-कढ़ाई का प्रचलन आज भी है। बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में यह कार्य घर-घर में किया जाता है। इस हस्तकला को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा हस्तशिल्पयों को वित्तीय सहायता दी जाती है। तथा स्थान-स्थान पर विक्रय केन्द्र खोले गये हैं।
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