राजनीति विज्ञान / Political Science

कैबिनेट मिशन योजना के सुझाव | कैबिनेट मिशन योजना के गुण और अवगुण

कैबिनेट मिशन योजना के सुझाव
कैबिनेट मिशन योजना के सुझाव

कैबिनेट मिशन योजना के सुझाव

19 फरवरी, 1946 को लार्ड पैथिक लारेंस ने हाउस आफ लार्ज में घोषणा की कि मंत्रिमण्डल का शिष्ट मण्डल जिसमें यह स्वयं, सर स्टैफर्ड क्रिप्स और श्री ए. वी. एलेक्जण्डर होंगे, भारत जाएगा. ताकि वाईसराय की सहायता से भारतीय नेताओं से राजनैतिक मामलों पर बातचीत कर सके। इसी घोषणा पर वादविवाद में बोलते हुए प्रधानमंत्री एटली ने कहा कि हम अल्पसंख्यकों के अधिकारों से भली-भाँति जागरूक हैं और चाहते हैं कि अल्पसंख्यक बिना भय के रह सकें परन्तु हम यह भी स्वीकार नहीं करेंगे कि अल्पसंख्यक लोग बहुसंख्यक लोगों की उन्नति में आड़े आएं, ‘इन शब्दों का अर्थ भारत में स्पष्ट रूप से यह समझा गया कि अब अंग्रेजों की लीग के प्रति परम्परागत नीति में मूलभूत परिवर्तन आ गया था।

शिष्ट मण्डल 24 मार्च, 1946 को दिल्ली पहुँचा और भारत के भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों से लम्बी बातचीत हुई। चूँकि लीग और कांग्रेस में भारत की एकता अथवा बंटवारे के विषय में समझौता नहीं हो सका इसलिए शिष्टमण्डल ने अपनी ओर से संवैधानिक समस्या का हल प्रस्तुत किया। ये प्रस्ताव लार्ड वेवल और मंत्रीमण्डलीय शिष्टमण्डल ने एक संयुक्त वक्तव्य में 16 मई, 1946 को प्रकाशित किए।

लम्बे समय की योजना के रूप में उन्होंने पाकिस्तान की मांग को कई कारणों से अस्वीकार कर दिया। पहला यह कि पाकिस्तान बनने से उन अल्पसंख्यकों की समस्या जो मुसलमान नहीं हैं, वह हल नहीं होगी। ये लोग उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में समस्त जन संख्या का 37.93% होंगे और उत्तर- पूर्वी क्षेत्र में 48.3% होंगे। उनके अनुसार बंगाल, आसाम और पंजाब जैसे मुस्लिम बहुसंख्यक प्रान्तों को पाकिस्तान में सम्मिलित करने का कोई तर्क नहीं है। वास्तव में वे सभी तर्क जो पाकिस्तान बनाने के पक्ष में दिए जाते थे वही उसके विरुद्ध भी दिए जा सकते थे। पंजाब और बंगाल का बंटवारा करके एक छोटा सा पाकिस्तान बनाने का कोई लाभ नहीं होगा और यह सब इन प्रान्तों के वासियों की इच्छाओं के विरुद्ध होगा। दूसरे, भारत की संचार, और डाकतार व्यवस्था को बाँटने का कोई लाभ नहीं होगा। तीसरे, सेना को बाँटने से देश को बहुत हानि होगी और चौथे, रियासतों को एक अथवा दूसरे संघ में सम्मिलित होना बहुत कठिन होगा। पुनश्च, पाकिस्तान के दो भागों की एक दूसरे से 700 मील की दूरी, उसके हित में नहीं होगी और युद्ध तथा शांति की स्थिति में संचार व्यवस्था भारत के सद्भाव पर ही निर्भर होगी। वास्तव में ये सभी तर्क ठीक थे और देश के बंटवारे के विरुद्ध थे। अतएव शिष्ट मण्डल ने यह सुझाव दिया कि केन्द्र एक हो जो कुछ निश्चित विषयों पर नियंत्रण रखे। सम्भवतः उनके मन में 1876 में आस्ट्रिया-हंगरी में स्थापित द्वैध राजशाही और संघ का विचार था।

शिष्ट मण्डल ने सुझाया कि भारतीय संविधान इस प्रकार का होना चाहिए-

1. भारत में अंग्रेजी भारत और रियासतों का मिलाजुला एक संघ होना चाहिए जो विदेशी मामले, रक्षा और संचार साधनों की देखभाल करे और इनके लिए कर लगा सके।

2. इस संघ की कार्यकारिणी और विधानमण्डल में, ब्रिटिश भारत और रियासतों के प्रतिनिधि होने चाहिए। किसी महत्त्वपूर्ण साम्प्रदायिक पक्ष पर यह आवश्यक हो कि विधान मण्डल में दोनों मुख्य सम्प्रदायों के विधायक अलग-अलग मत देकर उसका समर्थन करें।

3. प्रान्तों को केन्द्रीय विषयों को छोड़कर शेष सभी मामलों में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त हो और शेष शक्तियाँ उन्हीं के पास हों।

4. प्रान्तों को छोटे अथवा बड़े गुट बनाने का अधिकार हो और गुटों को क्या-क्या अधिकार होंगे, इसका निर्णय वे स्वयं ही करेंगे।

5. मद्रास, बम्बई, मध्य प्रान्त, संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा के छः हिन्दू बहुसंख्यक प्रांत गुट (अ) में होंगे और उत्तर पश्चिम के मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत, पंजाब, सीमा प्रान्त और सिन्ध, गुट (व) में और बंगाल तथा आसाम गुट (स) में। मुख्य आयुक्त के प्रान्त, दिल्ली, अजमेर, मारवाड़, और कुर्ग गुट (अ) में और बलोचिस्तान गुट (ब) में सम्मिलित होंगे। प्रान्तों को पूर्ण स्वायत्तता का देना एक प्रकार से पाकिस्तान का ‘सार’ था। यह स्पष्ट था कि गुट (ब) और (स) मुस्लिमों के आधिपत्य में होंगे।

मंत्रिमण्डलीय शिष्ट मण्डल का मुख्य कार्य संविधान सभा अर्थात् भारतीयों द्वारा अपना संविधान बनाने के कार्य को आरम्भ करना था । यह संविधान सभा प्रान्तीय विधान सभाओं द्वारा चुनी जाती थी क्योंकि यदि वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनी जाती तो समय बहुत लगता । प्रान्तीय विधान सभा के सदस्यों को तीन भागों में बांटा जाना था, सामान्य, मुस्लिम और सिक्ख और प्रत्येक भाग अपने अपने प्रतिनिधि, अनुपाती प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा चुनेगा । गवर्नरों के प्रान्तो में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों को प्रतिनिधि, उनकी जनसंख्या के अनुपात से मिलने थे और लगभग दस लाख लोगों के लिए एक प्रतिनिधि होना था। मुख्य आयुक्तों के प्रान्तों में प्रबन्ध भिन्न था।

गुट (अ) के प्रान्तों में सामान्य को 167 स्थान दिए गए, और मुसलमानों को 20 स्थान। गुट (ब) में सामान्य को 9, मुसलमानों को 22 और सिक्खों को 4 तथा गुट ( स ) में सामान्य को 34 और मुसलमानों को 36 स्थान दिए गए । इन 292 सदस्यों में 4 सदस्य 4 मुख्य आयुक्तों के प्रान्तों ‘ से आने थे और 93 सदस्य भारतीय रियासतों से आने थे। इनका चयन विचार-विमर्श द्वारा किया जाना था।

इस प्रकार की गठित संविधान सभा तीन गुटों के अनुसार तीन भागों में बांटी जानी थी। प्रत्येक भाग अपने-अपने प्रान्तों के लिए संविधान बनाएगा और यह भी निश्चय करेगा कि अपने गुट के लिए संविधान बनाना है अथवा नहीं। तीनों भाग, सम्मिलित रूप से संघीय संविधान बनाएंगे। नागरिकों, अल्पसंख्यकों, जन जातियों तथा अपवर्जित क्षेत्रों के अधिकारों के विषय में परामर्शदात्री समिति होनी थी।

गुटों और संघ के संविधान में एक प्रबन्ध यह भी था कि प्रान्तों को यह अधिकार था कि प्रत्येक 10वर्ष के पश्चात् संविधान की शर्तों पर पुनर्विचार करने की मांग कर सकें। इसके अतिरिक्त प्रांतों को नए संविधान के अधीन चुनाव के पश्चात् अपनी विधान सभाओं के निर्णयों के अनुसार, अपने गुटों से पृथक् होने का भी अधिकार था।

संविधान सभाओं का इंग्लैण्ड के साथ शक्ति के हस्तान्तरण से उत्पन्न हुए मामलों पर एक संधि भी करनी थी।

भारतीय रियासतों के विषय में शिष्ट मण्डल ने यह कहा कि ज्योंही संविधान अस्तित्व में आ जाएगा त्योंही अंग्रेजों की सर्वोच्चता समाप्त हो जाएगी। अर्थात् जो भी अधिकार रियासतों ने अंग्रेजों को दिए हैं वे सभी उन्हें पुनः प्राप्त हो जाएंगे और अंग्रेजों और रियासतों के बीच राजनैतिक सम्बन्ध समाप्त हो जाएंगे। इसके पश्चात् रियासतें या तो केन्द्र से संघीय सम्बन्ध स्थापित करे अथवा ‘प्रांतों से अपने नए सम्बन्ध स्थापित करें।

शिष्ट मण्डल का यह भी सुझाव था कि एक अन्तरिम सरकार बनाई जाए जिसे मुख्य राजनैतिक दलों का समर्थन प्राप्त हो और जिसमें सभी विभाग रक्षा समेत भारतीय नेताओं के हाथों में हों।

कैबिनेट मिशन योजना के गुण और अवगुण 

इस योजना का मुख्य गुण यह था कि संविधान सभा लोकतंत्रवादी सिद्धान्त— जनसंख्या पर आधारित था और पुराना गुरुत्व (Weightage) का सिद्धान्त समाप्त हो गया था। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक प्रश्न का बहुसंख्यक के आधार पर निर्णय करना था यद्यपि उनके लिए संरक्षणों का प्रबन्ध था। इसी प्रकार एक गुण यह भी था कि पाकिस्तान का विचार पूर्णतया छोड़ दिया गया था। इसके अतिरिक्त यह भी एक महत्त्वपूर्ण बात थी कि संविधान सभा के सदस्य ब्रिटिश सरकार अथवा यूरोपीय अधिकारी, कोई नहीं थे और प्रांतीय विधान सभाओं में भी मत डालने के समय यूरोपीय सदस्यों को रहना था। महात्मा गांधी के कहने पर कि यूरोपीयों को मताधिकार न हो, इन यूरोपीय सदस्यों ने यह स्वीकार कर लिया कि वे चुनाव में खड़े नहीं होंगे और भारतीयों के चुनाव में ही मताधिकार का प्रयोग करेंगे। यू. पी. के अंग्रेज सदस्यों ने चुनावों में भाग लिया परन्तु आसाम और बंगाल के सदस्यों ने नहीं। इस संविधान सभा के कार्य में किसी प्रकार का बाधा नहीं डाली गईं और उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने दिया गया।

इस योजना के अवगुणों में मुख्यतः ये थे— (1) मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा तो की गई थी परन्तु पंजाब में सिक्खों के हितों की नहीं। (2) प्रांतों के गुटों के विषय में भी मतभेद थे। लीग समझती थी कि गुट बनाना आवश्यक है परन्तु कांग्रेसी समझते थे कि वह वैकल्पिक हैं। और अंत में अंग्रेजों ने भी कांग्रेसी विचार का समर्थन किया। (3) संविधान बनाने की श्रृंखला भी विचित्र सी थी। पहले गुट और प्रांतों का संविधान बनाने की श्रृंखला भी विचित्र सी थी। पहले गुट और प्रान्तों का संविधान बनाओ फिर केन्द्र का और इस प्रकार गाड़ी घोड़े के आगे जोत दी गई थी।

संविधान सभा का निर्माण- जुलाई, 1946 मन्त्रिमण्डल – मिशन योजना के अनुसार संविधान-सभा के निर्वाचन हुए। भारत के प्रान्तों की 296 सीटों में से 111 सीटें कॉंग्रेस को, 73 सीटें मुस्लिम लीग को और शेष सीटें स्वतन्त्र सदस्यों को प्राप्त हुईं। 93 सीटें भारतीय रियासतों के लिए थीं, किन्तु वे पूरी भरी न जा सकीं। जिन्ना ने कॉंग्रेस के बहुमत को पशु बल का बहुमत बताया और उन्होंने शीघ्र ही मुम्बई में मुस्लिम लीग कार्यकारिणी की एक आवश्यक बैठक बुलायी तथा उसमें पुरी सुधार योजना पर फिर विचार करने के बाद उसे अस्वीकार कर दिया गया। 29 जुलाई, 1946 की बैठक में लीग ने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए मुसलमानों को प्रत्यक्ष आन्दोलन आरम्भ करने का आदेश दिया। साथ ही यह निश्चय हुआ कि 16 अगस्त को समस्त देश में ‘प्रत्यक्ष आन्दोलन दिवस’ मनाया जाय। इस प्रत्यक्ष आन्दोलन के फलस्वरूप कलकत्ता, पूर्वी बंगाल तथा पंजाब में साम्प्रदायिक दंगे हुए। गाँवों तथा नगरों में असहाय हिन्दुओं और सिक्खों पर मुसलमानों ने संगठित आक्रमण किये, घर लूटकर जला दिये गये। बच्चे और बूढ़े भी नहीं छोड़े गये और कहीं-कहीं तो पूरे-के-पूरे परिवारों को जीवित जला दिया गया।

अन्तरिम सरकार की स्थापना- अगस्त, 1946 के अन्त में लार्ड वेवेल ने पं. जवाहर लाल नेहरू को अन्तरिम सरकार का निर्माण करने के लिए आमन्त्रित किया। 3 सितम्बर, 1946 को 12 सदस्यों के साथ नेहरू मन्त्रिमण्डल ने पद की शपथ ली, जिसमें 5 काँग्रेसी हिन्दू 1 काँग्रेसी तथा 2. गैर काँग्रेसी मुसलमान, 1 अकाली सिक्ख, 1 गैर काँग्रेसी भारतीय ईसाई, 1 गैर काँग्रेसी पारसी तथा 1 काँग्रेसी अनुसूचित जाति के थे। आगे चलकर लार्ड वेवेल के अनुरोध पर मुस्लिम लीग के 5 सदस्य भी उस सरकार में सम्मिलित हो गये। लेकिन लीगी सदस्यों ने अपना अलग गुट बना लिया। 9 सितम्बर को होने वाली संविधान सभा की पहली बैठक में मुस्लिम लीग ने कोई भाग नहीं लिया।

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