राजनीति विज्ञान / Political Science

दबाव समूह का अर्थ, विशेषताएँ या लक्षण, वर्गीकरण, राजनीतिक दल और दबाव समूह में अन्तर

दबाव समूह का अर्थ
दबाव समूह का अर्थ

दबाव समूह (Pressure Groups)

दबाव समूह आधुनिक लोकतन्त्र के अभिन्न अंग है। लोकतन्त्रीय देशों में राजनीतिक दलों के विकास के साथ-साथ दबाव अथवा हित समूहों का विकास हुआ है। प्रायः सभी विकसित और अविकसित देशों में जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था है दबाब समूह देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इंगलैंड और भारत जैसे देशों में आज इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गयी है।

दबाव समूह अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था की देन है। यद्यपि अमेरिकी गणतंत्र की स्थापना के साथ ही वे पैदा हो गये थे लेकिन बीसवीं सदी में इनकी भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयी। आज अमेरिका के राजनीतिक जीवन में इनका महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया है कि सरकार तथा विधायक इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हित-समूहों का विकास प्रजातांत्रिक देशों में बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हेय दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें एक बुरी शक्ति मानी जाती थी और प्रजातंत्र के लिए घातक समझा जाता था। लेकिन अब स्थिति बदल गयी है और दबाव तथा हित समूहों को आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। उन्हें राजनीतिक क्रियाशीलता के लिए आवश्यक समझा जाता है। इनका उद्देश्य राजनीतिक दलों को भाँति सत्ता को प्राप्त करना नहीं होता, वरन् सत्तारूढ़ दल को नीतियों को अपने पक्ष में प्रभावित करना होता है। ये व्यक्तिगत संगठन (Private Organisation) होते हैं जो विशेष सामाजिक आर्थिक और व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए क्रियाशील रहते हैं। राजनीतिक क्षेत्र के नीति-निर्धारण और प्रशासन पर दिन-प्रतिदिन इनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव बढ़ता जा रहा है। अतः आज के सोकतांत्रिक देशों में दबाव हित समूहों का अध्ययन भी लोकप्रिय और रुचिकर विषय हो गया है।

दबाव समूह का अर्थ (Meaning of Pressure Groups )

समाज में विभिन्न प्रकार के हित पाये जाते हैं, जैसे-मजदूर, कृषक उद्योगपति, शिक्षक व्यवसाय आदि। जब कोई छोटा अथवा बड़ा हित संगठित रूप धारण कर लेता है तब उसे हित-समूह (Interest Group) कहा जाता है। इस समूह का उद्देश्य अपने सदस्यों के विविध सामाजिक, आर्थिक और व्यावसायिक हितों की रक्षा करना होता है। जब कोई हित-समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार से सहायता चाहने लगता है या अपने सदस्यों के हितों के अनुकूल के निर्माण और संशोधन के लिए विधायकों को प्रभावित करने लगता है तब उसे दबाव समूह (Pressute Group) कहा जाता है। मायरन बिनर ने दबाव समूह की परिभाषा देते हुए लिखा है कि दबाव-गुट अपक हित समूह से हमारा अभिप्राय ऐसे किसी ऐच्छिक रूप से संगठित समूह से होता है जो सरकार संगठन से बाहर रहकर सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति, सरकार की नीति इसके प्रशासन तथा इसके निर्णय को प्रभावित करने का प्रयत्न करता है।” इन समूहों को दबाब समूह या हित समूह इसलिए कहा जाता है कि इनका निर्माण विशेष हितों की रक्षा के लिए होता है और में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से विधायकों के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा उन पर किसी विधायक विशेष के पक्ष अथवा विपक्ष से मतदान के लिए दबाव डालते हैं।

कार्टर एवं हर्ज (Carter and Herz) ने भी हित तथा दबाव समूह के बारे में लिखा है कि एक स्वतन्त्र समाज के हित समूहों को स्वतन्त्र रूप से संगठित होने की अनुमति होती है और जब ये समूह सरकारी यंत्र और प्रक्रिया पर प्रभाव डालने का प्रयत्न करते हैं और इस प्रकार कानूनों, नियमों, लाइसेंस, करारोपण तथा अन्य विधायी और प्रशासकीय कार्यों को अपने अनुकूल डालने की चेष्टा करते हैं, तो स्पष्ट हो ये हित (interest) दबाव समूह (Pressure Groups) में बदल जाते हैं। अब हित-समूहों को गतिविधियों सरकार पर दबाव डालने की हो जाती है। ओडिगार्ड (Odegard) ने भी लिखा है, “एक दबाव समूह ऐसे लोगों का औपचारिक संगठन है जिनके एक अथवा समान उद्देश्य एवं स्वार्थ हाँ और जो घटनाओं के क्रम को विशेष रूप से सार्वजनिक नीति के निर्माण और शासन को इसलिए प्रभावित करने का ध्यान करें कि उनके हितों की रक्षा और वृद्धि हो सके।”

नोट्स- हित-समूह समाज में पाये जाने वाले विशेष हितों के संगठन होते हैं जो अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार पर ऐसी किसी भी नीति को अपनाने के लिए दबाव डालते हैं जो उनके हितों के प्रतिकूल हों तथा अपने हितों की पूर्ति के लिए समाचार-पत्रों, पर्चा, रेडियो, व्यक्तिगत सम्पर्क तथा अन्य माध्यमों के द्वारा सरकार पर दबाव डालते हैं जिस कारण उन्हें दबाव समूह कहा जाता है।

हित अथवा दबाव समूह ऐच्छिक (voluntary) और गैर-राजनीतिक (non-political) संगठन होते हैं। इनको सदस्यता का आधार इनके सदस्यों के बीच समान हित की चेतना और समान हित को वृद्धि के लिए प्रयत्न होते है। इनका सम्बन्ध किसी राजनीतिक दल के प्रत्यक्ष्य रूप से नहीं होता और न ये किसी राजनीतिक दल के अंग होते हैं। परन्तु ये अपने हितों को देखते हुए किसी-न-किसी राजनीतिक दल से अपना सम्बन्ध अवश्य स्थापित कर लेते हैं। दबाव समूह राजनीतिक दल की भाँति किसी कार्यक्रम के आधार पर निर्वाचकों को प्रभावित नहीं करते वरन वे किन्हीं विशेष मसलों में रुचि लेते हैं। उनके संगठन का मौलिक कारण सामाजिक, आर्थिक या व्यावसायिक होता है, राजनीतिक नहीं। फिर भी राजनीति को प्रभावित करने का उद्देश्य उनमें राजनीतिक फूट ला देता है। अर्थात् दबाव समूह पूर्णतः राजनीतिक संगठन नहीं होते और न वे चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार ही खड़ा करते हैं। राजनीतिक दल न होते। भी वे दलों की भाँति संगठित होते हैं जिनको निजी सदस्यता, उद्देश्य संगठन एकता, साधन और प्रतिष्ठा होते हैं। प्रकृति उद्देश्य और संगठन को दृष्टि से राजनीतिक दलों से वे मौलिक रूप से भिन्न होते हैं। राजनीतिक दल में सभी व्यक्ति का राजनीतिक उद्देश्य नहीं होता।

राजनीतिक दल को सभी वर्गों के मतदाताओं को व्यापक समर्थन प्राप्त होता है जबकि दबाव समूह को केवल एक ही वर्ग का राजनीतिक दल निर्वाचन में भाग लेते हैं जबकि हित समूह निर्वाचन में भाग नहीं लेते। राजनीतिक दल विधानमण्डल के भीतर और दोनों जगह कार्य करते हैं जबकि समूह के विधानमण्डल के बाहर काम करते हैं। एक बार में व्यक्ति एक ही राजनीतिक दल की सदस्यता प्राप्त कर सकता है जबकि एक ही व्यक्ति एक हमें कई समूहों का सदस्य हो सकता है अर्थात् राजनीतिक दलों को अनन्य (exclusive) सदस्यता के विपरीत परस्पर (overlapping) सदस्यता दबाव समूह में पायी जाती है।

क्या आप जानते है?

राजनीतिक दलों का उद्देश्य को प्राप्त करना तथा उसके माध्यम से अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करना होता है जबकि दबाव-गुट का उद्देश्य सत्ता को प्राप्त करना नहीं वरन अपने हितों की रक्षा करना होता है।

(1) दबाव या हित-समूह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न तरीकों से कार्य करते हैं। वे अपने मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक तथा दैनिक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करते हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं में से अपने हितों को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं और उनके पक्ष में जनमत का निर्माण करके सरकार को हितों के अनुरूप नीतियाँ बनाने के लिए बाध्य करते हैं।

(2) उनका कार्य करने का दूसरा तरीका जनता के साथ सीधा सम्पर्क स्थापित करने का है और किसी भी विधेयक के समर्थन अथवा विरोध के लिए जनता को प्रेरित करना है। इसके लिए ये अल्पकालीन अभियान (Short term campaign और दीर्घकालीन अभियान (Long-term campaign) चलाते हैं। अल्कालीन अभियान जनमत को किसी भी विधेयक के पक्ष विपक्ष में बनाने के लिए और दीर्घकालीन किसी भी समस्या के प्रति जनता के मूलभूत दृष्टिकोण को अनुकूल बनाने के उद्देश्य से अपनाया जाता है। प्रभावशाली संगठन द्वारा प्रेस, रेडियो, टेलीविजन और विशेषको का उपयोग किया जाता है।

(3) दबाव समूह परोक्ष रूप से (Indirectly) चुनाव में भाग लेते हैं। यद्यपि उनका कोई उम्मीदवार चुनाव में खड़ा नहीं होता फिर भी विशेष राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की अपना समर्थन देते हैं, इसके लिए से चन्दा देते है तथा चुनाव अभियानों में भाग लेने के लिए अपने कार्यकर्त्ता भी देते हैं। भारत के अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल, जैसे-काँग्रेस, कम्युनिस्ट और जन अपने मजदूर और छात्र संगठन को मौके पर काम में लाते देखे जाते हैं। दूसरी और उनके से संगठन भी उम्मीदवार के चपन के सम्बन्ध में प्रतिनिधित्व की माँग करते हैं।

(4) दवाव समूह कभी-कभी सरकार पर दबाव डालने के लिए हड़ताल तथा प्रदर्शनों का भी आयोजन करते हैं। भारत में इस तरीके को बहुत ज्यादा अपनाया जाता है। खासकर संघ सभाओं, हड़ताला तथा प्रदर्शना का ज्यादा सहारा लेते हैं।

(5) कभी-कभी समूह ऐसे वकों को जो उनके दिल के प्रतिकूल होते हैं, पारित न होने देने हेतु न्यायालय के दरवाजे भी खटखटाते है। बैंकों के राष्ट्रीकरण और प्रोपर्स के उन्मूलन से सम्बन्धित अध्यादेश को न्यायालय में चुनौती इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।

(6) दबाव अथवा समूहों के कार्य करने का सबसे अधिक सुपरिचित तरीका लॉबिइंग (Lobbying) हैं। अमेरिका में यह तरीका राजनीतिक जीवनको महत्वपूर्ण संस्था बन चुकी है। प्रत्येक सदन के साथ लगे हुए कमरे अथवा बरामदे को लांब अथवा प्रकोष्ट कहा जाता है। विधायक अवकाश के समय में आकर बैठते है और वहाँ दबाव समूहों के प्रतिनिधि उनसे सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा उन्हें अपने पक्ष में प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं। अधिकाश दबाव समूह अपने वैधानिक प्रतिनिधियों के द्वारा लॉबिरंग कार्य करते हैं। इस तरीके को भ्रष्टाचार का तरीका माना जाता है क्योंकि विधायकों को पक्ष और विपक्ष में मत डालने के लिए कोशिश या रिश्वत तक दी जाती है। वर्तमान समय में अमेरिका में लोडिंग की पद्धति में एक नया विकास हुआ है, जिसे ग्राम रूट्स बिग (Grass-route lobbying) कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वा सभा के सदस्यों को प्रभावित करने के लिए उनके विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं से तार पत्र अथवा टेलीफोन आदि करवाते हैं। अमेरिका में लोग के बढ़ते हुए कुप्रभाव को रोकने के लिए कई कानून बनाये गये, फिर भी लॉबियाँ वहाँ के राजनीतिक जीवन में काफी प्रभावशाली है। भारत में यद्यपि लॉबी का प्रचलन बहुत अधिक नहीं है, फिर भी उद्योगपतियों तथा व्यावसायियों के दबाव समूह इस तरीके को अपनाने का प्रयास करते हैं। विधेयकों के निर्माण, लाइसेंस देने, किसी विधेयक के पक्ष या विपक्ष में बोलने के लिए भारत में विधायकों को घूस देते हुए या उनके सम्बन्धियों को नौकरियों देते हुए पाये गये हैं। कई बार ऐसे मामलों का संसद और विधानसभाओं या उनके बाहर भी हुआ है।

दबाव समूहों को भ्रष्टाचार का अड्डा कहा जाता है। ये गलत ढंग से प्रभाव डालने का तरीका अपनाते हैं। इसके लिए विशाल धनराशि खर्च करते हैं घूस और रिश्वत देते हैं विधायकों को तरह-तरह के लालच देते हैं। अमेरिका के हित-समूहों के बारे में लिखते हुए प्रो. वी. ओ. को (V.O.Key) ने कहा है कि “द हित-समूह विधायकों के लिए अच्छे-अच्छों का आयोजन करते हैं, उनके लिए नशीली वस्तुएँ मुहया करते हैं। यही नहीं विधायकों के लिए दुराचारीयों का प्रबन्ध करते हैं, जिन लॉबी की तरफ से वेतन मिलता है।” इसी कारण अमेरिका में यह महसूस किया जाने लगा है कि दबाव समूहों ने वहाँ राजनीतिक अनैतिकता, भ्रष्टाचार तथा अन्य प्रकार को अनियमितताओं को बढ़ाया दिया है। भारत में भी दबाव समूह की बुराइयाँ स्पष्ट होने लगी है। देश में अधिकांश ताल और प्रदर्शन इन्हीं के द्वारा आयोजित किये जाते हैं. ये संसद के सदस्यों को अनैतिक ढंग से प्रभावित करते हुए पाये गये हैं। फिर भी दबाव समूह आधुनिक लोकतन्त्र के स्वाभाविक अंग बन चुके है। 

दबाव समूह की विशेषताएँ या लक्षण (Characteristics of Pressure Groups)

दबाव समूह अपनी प्रकृति से हित-समूहों की तरह न तो पूर्णतः अराजनीतिक होते हैं और न ही दलों की तरह पूर्णतः राजनीतिक होते हैं। दावसमूहों के कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं जो इन्हें अन्य संगठनों से अलग करते हैं। संक्षेप में ये लक्षण निम्नलिखित है-

(1) औपचारिक संगठन- औपचारिक रूप से संगठित व्यक्तिसमूहों को दबाव समूह कहा जाता है। व्यक्तियों के किसी भी समूह को दबाव समूह नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसे संगठन का औपचारिक होना जरूरी है। दूसरे शब्दों में समूह के हितों को प्राप्ति के लिए औपचारिक ढंग से निर्वाचित या मनोनीत व्यक्तियों को व्यवस्था इसमें ही दान-समूह के अपने नियम सदस्यता शुल्क समिति और कार्यकारिणी होती है। इसका कार्य राजनीतिक प्रक्रिया को अपने हितों की पूर्ति के लिए विशेष रूप से प्रभावित करने का है। अतः दबाव समूह का प्रथम लक्षण इसका औपचारिक संगठन है।

(2) विशिष्ट स्वहित- दवाव समूहों के निर्माण का मुख्य आधार विशिष्ट हितों की प्राप्ति होता है विशेष रूप से पेशेवर समूह सामान्य हित का ही रखते है। लेकिन ऐसा देखा जाता है कि उद्देश्यों और स्वहितों की निश्चित ही व्यक्तियों को दबाव समूह में आवद्ध करती है। जब तक व्यक्तियों के सामने स्पष्ट निश्चित हिंत नहीं हो तब तक किसी भी दबाव समूह का निर्माण नहीं हो सकता।

(3) सर्वव्यापी प्रकृति हर तरह की राजनीतिक व्यवस्थाओं में दबाव समूहों को देखा जा सकता है। सर्वसत्तावादी व्यवस्थाओं में भी ये पाये जाते है। लोकतन्त्र में ये महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। साम्यवादी व्यवस्थाओं में भी इतका अस्तित्व पाया जाता है। हालांकि उनकी गतिविधियाँ बहुत गुप्त होती है। राजनीतिक दल चुनावों के समय ही सक्रिय दिखाई पड़ते है। अतः दो चुनावों के बीच की अवधि में ये समूह सरकार और जनता के अनुसार केवल यह तथ्य कि दबाव समूह साम्यवादी राज्यों में भी होते हैं इनको सर्वव्यापकता का प्रमाण है।

(4) ऐच्छिक सदस्यता- दबाव समूह चौक विशेष हिता को प्राप्ति के लिए संगठित किये जाते है। अतः यहाँ व्यक्ति इसका सदस्य बनते हैं जिनके हितों को सिद्धि इनके द्वारा होती है। फलतः दान-समूहका सदस्य बनने के लिए किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति जब चाहे किसी दबाव समूह से त्यागपत्र दे सकता है। इसी विशेषता के कारण दबाव समूह प्रतिद्वन्दी राजनीति के आधार पर स्तम्भ बन जाते हैं और राजनीति में आम जनता की सहभागिता बढ़ जाती है।

(5) राजनीतिक क्रिया उन्मुख दबाव समूह अपने आप में राजनीतिक संगठन नहीं होते बल्कि खास प्रश्न पर राजनीतिक क्रिया को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं तो चुनावों में उम्मीदवार खड़ा करते हैं और नही राजनीतिक संगठन बनाते हैं। दूसरे शब्दों में शासन से बाहर रहकर अपने हितों के अनुकूल सरकार को प्रभावित करते हैं।

(6) अनिश्चित कार्यकाल दबाव समूह स्थायी नहीं होते। अतः यह बनते और बिगड़ते रहते हैं। हितपूर्ति के बाद में समाप्त हो जाते हैं। लेकिन कुछ पेशेवर दबाव समूह स्थायी रूप से बने रहते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों में ट्रेड यूनियन इसका हरण है। किन्तु अधिकांश समूह हित प्राप्ति के बाद समाप्त हो जाते हैं।

राजनीतिक दल और दबाव समूह में अन्तर (Distinction between Political Parties and Pressure Groups)

राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों के साथ सबसे पनि सम्बन्ध दवाव समूह का होता है। दोनों एक दूसरे पर इतने निर्भर है कि अपने उद्देश्यों की पूर्ति में उन्हें एक-दूसरे का सहयोगी होकर काम करना पड़ता है। लेकिन इसका अर्थ का नहीं कि दोनों एक दूसरे के बिना काम नहीं कर सकते। परिस्थितिवश कभी-कभी दोनों में सहयोग और कभी-कभी विरोध भी देखा जाता है। कुछ दबाव समूह एक से अधिक दलों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं। अतः समानताओं के बावजूद राजनीतिक दल और दबाव समूह में अन्तर देखे जा सकते हैं। संक्षेप में इन दोनों के बीच निम्नलिखित अन्तर है:-

(क) उदेश्य सम्बन्धी पहला अन्तर दबाव समूहों और राजनीतिक दलों में पाया जाता है। दबाव समूह के उद्देश्य विशिष्ट स्पष्ट और केवल निजी लाभ के लिए होते है। दूसरी और राजनीतिक दलों के उद्देश्य सामान्य हो है जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज से होता है।

(ख) कार्य-क्षेत्र सम्बन्धी दूसरा अन्तर भी इन दोनों में पाया जाता है। दबाव समूहों का कार्यक्षेत्र विशिष्ट और समुचित होता है जबकि राजनीतिक दलों का सामान्य और व्यापक दबाव समूहों का सम्बन्ध मानव जीवन के किसी खास पहलू से ही होता है जबकि दलों का मानव जीवन को सम्पूर्ण गतिविधियों से होता है।

(ग) सदस्यता सम्बन्धी तीसरा अन्तर भी इन दोनों के बीच पाया जाता है। एक ही समय में एक व्यक्ति अनेक दबाव समूहका सदस्य हो सकता है जबकि ऐसी ही स्थिति में एक व्यक्ति अनेक राजनीतिक दलों का सदस्य नहीं हो सकता।

(घ) राजनीतिक प्रक्रिया के दबाव समूह स्वयं अंग नहीं होते। लेकिन दल इसी प्रक्रिया के अनुसार अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। वे केवल निर्णय प्रक्रिया का प्रभावित करते हैं। दलों को तरह स्वयं निर्णायक नही बनता।

(ङ) चुनावों से सीधा सम्बन्ध राजनीतिक दलों का होता है दबाव समूहों का नहीं इस प्रकार दबाव समूह का कोई अपना निर्वाचन क्षेत्र नहीं होता। लेकिन राजनीतिक दलों का उद्देश्यता प्राप्त करना होता है। अतः चुनाव में वे भाग लेकर अपने प्रत्याशियों को विजयी बनाना चाहते हैं।

(च) संगठन को लेकर भी दबाव समूह और राजनीतिक दलों में अन्तर है। राजनीतिक एल राष्ट्रव्यापी होते हैं। लेकिन बहुत कम दबाव समूहों का स्वरूप राष्ट्रव्यापी होता है। दूसरों और कुछ दबाव समूह राजनीतिक दलों से भी अधिक व्यापक संगठन वाले होते हैं जबकि कुछ राजनीतिक दल क्षेत्रीय अथवा स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहते हैं।

इन अन्तरों के बावजूद यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि दोनों में सम्बन्ध नहीं है। ऐसा माना जाता है कि दबाव समूहों का रूप अत्यन्त समटिस और उनको भूमिका समाज में प्रभावकारी होती है तो राजनीतिक दस्त भी उनके समक्ष मौन लगते हैं।

फाइनर ने इस सम्बन्ध में ठीक हो लिखा है कि “जहाँ सिद्धान्त और संगठन में राजनीतिक दल दुर्बल हो कहाँ दबाव समूह बनायेंगे जहाँ दबाव समूह शक्तिशाली होंगे राजनीतिक दल कमजोर होंगे और जहाँ राजनीतिक दल शक्तिशाल यहाँ दबाव समूह दवा दिये जायेंगे “फाइनर का यह कथन पाश्चात्य लोकों पर ही लागू होता है जहाँ राजनीतिक दल और दबाव समूह दोनों ही विकसित है। विकासशील राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का शक्तिशाली संगठन नहीं पाया जाता अतः इन देशों में दोनों के बीच कोई अन्तर नहीं किया जा सकता।

दबाव समूहों का वर्गीकरण (Classification of Pressure groups )

संख्यात्मक दृष्टि से अधिक और प्रकृति में विभिन्नता के कारण दवाव समूहों का वर्गीकरण करना एक मुश्किल काम लगता है। वर्गीकरण के निश्चित आधारों में दबाव समूहों को प्रकृति को जानना सचमुच कठिन है। फिर भी इन समूहों के लक्ष्य संगठन की प्रकृति अस्तित्व की अवधि कार्य क्षेत्र और निर्माण के प्रेरक तत्त्वों के आधार पर दबाव समूहों का वर्गीकरण अनेक विद्वानों के द्वारा किया गया है। उपर्युक्त आधारों पर दबाव समूह के कुछ वर्गीकरण इस प्रकार है-

1. कार्ल फ्रेडरिक का वर्गीकरण

फ्रेडरिक ने दबाव समूहों को दो वर्गों में विभाजित किया है- (क) सामान्य दबाव समूह सामान्य हितों को आधार मानकर चलने वाले समूहों को उसने इस श्रेणी में रखा है। (ख) विशिष्ट दबाव समूह किसी खास या विशेष हित को प्राप्ति के लिए काम करने वाले दबाव समूहों को उसने दूसरी श्रेणी में रखा है।

2. ऑमण्ड का वर्गीकरण

ऑमण्ड ने दबाव समूहों का वर्गीकरण संरचनात्मक रूपों और हित संचारण के आधार पर किया है। इन दोनों आधारों पर उसने दबाव समूह को निम्नलिखित चार वर्गों में रखा है।

(क) संस्थात्मक दबाव समूह (Institutional Pressure group) इस वर्ग में आमण्ड ने जन समूहों को रखा है जो किसी राजनीतिक दल या संगठन के अन्तर्गत ग्रुप के रूप में काम करते हैं। अतिरिक्त समूहों के रूप में में सेना और असैनिक सेवा में पाये जाते हैं। कर्मचारियों के इन समूहों का उद्देश्य सामाजिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति करना होता है। ये राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक या धार्मिक कार्यों के अलावा हित स्वरूपोकरण का भी काम करते हैं। अल्पविकसित या अविकसित देशों में ऐसे समूहों की संख्या काफी कम होता है, लेकिन विकसित देश में अधिक संख्या में पाये जाते है और प्रभावकारी ढंग से हितस्वरूपीकरण का भी कार्य करते हैं।

(ख) प्रदर्शनात्मक या चमत्कारिक दबाव समूह (Anamic Pressure Groups)- ऐसे दबाव समूहों को ऑमण्ड ने झाकरिक या चमत्कारिक व्यवहार से युक्त माना है क्योंकि ये प्रदर्शनों आदालना, रैलिया, दंगा इत्यादि के रूप में प्रकट होकर अचानक अपने प्रभाव का विस्तार करते है। संगठित नियंत्रित होने के बावजूद राजनीतिक व्यवस्था में बाधा उत्पन्न करने या उसे बदल देने की क्षमता रखते हैं। फ्रांस, इटली, लैटिन अमेरिकी देशों तथा कुछ अरब देशों में ऐसे दबाव समूह अधिक प्रभावशाली है।

(ग) असमुदयत्मक दबाव समूह (Non-associational Pressure Groups) रक्तसंबंध, धर्म या वर्ग पर परम्परागत ढंग से आधारित दबाव समूह इस वर्ग में रखे जाते हैं। इन समूहों में आमण्ड ने पैतृक जातीय धार्मिक रक्त सम्बन्धी समूहों को स्थान दिया है। इनकी विशेषता यह है कि हित साधने का काम से निरंतर नहीं करते बल्कि आवश्यकतानुसार समय-समय पर करते हैं। ऐसे समूहों को संरचनाएँ बनती बिगड़ती रहती हैं और बहुत कम संगठित हो पाती है। विविधता से भरे आधुनिक समाजों में इनका प्रभाव बहुत सीमित होता है।

(घ) समुदयात्मक दबाव समूह (Asociational Interst Groups)- विशेष व्यक्तियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे समूहों का संगठन औपचारिक रूप से होता है। अमिक संघ व्यापारिक संघ जैसे समूह इसके उदाहरण है। ऐसे समूह अपने सदस्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजनीतिक व्यवस्था द्वारा इनकी कार्यशैली को मान्यता प्रदान की जाती है। ऐसे समूह उन सभी देशों में पाये जाते हैं जहाँ संघ बनाने का अधिकार लोगों को संविधान द्वारा प्राप्त होता है।

3. ब्लौण्डल का वर्गीकरण-

ब्लौण्डल में निर्माण के प्रेरक तत्वों के आधार पर दबाव समूहों का वर्गीकरण किया। जिन समूहों की स्थापना के जद में व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्ध होते हैं उन्हें उसने सांप्रदायिक समूह कहा है और जिन समूहों की स्थापना के पीछे किसी खास लक्ष्य की प्रेरणा हो उन्हें उसने साहचर्य समूह कहा है। प्रथम समूह को पुनः ब्लौण्डल ने रूढिगा और प्रभागत तथा दूसरे को संरक्षणात्मक और उत्थानात्मक उपवर्गों में पाँटा है। कुल मिलाकर ब्लॉण्डल का वर्गीकरण निम्नलिखित है।

(क) साम्प्रदायिक दबाव समूह (Communal Pressure Group): सामाजिक सम्बन्धों के कारण ब्लौण्डल के अनुसार ऐसे दबाव समूहों का निर्माण होता है। इन सम्बन्धों से सामूहिक एकता की भावना विकसित होती है फलतः कालान्तर में लोग स्वयं ऐसे समूहों में बंध जाते हैं। ये औपचारिक और अनौपचारिक दोनों रूपों में संगठित होते हैं। ब्लौण्डल ने ऐसे समूहों को निम्नलिखित दो उपभागों में बाँटा है-

(i) प्रथागत समूह (Customary Groups): जिन समूहों के सदस्यों के व्यवहार और कार्य पद्धति में सामाजिक रीति-रिवाज मुख्य भूमिका अदा करते हैं उन्हें ब्लौण्डल ने प्रभागत समूह कहा है। जातियों और जनजातियों के ऐसे समूह प्रभागत समूहों के अच्छे उदहरण है।

(ii) संस्थात्मक समूह (Institutional Groups): कुछ संस्थाओं के सदस्यों के एक साथ रहने से सामाजिक सम्बन्धों के आलावा उनमें रागात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। लीड ने ऐसे समूहों को संस्थात्मक कहा है। सैनिक कल्याण परिषद कर्मचारी संरक्षण परिषदे इत्यादि इसके उदाहरण हो सकते हैं।

(ख) संघात्मक या साहचर्य समूह (Associatioanl Group)- ब्लौण्डल के अनुसार एक खास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समूहों को इस वर्ग में रखा जा सकता है। ऐसे समूह निश्चित लक्ष्य से मुक्त होते हैं जिसके द्वारा राजनीतिक व्यवस्था में समाज की माँगों का प्रवेश होता है। ये समूह माँगों के साथ चलते हैं और औद्योगिक विकास के साथ इनकी संख्या में वृद्धि होती है। ब्लड ने ऐसे समूहों को पुनः दो उपवर्गों में बाँटा है।

(i) संरक्षणात्मक समूह (Frotective Groups): ऐसे समूहों का उद्देश्य विशिष्ट होते हुए भी व्यापक और सामान्य होते हैं। ये अपने सदस्यों के सामान्य हितों की रक्षा करते हैं। व्यावसायिक और अक संघों को इसके अन्तर्गत रखा जा सकता है।

(ii) उत्थानात्मक समूह (Promotional Group): जब किसी खास दृष्टिकोण के प्रचार द्वारा समाज को विकसित करने का लक्ष्य रखकर समूहों का निर्माण किया जाता है तो उन्हें उत्थानात्मक समूह कहा जाता है। गोरक्षा, नारी स्वतंत्रता, निःशस्त्रीकरण आदि लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निर्मित समूह को इस कोटि में रखा जा सकता है।

4. राबर्ट सी. बोन का वर्गीकरण

बोन से सामान्य प्रकृति और उद्देश्यों के आधार पर दबाव समूहों को दो वर्गों में बाँटा है। एक को उसने परिस्थितिजन्य समूह और दूसरे को अभिवृत्तिजन्य समूह कहा है। इन दोनों प्रकार के समूहों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है-

(क) परिस्थितिजन्य समूह (Situational Groups): ऐसे दबाव समूह मुख्य रूप से अपने सदस्यों की रक्षा और सुधार से सम्बंधित होते हैं। इन समूहों का उदेश्य सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अपने सदस्यों को स्थिति को सुधारना है।

बोन का कहना है कि इन दवाव समूहों का किसी खास विचारधारा से विशिष्ट संबन्ध नहीं होता। ये प्रकृति में विशिष्ट होते हैं और अपने सदस्यों के हितों की वृद्धि और रक्षा का भी उद्देश्य रखते हैं। इनकी कार्यपद्धति वैधानिक होती है।

(ख) अभिवृत्तिजन्य समूह (Attitudinal Groups): ऐसे समूह कुछ मूल्यों के प्रति सामान्य रूप से निष्ठा रखते हैं। मे शांतिपूर्ण सुधारों या कभी-कभी क्रांतिकारी तरीकों से समाज में व्यापक परिवर्तन लाना चाहते हैं। ये समूह परिस्थितिजन्य समूहों से भिन्न होते हैं। इनका कार्यक्रम कालबद्ध होता है कम से कम समय में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार को मजबूत करने का प्रयास करते हैं। चूंकि इन समूहों के उद्देश्य अल्पकालीन होते हैं, अतः ये तेज गति को तकनीकों का प्रयोग करते हैं। राबर्ट सी. बेन द्वारा किया गया दवाव समूह का वर्गीकरण सामान्य हुए भी दवाव समूहों को प्रकृति संगठन उद्देश्यों और कार्य विधि को समझने में सहायक लगता है।

दबाव समूहों की भूमिका (Role of Pressure Groups )

ऐसा देखा जाता है कि दबाव समूहों की कोई एक तरह की कार्यविधि नहीं होती है व अनेक तरह की तकनीकों का प्रयोग किया करते हैं। साधारण सरकारी प्रक्रिया को सरचना तथा प्रचलित परिस्थितियों के द्वारा दबाव समूह के माध्यम से प्रयोग में लायी जाने वाली प्रविधियों का नियमन होता है। एक ही दबाव समूह विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार की तकनीकों का उपयोग कर सकता है। यहाँ एक बात बहुत ही ध्यान देने योग्य है कि दबाव समूह जिस विधि को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में अधिक सहायक मानता है, उसी तकनीक का वह प्रयोग करता है। आमतौर पर दवाव समूह जिन तकनीकों का प्रयोग करते हैं वे निम्नलिखित है-

1. अनुनय (Persuation) 2. सौदेबाजी (largaining) 3. प्रत्यक्ष कार्रवाई (Direct Action)

दबाव समूहों के द्वारा कार्य करने की विधियों उनके संगठन के स्वरूप नेताओं के द्वारा अनुनय करने की क्षमता पदाधिकारियों और कर्मचारियों का तादात्म्य सदस्यों का सामूहिक कार्यों में हिस्सेदारी और समूह को वित्तीय स्थिति के द्वारा भी निर्धारित होती है जैसे दबाव समूह को सौदेबाजी के ज्यादा अवसर मिलते हैं जबकि छोटे और साधनहीन समूह को या तो अनुनय तक ही सीमित रहना पड़ता है या प्रत्यक्ष कार्रवाई करनी पड़ती है। आधुनिक राजनीतिक प्रक्रिया में दवाव समूहों की विशेष भूमिका एवं महत्व है। प्रायः सभी प्रजातान्त्रिक देशों में दबाव समूह पाये जाते हैं। काल जे फ्रेडरिक ने इन समूहों को दल के सक्रिय जन’ (The living public behind the party’s) कहा है किन्तु एक ऐसा भी समय था जब इन दबाव समूहों को अनैतिक माना जाता था और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। लॉबी शब्द को हेय दृष्टि में देखा जाता था और इसे धोखा, भ्रष्टाचार, बुराई इत्यादि का प्रतीक माना जाता था।

किन्तु समय ने करवट ली और लोकतर के विकास के साथ-साथ दबाव समूह के महत्व को भी स्वीकार किया जाने लगा। आज इन्हें लोकतंत्र के लिये न केवल आवश्यक ही माना जाता है बल्कि व्यक्ति के हितों का रक्षक भी समझा जाता है। राज्यको कार्यों पर दबाव समूहों का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इन्हें विधानमंडल के पीछे सभामंडल (Legislature behind a legislature) कहा जाता है। फाइनर ने दबाव समूहों को अज्ञात साम्राज्य (The Anonymous Empire) कहा है। संक्षेप में इन समूहों को बढ़ती हुई भूमिका तथा महत्त्व के निम्नलिखित कारण है-

1. लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अभिव्यक्ति- दबाव समूह को लोकतंत्र की अभिव्यक्ति का साधन माना जाता है। लोकतंत्र की सफलता के लिये स्वस्थ जनमत तैयार करना जरूरी है ताकि विशिष्ट नीतियों का समर्थन या विरोध किया जा सके। जनमतको शिक्षित करने के आँकड़े एकत्रित करने तथा विधि निर्माताओं के पास अवश्यक सूचनाएँ पहुँचाकर दवाव समूह अपने लक्ष्य को प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं।

2. प्रशासन के लिए सूचना एकत्र करने वाला संगठनः दबाव समूहों का महत्त्व शासन के लिए सूचनाएँ एकत्रित करने वाले संगठन के रूप में भी है। हर देश में सरकार तथा प्रशासन के पास आवश्यक सूचनाएँ पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए। इन सूचनाओं के बिना उचित नीति का निर्माण नहीं किया जा सकता। शासन की सूचनाओं के गैर सरकारी दान के रूप में दबाव समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

3. प्रशासन को प्रभावित करने वाला संगठनः दबाव समूह आजकल एक ऐसी संस्था के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं जो शासन को एक खास सीमा तक प्रभावित करती हैं। दबाव समूह इतने शक्तिशाली और संगठित हो चुके हैं कि ये अपने स्वार्थ और हित के लिए शासन व्यवस्था पर उपयोगी प्रभाव डाल सकते हैं।

4. सरकार की निरंकुशता को सीमित करने वाला संगठनः आधुनिक शासन व्यवस्था में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ने के कारण सारी शक्तियाँ केन्द्र के हाथों में इकट्ठी होती जा रही हैं किन्तु ये दबाव समूह अपने प्रभाव और शक्तियों द्वारा केन्द्रीय निरंकुशता को सीमित करते हैं। इस प्रकार केन्द्र शक्तियों का दुरुपयोग नहीं कर सकता।

5. प्रशासन और समाज में संतुलन स्थापित करने वाला संगठनः दबाव समूह अपने प्रभाव और अस्तित्व द्वारा विभिन्न हितों में संतुलन स्थापित करते हुए किसी एक सत्ता को अत्यधिक प्रभावशाली होने से रोकते हैं। व्यापारी, किसान, मजदूर, विधार्थी, स्त्रियाँ, जाति और धार्मिक समुदाय सभी अपने-अपने हितों की रक्षा करना चाहते हैं और इस प्रकार इन समूहों की प्रतियोगिता और उपस्थिति से प्रशासन और समाज में संतुलन स्थापित होता है। यह संतुलन निजी स्वार्थों की वृद्धि पर अंकुश का काम करता है। अतः विभिन्न दबाव समूह समाज में संतुलनकर्त्ता के रूप में कार्य करते हैं।

इस प्रकार दबाव समूहों का महत्त्व अत्यंत व्यापक होता जा रहा है। आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में ये दबाव समूह शासकों को बनने और बिगाड़ने की भूमिका भी अदा कर रहे हैं। वे सत्तारूढ़ दल को मनमानी करने से रोकते हैं और समाज में राजनीतिक पहरेदार का कार्य करते हैं। सचमुच दबाव समूह आज की व्यावहारिक राजनीतिक के व्यावहारिक अंग बन चुके हैं जिन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता।

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