भारत सरकार अधिनियम 1935 के अन्तर्गत संघीय विधानपालिका के अधिकार तथा कार्य
संघीय विधानपालिका
सन् 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत संघीय विधानपालिका की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इस अधिनियम द्वारा द्विसदनात्मक संघीय विधानसभा के गठन की व्यवस्था की गई थी। इसके उच्च सदन का नाम राज्यसभा और निम्न सदन का नाम संघीय सभा था। जहाँ राज्यसभा में विभिन्न इकाइयों का प्रतिनिधित्व होता था, वहाँ संघीय सभा जनता की प्रतिनिधि संस्था थी। इसकी विस्तृत व्याख्या निम्नांकित रूप में कर सकते हैं-
(1) राजव्यवस्था
(2) संघीय सभा
(1) राज्यसभा- राज्यसभा संघीय विधानसभा का उच्च सदन थी। इसके सदस्यों की संख्या 260 थी। ये सदस्य संघ की विभिन्न इकाइयों के प्रतिनिधि होते थे। इन 260 सदस्यों में 156 ब्रिटिश भारत के और 104 देशी राज्यों के प्रतिनिधि होते थे। 156 प्रतिनिधियों में 150 ब्रिटिश भारत में प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष होता था और 6 प्रतिनिधियों का नामांकन गवर्नर-जनरल द्वारा किया जाता था। 104 प्रतिनिधियों नामांकन भारतीय राज्यों के राजाओं द्वारा किया जाता था। देशी राज्यों के शासकों द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि केवल अपने शासकों को ही प्रसन्न करना चाहते थे। वे अंग्रेजों का समर्थन करते थे तथा भारतीय प्रगति में बाधा डालने का प्रयास करते थे। फिर भी, संघ की सभी इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व की व्यवस्था 1935 ई. के भारत-शासन अधिनियम के अन्तर्गत नहीं की गई। विभिन्न भारतीय प्रान्तों में स्थानों का बँटवारा निम्नलिखित प्रकार था-
प्रान्त | सदस्य | प्रान्त | सदस्य |
बंगाल | 20 | उड़ीसा | 5 |
मद्रास (चेन्नई) | 20 | पश्चिमोत्तर प्रदेश | 5 |
संयुक्त प्रान्त | 20 | सिन्ध | 5 |
बम्बई (मुम्बई) | 16 | ब्रिटिश बलूचिस्तान | 1 |
बिहार | 16 | दिल्ली | 1 |
पंजाब | 16 | अजमेर-मारवाड़ | 1 |
मध्यप्रान्त और बरार | 8 | कुर्ग | 1 |
असम | 5 | अन्य | 10 |
साम्प्रदायिक चुनाव-पद्धति के आधार पर 150 सदस्य निर्वाचित होते थे। इनका बँटवारा इस प्रकार किया गया:
सदस्य | संख्या | सदस्य | संख्या |
सामान्य | 75 | यूरोपियन | 7 |
अल्पसंख्यक एवं दलित वर्ग | 6 | आंग्ल भारतीय | 1 |
मुस्लिम | 49 | भारतीय ईसाई | 2 |
सिक्ख | 4 | स्त्रियाँ | 6 |
मद्रास (चेन्नई)
कार्यकाल- राज्यसभा का कार्यकाल 9 वर्ष था। वह आज की राज्यसभा की तरह एक स्थायी सदन था जो कभी भंग नहीं होता था। इसके 1/3 सदस्य प्रत्येक तीन साल के बाद अवकाश ग्रहण करते रहते थे। इसके सदस्य एक अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष निर्वाचित करते थे। मताधिकार काफी सीमित था। केवल धनी व्यक्तियों को ही वह अधिकार दिया गया था।
(2) संघीय सभा- संघीय सभा संघीय विधानमण्डल का निम्न सदन था। वह भारतीय जनता की प्रतिनिधि सभा थी। इसमें 375 सदस्य थे जिनमें 125 देशी राज्यों के प्रतिनिधि थे और 250 ब्रिटिश भारत के। भारत के प्रतिनिधियों की संख्या निम्न प्रकार थी-
निम्नलिखित प्रकार था-
असम | 10 | उड़ीसा | 5 |
मद्रास (चेन्नई) | 37 | पश्चिमोत्तर प्रदेश | 5 |
संयुक्त प्रान्त | 37 | सिन्ध | 5 |
बम्बई (मुम्बई) | 30 | ब्रिटिश बलूचिस्तान | 1 |
बिहार | 30 | दिल्ली | 2 |
पंजाब | 30 | अजमेर-मारवाड़ | 1 |
मध्यप्रान्त और बरार | 15 | कुर्ग | 1 |
कुल= 240
संघीय सभा में विभिन्न सम्प्रदाय, वर्गों तथा स्वार्थों के आधार पर निम्नलिखित प्रकार से प्रतिनिधित्व दिया गया था-
सामान्य(अनुसूचित जातियों के 19 स्थान) – 105
आंग्ल भारतीय – 4
वाणिज्य तथा उद्योग – 11
मुस्लिम – 82
यूरोपियन – 8
श्रम – 10
भूमिपति – 6
भारतीय ईसाई – 8
सिक्ख – 6
स्त्रियाँ – 9
कुल – 250
मूल्यांकन- इस प्रकार, सदस्यों के परोक्ष निर्वाचन की व्यवस्था की गई थी। प्रान्तीय विधानसभाओं के विभिन्न सम्प्रदायों के सदस्यों के सदस्य अपने-अपने सम्प्रदाय के सदस्यों का निर्वाचन करते थे। देशी राज्यों के प्रतिनिधि वहाँ के शासकों द्वारा मनोनीत किये जाते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि संघीय सभा का संगठन दोषपूर्ण था और ब्रिटिश प्रान्तों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में कम स्थान दिया गया था। जहाँ तक विभिन्न सम्प्रदायों का प्रश्न है, उनमें भी स्थानों का बँटवारा उचित रीति से नहीं दिया गया था। ब्रिटिश भारत की जनसंख्या में 70 प्रतिशत हिन्दू थे लेकिन उन्हें जो स्थान प्राप्त हुए थे वे शेष 30 प्रतिशत लोगों के ही समान थे।
पदाधिकारी- संघीय सभा के एक अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष होते थे जिनकी नियुक्ति संघीय सभा के सदस्यों के द्वारा होती थी।
संघीय विधानपालिका के अधिकार और कार्य
1935 ई. के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत विधानमण्डल के निम्नलिखित अधिकार और कार्य थे-
(1) विधायी शक्तियाँ- संघीय विधानपालिका संघ सूची तथा समवर्ती सूची पर कानून निर्मित कर सकती थी। यदि संघीय और प्रान्तीय कानूनों में कोई अन्तर होता था तो संघीय कानून को ही प्राथमिकता दी जाती थी। संघीय विधानपालिका को प्रान्तों तथा कमिश्नरों के प्रान्तों दोनों के लिए कानून बनाने का अधिकार मिला हुआ था। देशी राज्यों के सम्बन्ध में संघीय विधानपालिका उन्हीं विषयों पर कानून बना सकती थी जिन्हें देशी राज्यों के शासकों ने सम्मिलन-विलेखपत्र के दौरान संघ को सौंपा था। किसी विधेयक को कानून का रूप देने के लिए यह आवश्यक था कि संघीय विधानपालिका के दोनों सदनों ने उसे पारित कर दिया हो। यदि गवर्नर-जनरल किसी अवशिष्ट विषय को संघीय विषय घोषित कर देता था तो संजीय विधानमण्डल उस पर कानून निर्माण कर सकता था। दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता था जब तक कि गवर्नर जनरल उस पर अपने हस्ताक्षर नहीं कर देता था। संघीय विधानपालिका के दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में संयुक्त बैठक की व्यवस्था की गई थी।
(2) कार्यकारिणी शक्तियाँ- संघीय विधानपालिका संघीय मन्त्रिमण्डल को नियोजित करती थी। हस्तान्तरित विषयों के प्रशासन से सम्बन्धित मामलों के लिए मन्त्रिमण्डल संघीय सभा के प्रति उत्तरदायी था। संङङ्घीय सभा मन्त्रिमण्डल को अविश्वास के प्रस्ताव द्वारा पदच्युत भी कर सकती थी . लेकिन गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों को हटाने का अधिकार विधानमण्डल के किसी भी सदन को प्राप्त नहीं था। संरक्षित विषयों के सम्बन्ध में संघीय विधानपालिका कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों से प्रश्न और पूरक प्रश्न भी पूछ सकती थी। विधानमण्डल ‘काम रोको’ प्रस्ताव भी पारित कर सकता था। विधानमण्डल में दोनों सदन किसी भी विषय पर प्रस्ताव पारित कर गवर्नर- जनरल के पास भेज सकते थे जिसे मानना या न मानना गवर्नर-जनरल की इच्छा पर निर्भर था।
(3) वित्तीय शक्तियाँ- 1935 ई. भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत संघीय विधानपालिका के वित्त सम्बन्धी अधिकार अत्यधिक सीमित थे। वैसे तो विधानमण्डल के दोनों सदनों के वित्तीय अधिकार प्राप्त थे लेकिन जहाँ तक बजट का प्रश्न है वह सर्वप्रथम संघीय सभा में ही पुनः स्थापित होता था। बजट के दो भाग थे-
(i) भारतीय राजस्व पर भारित व्यय और
(ii) अन्य व्यय।
बजट के पहले भाग पर संघीय विधानमण्डल और बहस करने का तो अधिकार था लेकिन उसमें कटौती का अधिकार प्राप्त नहीं था। 80 प्रतिशत मदों पर वह मतदान के अधिकार से वंचित था। शेष लगभग 20 प्रतिशत व्यय पर संघीय विधानपालिका को कटौती तथा अस्वीकृत करने का अधिकार प्राप्त था । गवर्नर जनरल इस कटौती तथा अस्वीकृत राशि को पुनः स्वीकृत कर सकता था।
आलोचनाएँ- संघीय विधानपालिका के उपर्युक्त कार्यों तथा अधिकारों के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि सिद्धान्तः यह एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी और भारतीयों के हित में महत्त्वपूर्ण कार्य सम्प भी करती थी लेकिन अनेक आलोचकों ने निम्नलिखित आधारों पर संघीय विधानमण्डलों की आलोचना की है-
(1) सीमित विधायी शक्तियाँ- संघीय विधानपालिका विधि-निर्माण के क्षेत्र में शक्तिशाली तो थी लेकिन इस क्षेत्र में भी उसकी शक्तियाँ सीमित ही थीं। संघीय विधानमण्डल को 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम में किसी भी प्रकार का संशोधन करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। ब्रिटिश संसद के विरुद्ध भी वह किसी प्रकार के कानून का निर्माण नहीं कर सकता था।
(2) सम्प्रभु निकाय नहीं- 1935 ई. में भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत संघीय विधानमण्डल सम्प्रभु निकाय नहीं था, क्योंकि केन्द्रीय विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयकों पर गवर्नर- जनरल को निषेधाधिकार मिला हुआ था। वह अपनी इस शक्ति के अन्तर्गत किसी भी विधेयक को अस्वीकृत कर सकता था या ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति के लिए रोक सकता था।
(3) संघीट विधानमण्डल पर गवर्नर जनरल की स्वेच्छाचारिता— यह भी कहा जाता है। कि संघीय विधानमण्डल गवर्नर-जनरल की इच्छा पर निर्भर था अर्थात् संघीय विधानमण्डल गवर्नर- जनरल के विशेष उत्तरदायित्व एवं स्वेच्छाचारी शक्तियों में बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। गवर्नर-जनरल की संरक्षण एव स्वविवेक से सम्बद्ध शक्तियों के चलते केन्द्रीय विधानमण्डल शक्तिशून्य हो गया था।
(4) सीमित वित्तीय शक्तियाँ- संघीय विधानमण्डल की वित्तीय शक्ति की आलोचना करते हुए कहा जाता है कि भारतीय राजस्व पर भारित व्यय के सम्बन्ध में वह बहस कर सकता था लेकिन उनमें कटौती नहीं कर सकता था। 80 प्रतिशत मदों पर विधानमण्डल को मतदान का अधिकार प्राप्त नहीं था। शेष जिन 20 प्रतिशद मंदों पर संघीय विधानमण्डल को जो कटौती अस्वीकृत करने का अधिकार प्राप्त था, वह भी गवर्नर जनरल के स्वविवेक पर निर्भर करता था।
(5) प्रजातन्त्र के विरुद्ध- आलोचकों का यह भी कहना है कि संघीय विधानमण्डल की कार्यवाहियाँ प्रजातन्त्र के विरुद्ध थीं, क्योंकि हर विषय पर असमानता को बरता गया था और गवर्नर- जनरल की स्वेच्छा में जकड़ दिया गया था।
(6) प्रतिक्रियावादी सदन- आलोचकों का एक मत यह भी है कि 1935 ई. के भारत-शासन अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्रीय विधानमण्डल का संगठन असमान तथा प्रतिक्रियावादी था। उसमें सभी वर्गों तथा सम्प्रदायों को समान प्रतिनिधित्व नहीं था और जनसंख्या के अनुपात पर भी ध्यान नहीं दिया गया था।
(7) सीमित मताधिकार- राज्यसभा के सम्बन्ध में एक अन्य आलोचना यह भी की जाती है कि मताधिकार अत्यधिक सीमित था और केवल सम्पन्न व्यक्तियों को ही मताधिकार प्रदान किया जाता था। उतने ब्रिटिश प्रान्तों में लगभग एक लाख व्यक्तियों को ही मताधिकार प्राप्त था, जो उचित नहीं था। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि संघीय विधानपालिका 1935 ई. के भारत-शासन अधिनियम की एक प्रमुख देन थी। अपने अन्तर्निहित दोषों के बावजूद इसके द्वारा पहली बार भारतीयों को मताधिकार प्रदान किया गया। एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की दृष्टि से भारतीय सांविधानिक विकास में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान कहा जा सकता है। इसके द्वारा भारतीयों को कुछ प्रशिक्षण मिला और स्वतन्त्रता सम्बन्धी उनकी माँगे बढ़ती गईं।
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