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1935 अधिनियम के अन्तर्गत संघीय न्यायालय के गठन, अधिकार और कार्य

1935 अधिनियम के अन्तर्गत संघीय न्यायालय के गठन
1935 अधिनियम के अन्तर्गत संघीय न्यायालय के गठन

1935 अधिनियम के अन्तर्गत संघीय न्यायालय के गठन, अधिकार और कार्य

संघीय न्यायालय

संघात्मक शासन व्यवस्था में एक संघीय न्यायालय का रहना आवश्यक समझा जाता है। 1935 ई. के भारत-शासन अधिनियम द्वारा संघीय न्यायालय की स्थापना भी की गई थी जिसका उद्देश्य विभिन्न संघीय इकाइयों के पारस्परिक झगड़ों, मतभेदों और उनके साथ केन्द्र के मतभेदों का निबटारा तथा संविधान की व्याख्या करना था। उस संघीय न्यायालय का उद्घाटन 1 अक्टूबर, 1937 ई. को किया गया था।

संघीय न्यायालय का संगठन

 1935 ई. के अधिनियम में स्थापित संघीय न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा अधिक-से-अधिक 6 अन्य न्यायाधीश नियुक्त किये जा सकते थे। उनकी नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् द्वारा की जाती थी। ब्रिटिश सम्राट न्यायाधीशों की संख्या में संघीय विधानमण्डल की प्रार्थना पर वृद्धि कर सकता था। जहाँ तक न्यायाधीशों की स्वतन्त्र का प्रश्न है, उनके कार्यकाल में उनके वेतन तथा भत्ते में किसी भी प्रकार की कटौती सम्भव नही थी। न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता की रक्षा के उद्देश्य से ही गवर्नर-जनरल तथा संजीव विधानमण्डल को भी उन्हें पदच्युत करने का अधिकार प्रदान नहीं किया गया था।

पदावधि- संघीय न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते थे, लेकिन प्रिवी कौंसिल की न्याय समिति द्वारा सदाचार या शारीरिक तथा मानसिक दुर्बलता के कारण दोषी ठहराये जाने की स्थिति में ब्रिटिश सम्राट उन्हें पदच्युत कर सकता था। न्यायाधीशों की योग्यताएँ- 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित संघीय न्यायालय के न्यायाधीशों की निम्नलिखित योग्यताएँ थीं-

(1) वह ब्रिटिश भारत या भारतीय संघ में सम्मिलित होने वाले किसी भी देशी राज्य के उच्च न्यायालय में कम-से-कम 5 वर्ष न्यायाधीश के पद पर रहा हो या

(2) स्कॉटलैण्ड के एडवोकेट संघ का सदस्य 10 वर्ष तक रहा हो, या

(3) वह इंग्लैण्ड या उत्तरी आयरलैण्ड में 10 वर्ष तक बैरिस्टर रहा हो, या

(4) ब्रिटिश भारत या उसके संघ में शामिल होने वाली किसी देशी रियासत के उच्च न्यायालय का एडवोकेट रहा हो।

जहाँ तक मुख्य न्यायाधीश की योग्यता का प्रश्न हैं, उसके लिए आवश्यक था कि वह 15 वर्ष तक एडवोकेट, बैरिस्टर या वकील अथवा किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो। जब मुख्य न्यायाधीश या स्थान रिक्त होता था तब गवर्नर-जनरल किसी भी न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकता था।

वेतन तथा भत्ते- संघीय न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को वेतन के रूप में 7,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों को 5,500 रुपये प्रतिमाह प्रदान किये जाते थे। ब्रिटिश सम्राट को यह अधिकार था कि वह न्यायाधीशों के वेतन भत्ते तथा पेंशन मन्त्रिपरिषद् की सलाह से निर्धारित करे।

संघीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार

1935 ई. के अधिनियम में संघीय न्यायालय को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त थे-

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार- संघीय न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त था कि वह 1935 ई. के अधिनियम की व्याख्या कर सकता है। इसके अलावा किसी प्रान्त, राज्य या संघ तथा विभिन्न राज्यों के बीच उत्पन्न विवाद के निबटारे के सम्बन्ध में भी संघीय न्यायालय को प्रारम्भिक अधिकार मिले हुए थे।

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार- 1935 ई. के संघीय न्यायालय को अपीलीय क्षेत्राधिकार भी प्राप्त था। इसे प्रान्तों और संघ में शामिल होने वाले देशी राज्यों के उच्च न्यायालय एक निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार मिला हुआ था। ऐसा वह तभी कर सकता था जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणपत्र दे कि सम्बन्धित मामले में कोई संवैधानिक प्रश्न अथवा परिषद् आदेश सम्बन्धी व्याख्या अन्तर्निहित है। विधि की व्याख्या से सम्बन्धित मुकदमें प्रान्तों के उच्च न्यायालयों से संघीय न्यायालय में भेजे जा सकते थे।

(3) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार- संघीय न्यायालय को यह अधिकार भी था कि वह गवर्नर- जनरल को कानूनी या सांविधानिक प्रश्नों पर परामर्श प्रदान करें। गवर्नर-जनरल किसी भी सांविधानिक प्रश्न को अथवा कानून से सम्बन्धित किसी भी अंश को स्पष्टीकरण के लिए संघीय न्यायालय के पास प्रेषित कर सकता था।

(4) संघीय न्यायालय एक अभिकरण न्यायालय के रूप में- 1935 ई. के भारत-शासन अधिनियम के अन्तर्गत संघीय न्यायालय का एक अभिलेख न्यायालय के रूप में कार्य करना था। इसकी समस्त कार्यवाहियों तथा निर्णयों को रिकॉर्ड के रूप में रखा जाता था तथा उन्हें प्रकाशित किया जाता था। गवर्नर-जनरल संघीय न्यायालय के किसी भी प्रकार का कार्य दे सकता था।

आलोचनाएँ- 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत संघीय न्यायालय के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि यह भारत में सबसे बड़ा न्यायालय था लेकिन अनेक तथ्यों के आधार पर इसकी आलोचनाएँ की जाती हैं जो निम्नलिखित हैं–

(1) संघीय न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय तो था लेकिन यह सर्वोच्च न्यायालय नहीं था जो इसका एक महान् दोष था। इसके निर्णयों के विरुद्ध प्रिवी कौंसिल की न्याय समिति के पास अपील की जा सकती थी।

(2) संघीय न्यायालय की एक अन्य आलोचना इस प्रकार की जाती है कि इसके न्यायाधीशों की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् द्वारा होती थी, जो अंग्रेजी हुकूमत की रक्षा में ही कार्य कर सकते थे।

उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम में स्थापित संघीय न्यायालय भारत का प्रथम अखिल भारतीय न्यायालय था और 13 वर्षों तक उसने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संघीय न्यायालय ने जनता के नागरिक अधिकारों की रक्षा कार्यकारिणी की ज्यादतियों से की। इसने काफी निष्पता से अपने कार्यों का सम्पादन किया और 1950 ई. में इसे भारत का सर्वोच्च न्यायालय बना दिया गया। इसके बाद से इसके संगठन तथा कार्यप्रणाली में परिवर्तन भारतीय संविधान के अनुसार किया गया है।

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