राजनीति विज्ञान / Political Science

1935 ई. के अधिनियम में प्रान्तीय कार्यपालिका की विवेचना कीजिए।

1935 ई. के अधिनियम में प्रान्तीय कार्यपालिका
1935 ई. के अधिनियम में प्रान्तीय कार्यपालिका

1935 ई. के अधिनियम में प्रान्तीय कार्यपालिका

1935 ई. के अधिनियम में प्रस्तावित संघीय शासन को केन्द्र में लागू न कर केवल भारत के 11 प्रान्तों में ही लागू किया गया। इन प्रान्तों के शासन को गवर्नरों के विशेष उत्तरदायित्व के अन्तर्गत रखा गया था। जहाँ तक प्रान्तीय कार्यपालिका का प्रश्न है, उसके दो अंग गवर्नर और मन्त्रिपरिषद् हैं। 1935 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्त की कार्यपालिका शक्ति गवर्नर के अन्तर्गत निहित थी। वह प्रान्तीय कार्यपालिका का प्रमुख तथा भारत में ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि था।

गवर्नर की नियुक्ति- विभिन्न प्रान्तों के गवर्नरों की नियुक्ति में भी अन्तर था । मुम्बई, चेन्नई तथा बंगाल के गवर्नरों की नियुक्ति भारत सचिव की संस्तुति पर ब्रिटिश सम्राट करता था लेकिन अन्य शेष प्रान्तों के गवर्नरों की नियुक्ति गवर्नर-जनरल की सिफारिश पर ब्रिटिश सम्राट द्वारा की जाती थी। मुम्बई, चेन्नई तथा बंगाल में ग्रेट ब्रिटेन के सार्वजनिक जीवन में भाग लेने वाले धनी लोगों को गवर्नर के पद पर नियुक्त किया जाता था। जहाँ तक अन्य प्रान्तों का प्रश्न था, भारतीय सिविल सर्विस के उच्च पदाधिकारी गवर्नर नियुक्त किये जाते थे। गवर्नरों की कार्यावधि 5 वर्ष थी और भारतीय राजस्व से उन्हें वेतन तथा भते प्रदान किये जाते थे। गवर्नर प्रान्तीय मन्त्रिमण्डल के नियन्त्रण से पूरी तरह मुक्त थे।

गवर्नर के अधिकार और कार्य

1935 ई. के भारत-शासन अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नरों को प्रान्तीय प्रशासन का केन्द्र बिन्दु बनाया गया था। यदि हम कहें कि गवर्नर ही प्रान्तीय प्रशासन का संचालक था तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हो सकती हैं। गवर्नरों को निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त थीं-

(अ) कार्यपालिका की शक्तियाँ- यह स्पष्ट किया जा चुका है कि 1935 ई. के अधिनियम में गवर्नर ही कार्यपालिका का प्रधान था इसलिए समस्त कार्यपालिका शक्ति उसी में समाहित थी। गवर्नर की कार्यपालिका-शक्ति को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-

कार्यपालिका शक्तियाँ

(I) स्वविवेकी शक्तियाँ

(II) व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियाँ

(III) मन्त्रियों के परामर्श पर प्रयोज्य शक्तियाँ

(I) स्वविवेकी शक्तियाँ- प्रान्तों के गवर्नरों को निम्नलिखित विषयों के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार प्राप्त था-

(1) मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता करना।

(2) मन्त्रियों की नियुक्ति और पदच्युति करना ।

(3) प्रान्तीय प्रशासन के संचालन के लिए नियम बनाना।

(4) प्रान्तीय विधानमण्डल को बुलाना तथा स्थगित करना और उसके निचले सदन को भंग करना।

(5) इस बात का निर्णय करना कि किसी मामले में उसे अपनी स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग करना है अथवा नहीं।

(6) किसी विधेयक पर हुए मतभेद की स्थिति में दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाना।

(7) किसी विधेयक या किसी भी अनुच्छेद पर विशेष परिस्थिति में वाद-विवाद को स्थगित करना।

(8) इस बात का निर्णय करना कि व्यय का कोई मद मतदान के योग्य है अथवा नहीं।

(9) गवर्नर अधिनयम बनाता था, जिसे गवर्नर एक्ट कहा जाता था।

(10) अध्यादेश जारी करना।

(11) प्रान्तीय लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को नियुक्त करना।

(12) उपवर्जित क्षेत्रों में अच्छी सरकार के संगठन एवं शान्ति स्थापना से सम्बन्धित नियम बनाना।

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि 1935 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तों के गवर्नरों को विस्तृत कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे।

(II) व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियाँ- 1935 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तों के गवर्नरों को कुछ ऐसी जिम्मेदारियाँ भी दी गई थीं जिनके पालन के सम्बन्ध में वह अपने व्यक्तिगत निर्णय के अनुसार कार्य कर सकता था। इन विषयों पर गवर्नर के लिए मन्त्रियों से परामर्श करना आवश्यक था लेकिन यह आवश्यक नहीं था कि वे मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य सम्पन्न करें। गवर्नरों के विशेष उत्तरदायित्वों को निम्नलिखित रूप में रखा जा सकता है-

(1) अपने प्रान्त या उसके किसी भाग में शान्ति एवं सुव्यवस्था भंग करने वाले खतरे की सम्भावना को दूर करना।

(2) अपने प्रान्त के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करना।

(3) अधिनियम के अन्तर्गत प्राप्त सरकारी अधिकारियों और उनके आश्रितों के अधिकारों की रक्षा करना।

(4) देशी राज्यों के अधिकारों और उनके शासनों की मर्यादा की रक्षा करना।

(5) अपने प्रान्त के अपवर्जित क्षेत्रों के प्रशासन का प्रबन्ध करना।

(6) गवर्नर-जनरल द्वारा जारी किये गये आदेशों और निर्देशों का पालन करना।

(III) मन्त्रियों के परामर्श पर प्रयोज्य शक्तियाँ- 1935 ई. के अधिनियम में प्रान्तीय स्वराज्य के अन्तर्गत गवर्नरों से यह आशा की गई थी कि अपनी स्वविवेकी तथा व्यक्तिगत निर्णयों की शक्तियों का कम-से-कम उपयोग करेंगे तथा मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करेंगे। लेकिन व्यावाहरिक रूप में गवर्नर एक वास्तविक प्रधान बन गया और सांविधानिक प्रधान की बात ज्यों-की-त्यों रह गई।

(ब) विधायी शक्तियाँ- 1935 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत भारतीय प्रान्तों के गवर्नरों को निम्नलिखित विधायी शक्तियाँ प्राप्त थीं-

(1) वह प्रान्तीय विधानमण्डल के सदनों की संयुक्त बैठक बुलाता था, स्थगित करता और विधानसभा को भंग करता था।

(2) गवर्नर प्रान्तीय विधानमण्डल की संयुक्त बैठक बुलाता था और उसके सामने भाषण देता था।

(3) वह दोनों सदनों को सन्देश भेजता था।

(4) किसी भी विधेयक पर दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में वह संयुक्त बैठक बुलाता था।

(5) वह किसी भी विधेयक को विधानमण्डल के पास पुनः विचार के लिए लौटा सकता था।

(6) वह विधानमण्डल के कार्य संचालन के लिए नियम बनाता था।

(7) वह देशी राज्यों से सम्बन्धित वाद-विवाद को स्थगित कर सकता था।

(8) वह शान्ति पर सुव्यवस्था भंग करने वाले विधेयकों को रोक सकता था।

(9) गवर्नर अपने कार्यों के सम्पादन के लिए अधिनियम का निर्माण कर सकता था लेकिन इसके लिए गवर्नर-जनरल की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी।

(10) गवर्नर अध्यादेश जारी कर सकता था।

(11) अधिनियम के अनुच्छेद 93 के अनुसार गवर्नर गवर्नर को यह अधिकार प्राप्त था कि वह प्रान्तीय शासन का कोई या सम्पूर्ण अधिकार अपने हाथ में ले ले।

(स) वित्तीय अधिकार – 1935 ई. के अधिनियम में गवर्नर को अनेक महत्त्वपूर्ण वित्तीय शक्तियाँ प्राप्त थीं। गवर्नर ही बजट तैयार करता था तथा उसे विधानमण्डल के सामने प्रस्तुत कर सकता था। किसी भी अनुदान के लिए माँग गवर्नर की आज्ञा से ही प्रस्तुत की जा सकती थी। गवर्नर ही प्रान्तीय राजस्व पर भारित व्यय की मदों का निर्णय करता था।

मूल्यांकन- 1935 ई. के भारत शासन अधनियम में गवर्नरों को दिये गये अधिकारों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि वह प्रान्तीय प्रशासन रूपी नौका का कर्णधार था क्योंकि उसकी शक्तियाँ व्यापक एवं विस्तृत थीं। गवर्नर की शक्तियों की आलोचना निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट है—

(1) आलोचकों का यह मत है कि गवर्नर की व्यापक शक्तियों के समक्ष प्रान्तीय स्वायत्तता एक मजाक थी। यह आश्चर्य है कि अधिनियम के निर्माताओं ने यह अनुभव नहीं किया कि इतनी शक्तियों से सम्पन्न गवर्नर प्रान्तीय स्वायत्तता के सन्दर्भ में उपयुक्त नहीं हो सकता था। एक तरफ स्वायत्तता और दूसरी तरफ गवर्नरों की तानाशाही साथ-साथ नहीं चल सकती थी। वह एक म्यान से दो तेज तलवर रखने जैसी थी।

(2) सर सैमुअल होर का कहना है, “गवर्नर के विशेष उत्तरदायित्व इतने विस्तृत थे कि लगभग सम्पूर्ण शासन क्षेत्र ही उसके अन्तर्गत आ जाता था और वे प्रान्तीय शासन में उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के लिए खतरनाक थे।”

(3) आलोचकों की यह भी राय है कि अधिनियम के द्वारा गवर्नर को केवल सांविधानिक प्रधान बनाया गया था, लेकिन व्यवहारतः वह एक वास्तविक प्रधान हो गया था। सर चिमनलाल सेतलवाद ने कहा है, “प्रान्तीय उत्तरदायित्व को गवर्नरों के संरक्षण, रक्षा कवच और स्वेच्छा से गड्ढे में गाड़ दिया गया था।” अतएव प्रान्तीय स्वायत्तता एक दिखावा था जिसमें गवर्नरों की तानाशाही बनी रही। एक आलोचक ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है, “नये भारतीय संविधान को स्वायत्त शासन की एक इमारत कहना एक बहुत बड़ा ‘मजाक’ है जिसका आनन्द केवल मजाक करने वाला ही ले सकता है न कि वे लोग जिसके लिए तथा जिसके मूल्य पर यह किया गाय हो।”

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रान्तीय स्वायत्तता गवर्नरों के हाथों का एक मखौल था जिसका सदुपयोग गवर्नरों ने अपनी स्वविवेकी शक्तियों और विशेष उत्तरदायित्व के अन्तर्गत किया। अधिनियम के अनुसार गवर्नर को प्रान्तीय प्रशासन का मूल स्रोत एवं केन्द्र बिन्दु बना दिया गया था। इससे प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना नहीं हो सकी।

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