द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1931 (Second Round Table Conference)
गांधी इर्विन समझौते के कुछ ही दिनों बाद लार्ड इर्विन के स्थान पर अनुदारवादी लार्ड विलिंगडन के भारत के वायसराय होकर आते ही सरकार तथा नौकरशाही द्वारा इस समझौते का उल्लंघन प्रारम्भ हो गया। लार्ड विलिंगडन कांग्रेस को कुचल देने के दृढ़ निश्चय के साथ 17 अप्रैल, 1931 को वायसराय होकर भारत आये। भारतीयों के सहृदयता के नाटक करने वाले वायसराय महोदय को इस समझौते में कोई रुचि नहीं थी। वह इसके उल्लंघन की नीति में विश्वास करते थे। इससे प्रोत्साहित होकर नौकरशाही ने उसका खुला उल्लंघन शुरू कर दिया। पुलिस ने कांग्रेसियों, उनके परिवार के सदस्यों तथा सामान्यजन के साथ दुर्व्यवहार और उन पर अत्याचार करना जारी रखा।
‘लार्ड विलिंगडन’ ने समझौते के उल्लंघन करने वाले अधिकारियों तथा पुलिसजन के व्यवहार का समर्थन किया। इससे कांग्रेस और सरकार के बीच तनाव बढ़ गया। गाँधी जी ने 20 जून, 1931 को भारत के गृह सचिव एच. डब्लू इमरसन को पत्र लिखकर समझौते के उल्लंघन की जाँच कराने की माँग तथा 21 जुलाई को एक पत्र के माध्यम से उन्होने सुझाव दिया कि इसके लिए स्थायी समझौता बोर्ड का गठन किया जाय। मि. इमरसन ने 30 जुलाई को इसे अस्वीकार कर दिया। उन्होंने प्रान्तीय स्तर पर भी जाँच बोर्ड बनाने का सुझाव दिया। वह भी अस्वीकार कर दिया गया। इसी बीच ब्रिटेन की परिस्थिति में भी परिवर्तन हुआ।
इन परिस्थितियों के बीच दूसरा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया तथा वह 7 सितम्बर, 1931 को प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार का सम्मेलन आयोजित करने की बात गांधी इर्विन समझौते के अन्तर्गत ही तय हो गयी थी। गाँधी जी तथा कांग्रेस के अन्य प्रतिनिधि इसमें भाग लेने के लिए सहमत थे .. परन्तु ‘जाँच बोर्ड’ बनाने का अपना सुझाव अस्वीकार कर दिये जाने, बारदोली के किसानों से लगान वसूली के तरीके पर बम्बई सरकार का सन्तोषजनक उत्तर न प्राप्त होने से तथा संयुक्त प्रान्त, सीमा प्रान्त और अन्य प्रान्तों में सरकारी दमन से क्षुब्ध होने के कारण गांधी जी ने सम्मेलन में भाग लेने का सरकार का नियन्त्रण अस्वीकार कर दिया।
वह इस बात से भी असन्तुष्ट थे कि सरकार यह सिद्ध करना चाहती हैं कि कांग्रेस केवल हिन्दुओं की संस्था है। भूतपूर्व वायसराय लार्ड इर्विन से यह बात तय हुई थी कि कांग्रेसी प्रतिनिधि मण्डल में डॉक्टर अंसारी भी रहेंगे परन्तु नये वायसराय लार्ड विलिंगडन ने कांग्रेस को बदनाम करने के लिए प्रतिनिधि मण्डल से उनका नाम काट दिया। इन सभी कारणों से क्षुब्ध हो सम्मेलन में भाग लेने का निमन्त्रण अस्वीकार करते हुए वह 13 अगस्त, 1931 को बम्बई से अहमदाबाद चले गये। कांग्रेस के अन्य प्रतिनिधियों (सर प्रभाशंकर पट्टनी, पं. मदनमोहन मालवीय तथा श्रीमती सरोजनी नायडू) ने भी लन्दन जाने का विचार त्याग दिया।
गांधी जी का निश्चय जानने के बाद वायसराय महोदय ने उन्हें एक पत्र लिखा कि यह समझौते के एक मुख्य लक्ष्य की विफलता के रूप में माना जायेगा। इधर तेजबहादुर सप्रू और डाक्टर जयकर ने भी दोनों के बीच समझौता कराने का प्रयास किया। लार्ड विलिंगडन के पत्र तथा इस प्रयास के फलस्वरूप गांधी जी के निश्चय में परिवर्तन हुआ। उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और सर प्रभाशंकर पट्टनी के साथ 27 अगस्त, 1931 को वायसराय से शिमला में भेंट की। समझौता न तोड़ने की लार्ड बिलिंगडन की अपील तथा नासिक के कलक्टर द्वारा बारदोली की समस्या की जाँच कराने की बात स्वीकार कर लिये जाने के कारण वह सम्मेलन में भाग लेने के लिए सहमत हो गये तथा इसके लिए वह कांग्रेस के अकेले प्रतिनिधि के रूप में 29 अगस्त, 1931 को लन्दन रवाना हुए। पं. मदनमोहन मालवीय तथा श्रीमती सरोजनी नायडू को सरकार ने व्यक्तिगत स्तर पर इसमें भाग लेने के लिए मनोनीत किया।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 को लन्दन में प्रारम्भ हुआ जिसमें 114 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उसमें भारत के भावी संवैधानिक ढाँचे तथा अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के बारे में मुख्य रूप से विचार-विमर्श किया गया। गाँधीजी ने केन्द्र में उत्तरदायी शासन, संघीय व्यवस्था और संरक्षण पर बल देते हुए कहा कि यदि भारत को प्रतिरक्षा एवं वैदेशिक मामलों पर पूरा नियन्त्रण दे दिया जाय तो पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग छोड़ दी जायेगी। सम्मेलन में भाग लेने वाले देशी रियासतों के 60 प्रतिनिधियों ने संघीय व्यवस्था का विरोध किया तथा उन्होंने भारत को स्वतन्त्रता और भावी संवैधानिक ढाँचे में कोई रुचि नहीं दिखलायी क्योंकि उन्हें अपने सत्ता के अस्तित्व कि चिन्ता थी। वे क्राउन की सत्ता को सर्वोपरि मानते हुए राज्य संघ की स्थापना के पक्षधर थे।
मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों ने मुसलमानों तथा डाक्टर अम्बेदकर ने हरिजनों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग पर बल दिया। गांधी जी ने हरिजनों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व का विरोध किया। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने जिसमें अनुदारवादियों एवं उदारवादियों का प्रभाव था, घोषित किया कि भारत के प्रति सरकार की पूर्ववर्ती नीति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। उस सरकार में भी लेवर पार्टी के नेता रैमजे मैकडाइल्ड ही प्रधानमन्त्री थे परन्तु अनुदारवादी ‘सर सैमुअल होर’ भारत मन्त्री थे जो ‘साइमन कमीशन की संस्तुतियों से अधिक कुछ भी नहीं देने के पक्षधर थे। वह भारत को स्वतन्त्रता देने के पक्ष में नहीं थे। लेबर पार्टी के नेता एटली ने भी सत्ता हस्तान्तरण के बजाय श्रमिकों को प्रतिनिधित्व देने तथा वयस्क मताधिकार पर बल दिया।
इस सम्मेलन में भारत के भावी संवैधानिक ढाँचे के बारे में कई बातें निश्चित हुईं परन्तु साम्प्रदायिक समस्या का कोई समाधान नहीं हो सका। पृथक् प्रतिनिधित्व का गांधी जी ने जोरदार विरोध करते हुए नेहरू रिपोर्ट के आधार पर साम्प्रदायिक समस्या के समाधान का पूरा प्रयास किया परन्तु सरकार की ‘फूट डालो नीति’ के कारण वह विफल रहे। कुल मिलाकर यह सम्मेलन अपनी असफलता के साथ 1 दिसम्बर, 1931 को समाप्त हो गया। इसमें ब्रिटिश सरकार की नीति के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि वह वस्तुतः भारतीय समस्याओं के समाधन के लिए उत्सुक नहीं थी। उसने मूलभूत प्रश्नों की उपेक्षा की तथा मामूली बातों और नयी समस्याओं को पैदा करने पर समय नष्ट किया। इसकी विफलता के लिए प्रो. लास्की ने सैमुअल होर और मुस्लिम प्रतिनिधियों को दोषी ठहराया।
इसकी विफलता के बाद गांधीजी निराश होकर स्वदेश लौटे। इधर वायसराय विलिंगडन ने कांग्रेस को पूरी तरह कुचल देने की नीयत से उस पर तथा उसके नेताओं पर आरोप करते का शासन स्थापित कर दिया। उनके निर्देशन में नौकरशाहों ने गांधी इर्विन समझौते की शर्तों का हुए अध्यादेशों खुला शुरू कर दिया। खान अब्दुल गफ्फार खाँ, पं. जवाहर लाल नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टण्डन सहित अनेक नेता गिरफ्तार कर लिये गये। जब 28 दिसम्बर, 1931 को स्वदेश लौटने पर गांधीजी को सरकारी दमन की जानकारी मिली तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ। उन्होंने वायसराय से बातचीत का प्रस्ताव किया जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया।
विवश होकर गांधी जी अग्नि परीक्षा के रूप में पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने की 3 जनवरी, 1932 को राष्ट्र से अपील की। 4 जनवरी, 1932 को उन्हें और सरदार बल्लभ भाई पटेल तथा बाद में अन्य कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। सत्याग्रहियों पर लाठी चार्ज, गोली वर्षा, उनकी सम्पत्ति को जब्ती तथा भारी पैमाने पर उनकी गिरफ्तारी आम बात हो गयी। चार महीने के भीतर आन्दोलन के सिलसिले में 66 हजार व्यक्ति संख्या में गिरफ्तार किये गये जिसमें 3 हजार तो स्त्रियाँ ही थीं। चारों तरफ दमनकारी अध्यादेशों का शासन हो गया। कांग्रेस एक अवैधानिक संस्था घोषित कर दी गयी तथा उसके कार्यालयों पर सरकारी कब्जा हो गया।
एक अध्यादेश के जरिये कार्यपालिका को इतना अधिकार दे दिया गया कि वह सन्देह के आधार पर ही किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकती थी। संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि कांग्रेस को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार जितना भी कठोर कदम उठा सकती थीं, उसने उसे उठाया। स्वयं भारत मन्त्री सर सैमुअल होर ने 24 मार्च, 1932 को ‘हाउस ऑफ कामन्स’ में स्वीकार किया कि ये आदेश अत्यन्त कठोर और कष्टदायक हैं। चर्चिल ने तो यहाँ तक कहा कि सरकार की यह दमनकारी नीति 1857 के गदर के बाद की सबसे कठोर नीति है।
यह शासन की इस कठोर नीति के बावजूद पुनः प्रारम्भ किया गया कि यह सविनय अवज्ञा आन्दोलन अपने प्रारम्भिक चरण में तो उम्र रहा परन्तु इसकी तेजी में धीरे-धीरे कमी आने लगी अतः 8 मई, 1933 को गांधी जी रिहा कर दिये गये तथा उन्होंने 19 मई, 1933 को यह आन्दोलन 12 सप्ताह के लिए स्थगित करने की घोषणा कर दी। इस अवधि के बाद व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत हुई जो नौ माह तक चला। गांधी जी ने इसे भी सात अप्रैल, 1934 को समाप्त कर दिया। उनकी इस कार्रवाई पर कांग्रेस पार्टी के नेताओं और सामान्य कांग्रेस जन को बहुत क्षोभ एवं कष्ट हुआ तथा उन्होंने इसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया प्रकट की। पं. जवाहर लाल नेहरू और एफ. नरीमैन ने इस पर अपना क्षोभ प्रकट करते हुए कांग्रेस नेतृत्व की कटु आलोचना की।
सुभाषचन्द्र बोस और विट्ठल भाई पटेल ने तो यहाँ तक कह दिया कि गांधी जी राजनीतिक नेता के रूप में असफल सिद्ध हुए। क्षोभ एवं आलोचना के इस वातावरण में गांधी जी 28 नवम्बर, 1934 को कांग्रेस से अलग हो गये। उन्होंने अछूतोद्धार और रचनात्मक कार्यों में समय लगाने की घोषणा की।
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