द्वैध शासन से आप क्या समझते हैं?
द्वैध या दोहरे शासन का अर्थ– 1919 के अधिनियम के अनुसार जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह प्रान्तीय ढाँचे में था। प्रान्तों में दोहरा शासन जारी किया गया। अंग्रेजी में दोहरे शासन को डाई आर्की कहा जाता है। डाइआक दो शब्दों से मिलकर बना है। डि ताथा आर्किया। डि का अर्थ है- दो और आर्किया का अर्थ है- शासन इस तरह से इसका अर्थ दो शासकों का शासन या दोहरा शासन इस अधिनियम के अनुसार प्रान्तों में थोड़ी-सी उत्तरदायी सरकार जारी की गयी। 1919 के एक्ट से पहले भारत में एकात्मक सरकार थी और सारे विषय ही केन्द्रीय माने जाते थे। उस समय केन्द्रीय सरकरा शासन को अच्छी तरह चलाने के लिए कुछ विभागों या विषयों को अपनी इच्छा के अनुसार प्रान्तों को दे देती थी। इस अधिनियम के अनुसार केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों का पहली बार बँटवारा किया। बाद में प्रान्तीय विषयों को भी दो भागों में बाँटा गया- आरक्षित विषय तथा हस्तान्तरित विषय आरक्षित विषयों के शासन को गवर्नर अफनी कार्यकारिणी परिषद् की सहायता से चलाता था। उसकी कार्यकारिणी परिषद के सदस्य प्रान्तीय विधान परिषद् की तरफ जिम्मेवार नहीं होते थे। हस्तान्तरित विषयों को भारतीय मन्त्रियों को दे दिया गया। वे प्रान्तीय विधान परिषद् की तरफ जिम्मेदार होते ते प्रान्तों में इस प्रकार की शासन व्यवस्था को ही दोहरा शासन कहा जाता था।
द्वैध शासन की विशेषताएँ
केन्द्र तथा प्रान्तों के विषयों पर बँटवारा- दोहरे शासन को विस्तारपूर्वक बताने से पहले केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों के बँटवारे पर थोड़ा-सा प्रकाश डालना आवश्यक है। जो विषय सारे भारत के हित के थे, उनको केन्द्रीय विषाल रखा गया 47 विषयों को केन्द्रीय विषय बनाया गया। उदाहरणस्वरूप, प्रतिरक्षा, विदेशों से सम्बन्ध, भारत से बाहर यात्रा, विदेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान करना, सीमा शुल्क, देशी रियासतों से सम्बन्ध, आवागमन के साधन (रेल, हवाई जहाज, पानी का जहाज), रुई इत्यादि पर उत्पादन कर, नमक, आयकर, डाकखाने, सिक्के तथा नोट, भारत में सार्वजनिक ऋण, वाणिज्य जिसमें बैंक तथा बीमा इत्यादि भी शामिल थे, केन्द्र को दिये गये। उदाहरणस्वरूप स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सफाई, चिकित्सा विभाग, शिक्षा, पानी की सप्लाई, पुलिस तथा जेल, न्याय, सहकारिता, जंगल, सिंचाई, अकाल में सहायता, कृषि, भूमिकर इत्यादि विषय प्रान्तीय सरकारों को दिये गये। यह भी व्यवस्था की गई कि यदि गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् किसी भी केन्द्रीय विषय को स्थानीय हित का घोषित कर दे तो उस विषय पर प्रान्तों को कानून बनाने का अधिकार हो जायेगा।
इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि जो विषय सूची में शामिल नहीं किये गये हैं, उन सब पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र हो जायेगा। इसका यह अर्थ है कि शेष विषयों पर कानून बनाने की शक्तियाँ केन्द्र को दे दी गयीं। जब कभी यह विवाद उत्पन्न हो जाता था कि कोई विषय प्रान्तीय है अथवा केन्द्रीय उस समय गवर्नर जनरल का निर्णय अन्तिम समझा जाता था। केन्द्रीय सरकरा को भी सब प्रान्तीय विषयों पर कानून बनाने की आज्ञा दी गई, परन्तु ऐसा करने से पूर्व केन्द्रीय विधानमण्डल को गवर्नर जनरल से विशेष आज्ञा प्राप्त करनी पड़ती थी। 1919 के अधिनियम के अनुसार केन्द्र तथा प्रान्तों में विषय का बँटवारा कोई सख्त नहीं था। गवर्नर जनरल को इस बारे में काफी शक्तियाँ प्राप्त थीं क्योंकि विषयों के बंटवारे के बावजूद केन्द्र में संघात्मक सरकार जारी नहीं की गई थी। केन्द्र में 1919 के अधिनियम के अनुसार एकात्मक सरकार ही थी।
प्रान्तों में आरक्षित तथा हस्तान्तरित विषयों का बँटवारा- प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया आरक्षित तथा हस्तान्तरित। जिन विषयों को भारतीयों को देने से ब्रिटिश सरकार का कोई अहित नहीं होता था जिनमें गलती होने से ब्रिटिश सरकार को कोई विशेष हानि पहुँचने की सम्भावना नहीं थी और जिनका नियन्त्रण भारतीय अपने हाथों में विकास की दृष्टि से अधिक चाहते थे, उन विषयों को हस्तान्तरित किया गया। उसके शासन की जिम्मेदारी भारतीय मन्त्रियों के हाथों में दी गई। उदाहरणस्वरूप, स्थानीय स्वशासन, चिकित्सा शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाई, ब्रिटिश भारत में यात्रा, यूरोपियन और आंग्ल भारतीयों की शिक्षा को छोड़कर शेष जनता की शिक्षा, सार्वजनिक कार्य, कृषि, सहकारी समितियाँ, मछली क्षेत्र, उद्योग धन्धे, खाद्य वस्तुओं में मिलावट जन्म तथा मृत्यु सम्बन्धी आँकड़े तौल और माप इत्यादि विषय हस्तान्तरित रखे गये। 50 विषय में से लगभग 22 विषय हस्तान्तरित रखे गये, शेष विषय आरक्षित रखे गये। जितने भी अधिक महत्त्वपूर्ण विषय थे, वे सब आरक्षित रखे गये। उदाहरणस्वरूप भूमिकर, अकाल सहायता, न्याय- प्रशासन, खनिज साधनों का विकास, उत्पादन पूर्ति और बाँट पर नियन्त्रण, पुलिस, समाचार-पत्रों, पुस्तकों और छापेखानों पर नियन्त्रण, प्रान्तीय सरकार के नाम पर उधार लेना, प्रान्तीय वित्त इत्यादि आरक्षित विषय रखे गये। आरक्षित विषयों के शासन की जिम्मेदारी गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् की रखी गयी। गवर्नर अपनी कार्यकारिणी सहित इन विषयों के शासन के लिए प्रान्तीय विधान परिषद् की तरफ जिम्मेदार न होकर गवर्नर जनरल तथा भारत सचिव की तरफ ही जिम्मेदार थे जो स्वयं लन्दन में ब्रिटिश सरकार तथा पार्लियामेण्ट की तरफ जिम्मेदार थे। इस तरह से रिज़र्व या आरक्षित विषयों पर प्रान्तीय विधान परिषद् का नियन्त्रण नहीं किया। जहाँ यह विवाद उत्पन्न होता था कि कोई विषय आरक्षित था अथवा हस्तान्तरित, वहाँ गवर्नर का निर्णय अन्तिम समझा जाता था।
प्रान्तों पर केन्द्रीय नियन्त्रण में ढिलाई – प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकार को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक हो गया कि केन्द्र का पान्तों पर कुछ नियन्त्रण ढीला किया जाये। 1919 की एक्ट के पूर्व प्रत्येक प्रान्तीय विषय के लिए गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी परन्तु 1919 के अधिनियम के अनुसार यह निर्धारित किया गया कि प्रान्तीय सूची पर कानून बनाने के लिए कुछ विशेष मामलों को छोड़कर शेष मामलों में गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी। केन्द्रीय सरकार उस समय प्रायः हस्तक्षेप नहीं करती थी जब प्रान्तीय किसी हस्तान्तरित विषय पर कानून बनाती थी परन्तु जब यह किसी आरक्षित विषय पर कानून बनाती थी तो यह (केन्द्र सरकार) कभी-कभी हस्तक्षेप करती थी।
जहाँ कानूनी क्षेत्र में कुछ केन्द्रीय नियन्त्रण में ढिलाई की गई, वहाँ शासन सम्बन्धी क्षेत्रों में भी कुछ ढिलाई आवश्यक हो गई। जहाँ तक 1919 के अधिनियम का सम्बन्ध था, उसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय सरकार की निगरानी, निर्देश और नियन्त्रण में रहेंगी और उनका यह कर्तव्य होगा कि वे सरकार को हर महत्त्वपूर्ण मामले की सूचना देती रहें। जहाँ तक हस्तान्तरित विषयों का सम्बन्ध था भारत सरकार (केन्द्रीय सरकार) का नियन्त्रण बहुत ढीला कर दिया गया और यह प्रान्तों के मामलों में प्रायः हस्तक्षेप नहीं करती थी परन्तु जहाँ तक आरक्षित विषयों का सम्बन्ध था। केन्द्रीय सरकार का प्रान्तीय सरकारों पर नियन्त्रण बहुत ढीला नहीं किया गया। उदाहरणस्वरूप क्रान्तिकारी और राजनीतिक आन्दोलनों को दबाने के लिए भारत सरकार का गृह विभाग सारे प्रान्तों को निर्देश जारी करता था और उनका प्रान्तों को पालन करना पड़ता था।
वित्तीय क्षेत्र में भी केन्द्रीय नियन्त्रण कुछ ढीला किया गया। प्रान्तों को कुछ विषयों पर अलग कर लगाने की आज्ञा दी गई। प्रान्तों को कुछ अलग साधनों से टैक्स इकट्टा करने की भी आज्ञा दे दी गई। इस तरह से केन्द्र और प्रान्तों के राजस्व के साधनों को अलग-अलग कर दिया गया। इससे प्रान्तीय सरकारों की केन्द्रीय सरकार पर निर्भरता कुछ कम हो गई और प्रान्त काफी हद तक वित्तीय मामलों में आत्मनिर्भर बन गये। इस तरह से 1919 के अधिनियम का बड़ा भारी महत्व है कि इसके द्वारा चाहे प्रान्तीय स्वराज्य एक दम न शुरू किया गया हो परन्तु इसके द्वारा उस दिशा मैं पहला कदम अवश्य उठाया गया। इसी मार्ग पर चलते हुए बाद में 1935 के अधिनियम के अनुसार प्रान्तीय स्वराज्य एक वास्तविकता बन गया।
दोहरा शासन
हमने यह बता दिया है कि प्रान्तों में थोड़ी-सी उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए विषयों को हस्तान्तरित तथा आरक्षित में बाँटा गया। उसी के बारे में आगे बताया गया है-
गवर्नर तथा उसके मन्त्री (हस्तान्तरित विषय)- हस्तान्तरित विषयों का प्रान्तों में शासन चलने के लिए मन्त्री नियुक्त किये गये। उनकी अधिक से अधिक संख्या निश्चित की गई। बम्बई (मुम्बई) कलकत्ता और मद्रास (चेन्नई) में तीन मन्त्री नियुक्त किये गये और शेष प्रान्तों में केवल दो मन्त्री वास्तव में नियुक्त किये गये। मन्त्री गवर्नर द्वारा नियुक्त किये जाते थे और उनके प्रसादपर्यन्त (कृपा तक) अपने पद पर बने रहते थे। मन्त्रियों को विधान परिषद् के सदस्यों में से प्रायः नियुक्त किया जाता था। किसी भी सरकारी अधिकारी को मन्त्री नियुक्त नहीं किया जा सकता था।
यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त कर दिया जाता था जो विधान परिषद् का सदस्य नहीं था तो उसे 6 महीने के अन्तर विधान परिषद् का सदस्य बनना पड़ता था। यदि वह व्यक्ति 6 महीने में सदस्य नहीं बन सकता था तो वह मन्त्रिपरिषद् पर नहीं रह सकता था।
संयुक्त चयन समिति ने यह सिफारिश की थी कि मन्त्रियों को तब तक उनता ही वेतन मिले, जितना गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों को मिले, जब तक प्रान्तीय विधान परिषद् उसमें कोई कमी न करे। इसका यह परिणाम हुआ कि इस एक्ट में प्रान्तीय विधान परिषद् को मन्त्रियों के वेतन में कटौती का अधिकार दे दिया गया था। मुम्बई विधान परिषद् ने वास्तव में प्रत्येक मन्त्री का वार्षिक वेतन 64,000 रु. से घटकर 48,000 रु. कर दिया था।
व्यवहार में गवर्नर ऐसे व्यक्तियों को मन्त्री नियुक्त करता था जिनके पीछे विधान परिषद् के कुछ सदस्य हों। जिन व्यक्तियों को विधान परिषद् का विश्वास प्राप्त नहीं होता था, उनको विधान परिषद् अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटा सकती थी। जब मन्त्रियों के वेतन की मन्जूरी प्रतिवर्ष विधान परिषद् से ली जाती थी तो उस समय भी मन्त्रियों के काम खराब होने पर उनकी आलोचना की जाती थी। विधान परिषद् के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न भी पूछ सकते थे, इस तरह से मन्त्रियों को विधान परिषद् की सद्भावना पर निर्भर रहना पड़ता था। जिस मन्त्री में विधान परिषद् को विश्वास नहीं होता था, उसे अपना त्याग पत्र देना पड़ता था। उत्तर प्रदेश में एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया गया और वहाँ के गवर्नर को अपनी इच्छा के विरुद्ध उस मन्त्री को हटाना पड़ा। इससे पता चलता है कि प्रान्तों में हस्तान्तरित विषयों में मन्त्रियों को विधान परिषद् के अधीन अवश्य कर दिया गया था परन्तु मन्त्रियों की स्थिति बहतु कठिन थी। इन्हें गवर्नर को भी प्रसन्नता रखना पड़ता था। “गवर्नर को भी बिना कारण बताये हुए मन्त्रियों को हटाने का अधिकार था।” इस तरह से मन्त्रियों को दो स्वामियों को प्रसन्न करना पड़ता था।
1919 के एक्ट के अनुसार राज्यपालों (गवर्नर) को एक निर्देश पत्र जारी किया गया जिसमें राज्यपालों से कहा गया कि मन्त्रियों की सलाह को मानने या उनकी अपेक्षा करते हुए वे उनके (मन्त्रियों के) विधान परिषद् से सम्बन्ध और जनता के प्रतिनिधियों की इच्छा का ध्यान रखें। राज्यपाल मन्त्रियों की सलाह की उपेक्षा या उनकी इच्छा के विरुद्ध तभी कार्य कर सकता था जब प्रान्त की सुरक्षा और शान्ति थोड़ी संख्या वाली जातियों अथवा पिछड़ी हुई जातियों की उन्नति और कल्याण, सार्वजनिक सेवा के हितों की रक्षा और धार्मिक अथवा जातीय झगड़ों से जनता को बचाने के लिए वह ऐसा करने पर विवश हो जाये। गवर्नर की भी जिम्मेदारी थी कि भारत सचिव तथा गवर्नर जनरल के सब आदेशों का पूरी तरह पालन हो। इसका यह अर्थ हुआ कि यदि मन्त्रियों की सलाह से प्रान्त की सुरक्षा या शान्ति में कोई बाधा उपस्थित हो या वह सलाह थोड़ी संख्या वाली जातियों या पिछड़ी हुई जातियों के हितो के विरुद्ध हो या वह सार्वजनिक सेवाओं के लिए उचित न हो या वह भारत सचिव अथवा गवर्नर जनरल के आदेशों के विरुद्ध हो तो गवर्नर उसकी (मन्त्रियों की सालह की ) परवाह न करके अपनी इच्छा के अनुसार कार्य कर सकता था। यद्यपि इस एक्ट के बनाने वालों का इरादा था कि मन्त्रियों में सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना को उत्साहित किया जाये परन्तु व्यवहार में गवर्नरों ने इस सिद्धान्त को नहीं अपनाया और वे मन्त्रियों से इकट्ठा विचार-विमर्श करने के बजाय अलग-अलग ही करते रहे। इससे राज्यपालों (गवर्नरों) के हाथ में सारी शक्तियाँ बनी रहीं और मन्त्रियों को गवर्नरों के विरुद्ध इकट्ठा होकर कुछ कहने का अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ।
राज्यपालों के लिए निर्देश पत्र – राज्यपाल या मन्त्रियों से अपने सम्बन्धों में मार्गदर्शन करने के लिए राज्यपालों को एक निर्देश पत्र जारी किया गया। भारत सरकार 1919 के अधिनियम में यह उपबन्ध रखा गया, “हस्तान्तरित विषयों के बारे में राज्यपाल अपने मन्त्रियों के परामर्श को तब तक मानेगा जब तक कि वह उनकी सम्मति में मतभेद रखने का कोई विशेष कारण न समझे। उस समय वह मन्त्रियों की सम्मति की उपेक्षा करके अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकेगा।”
राज्यपाल की विशेष जिम्मेदारियाँ- इन सामान्य जिम्मेदारियों के अतिरिक्त चाहे इस अधिनियम के द्वारा उत्पन्न की गई थीं अथवा किसी अन्य तरीके से उत्पन्न की गई थीं, निर्देश-पत्र ने राज्यपाल को निम्नलिखित जिम्मेदारियाँ सौंपी-
(1) यह देखना कि प्रान्त के सभी भागों में सुरक्षा और शान्ति स्थापित की जाये, धार्मिक और प्रजातीय झगड़े दूर किये जायें तथा जो आदेश भारत सचिव अथवा महाराज्यपाल द्वारा जारी किये जायें, उन सबका पालन किया जाय।
(2) अल्पसंख्यक तथा पिछड़ी हुई जातियों के समाज कल्याण और प्रगति के लिए व्यवस्था करना।
(3) अपने प्रान्त में लगे हुए नागरिक सेवाओं के सब सदस्यों के माने हुए अधिकार और विशेषाधिकार की रक्षा करना, ताकि वे अपने उचित कार्य कर सकें।
(4) यह देखना कि सरकार का कोई आदेश था विधान परिषद् का कोई अधिनियम लोगों को उनके विभिन्न हितों अथवा प्रजाति धर्म, शिक्षा, सामाजिक दशाओं, धन, विशेषाधिकारों तथा लाभों से वंचित न करे जो कि लोगों को अब तक मिलते रहे हैं या बाद में उनको मिलने वाले हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि भारत सरकार ने 1919 के अधिनियम ने राज्यपाल को बहुत-सी विशेष जिम्मेदारियाँ सौंपी। अपनी विशेष जिम्मेदारियों को निभाने के लिए राज्यपाल अपने मन्त्री से किसी भी महत्त्वपूर्ण मामले पर असहमत हो सकता था और अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता था। इस तरह से वह न तो 1919 के अधिनियम का उल्लंघन करता था और न ही निर्देश-पत्र का उल्लंघन करता था और साथ में अपनी मनमानी भी कर सकता था। भारतीय वैधानिक आयोग के अनुसार, “राज्यपाल के पास साधारण और असाधारण शक्तियाँ मिला दी गयीं। वह दैनिक शासन का भाग है परन्तु उसका यह प्राधिकार आरक्षित है जिसके कारण वह साधारण प्रक्रियाओं का उल्लंघन कर सकता है, जबकि उसको यह विश्वास हो जाये कि प्रान्त के साधारण प्रशासन में उसके विशिष्ट हस्तक्षेप की आवश्यकता है।” इतिहास इस बात का साक्षी है कि राज्यपाल का हस्तक्षेप केवल असाधारण परिस्थितियों तक ही सीमित नहीं था अपितु साधारण परिस्थितियों में भी था।
गवर्नर की कार्यकारिणी के सब सदस्य पाँच वर्ष के लिए ब्रिटिश ताज द्वारा भारत सचिव की सिफारिशों पर नियुक्त किये जाते थे। उनकी नियुक्ति में गवर्नर का भी हाथ रहता था। व्यवहार में जिन व्यक्तियों के नाम की सिफारिश गर्वरन तथा गवर्नर-जनरल कर देते थे, उन्हीं को भरत सचिव की स्वीकृति दे देता था। उसके वेतन अधिनियम में निर्धारित कर दिये गये थे और उसमें प्रान्तीय विधान परिषद् कोई भी कटौती नहीं कर सकती थी। वे प्रान्तीय विधान परिषद् के पदेन सदस्य थे परन्तु इसकी तरफ उत्तरदायी नहीं थे। इसका यह अर्थ हुआ कि प्रान्तीय विधान परिषद् उन्हें अविश्वास प्रस्ताव द्वारा उस तरह नहीं हटा सकती थी जिस तरह यह मन्त्रियों को हटा सकती थी। वे वास्तव में केवल गवर्नर सहित भारत सचिव की ओर उत्तरदायी थे। चूँकि गवर्नर सारे प्रान्तीय शासन के लिए गवर्नर जनरल भारत सचिव की तरफ जिम्मेदार था, इसलिए गवर्नर का अपनी कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों के ऊपर प्रभावशाली नियन्त्रण था।
आरक्षित तथा हस्तान्तरित पक्षों में सम्बन्ध तथा गवर्नर का महत्त्वपूर्ण कार्य- यद्यपि मन्त्रियों तथा कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों की नियुक्ति के तरीकों, अवधि और विधान परिषद् के साथ सम्बन्धों में महान् अन्तर था, यद्यपि 1919 के अधिनियम के बनाने वालों का यह उद्देश्य नहीं था कि ये दोनों पक्ष अलग-अलग रहें। उनका यह इरादा था कि ये दोनों पक्ष गवर्नर के नेतृत्व में आपस में मिलजुलकर कार्य करें। इसीलिए बाद में बनाये हुए नियमों में इस बात पर बल दिया गया कि गवर्नर दोनों पक्षों में सामूहिक विचार-विमर्श को उत्साहित करें। इसका कारण यह था कि सरकार के अनेक विषय होते थे जिनका प्रभाव दोनों पक्षों पर पड़ता था। उदाहरणस्वरूप, जहाँ तक कर लगाने का सम्बन्ध था या उधार लेने अथवा धन के बँटवारे का सम्बन्ध था, दोनों पक्ष समान रूप से इन मामलों में रुचि रखते थे। इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों पक्षों की बैठक में गवर्नर को बहुमत से एक संयुक्त निर्णय लेना होता था वल्कि यह है कि उनके विचारों को जानने के लिए संयुक्त बैठक बुलानी वांछनीय थी। जहाँ तक निर्णयों का सम्बन्ध था, गवर्नर मन्त्रियों की अलग और कार्यकारिणी परिषद् की अलग बैठक बुला सकता था।
गवर्नर का वित्त पर नियन्त्रण- चूँकि वित्त आरक्षित विषय था और उसके प्रशासन की जिम्मेदारी गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् की थी, अतः गवर्नर के पास इस विषय में बहुत अधिक शक्तियाँ थीं। बजट की तैयारी में उसका पुरा हाथ होता था क्योंकि उसके आदेशों के अनुसार बजट तैयार होता था। आरक्षित विषयों पर कितना खर्च हो और हस्तान्तरित विषयों पर कितना हो, इसके बारे में निर्णय करने के लिए वह मन्त्रियों तथा अपनी कार्यकारिणी परिषद् की एक संयुक्त बैठक बुलाता था। दोनों पक्षों में मतभेद होने पर गवर्नर का निर्णय अन्तिम समझा जाता था। लगभग 70प्रतिशत प्रान्तीय शासन का खर्च ऐसा होता था जिस पर विधान परिषद् अपना मतदान नहीं कर सकती थी। वह उस खर्चे पर बहस कर सकती थी और अपने सुझाव दे सकती थी। यदि विधान परिषद् आरक्षित विषयों से सम्बन्धित किसी माँग के बारे में इन्कार करती थी या उसमें कटौती करती थी तो गवर्नर इन्कार हुई या कम की गई रकम की पूर्ति यह कहकर कर सकता था कि वह खर्च उस विषय के प्रशासन को ठीक तरह चलाने के लिए बहुत आवश्यक है।
यदि विधान परिषद् किसी हस्तान्तरित विषय से सम्बन्धित माँग में कटौती कर देती थी या स्वीकृति से इन्कार कर देती थी तो वह उस माँग की पूर्ति नहीं कर सकता था परन्तु संकटकालीन अवस्था में प्रान्त की शान्ति कायम रखने के लिए वह इस खर्चे की स्वीकृति अपने विशेष अधिकार द्वारा दे सकता था। विधान परिषद् द्वारा हस्तान्तरित विषय से सम्बन्धित किसी भी कम की हुई माँग पर वह इतने खर्च की मन्जूरी दे सकता था जितना खर्च इसके बारे में पिछले वर्ष हुआ था। गवर्नर ने अपनी इन विशेष वित्तीय शक्तियों का प्रयोग बंगाल और मध्य प्रान्त में खूब किया क्योंकि वहाँ स्वराजिस्ट पार्टी का बहुमत था और वह सरकार को पूरा सहयोग देने के लिए तैयार नहीं था। इस तरह से वित्तीय क्षेत्र में गवर्नर की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं हो सकता था और आर्थिक मामलों में उसके पास अन्तिम शक्तियाँ थीं।
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