भारत सरकार अधिनयम 1919 के अनुसार प्रान्तीय विधान परिषद् का गठन एवं शक्तियां
प्रान्तीय विधान मण्डल
प्रान्तीय विधान परिषद् की रचना- इस अधिनियम के अनुसार व्यवस्था की गई कि कम- से-कम 70 प्रतिशत सदस्य प्रत्येक विधान परिषद् में चने हुए होंगे और 20 प्रतिशत से अधिक सरकारी अधिकारी नहीं होंगे। चुने हुए सदस्य और सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त परिषद् में कुछ नामजद गैर-सरकारी अधिकारी भी थे। इससे पता चलता है कि प्रान्तों में चुने हुए सदस्यों का बहुमत स्थापित कर दिया गया। हरिजनों को काफी प्रतिनिधित्व देने के लिए उनके सदस्यों को मनोनीत करने की व्यवस्था की गई। गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य पदेन विधान परिषद् के सदस्य थे।
चुनाव क्षेत्र तथा मताधिकार- मार्ले-मिण्टो सुधारों की अपेक्षा मताधिकार अब अधिक विस्तृत कर दिया गया था परन्तु फिर भी यह इतना सीमित रहा कि 1920 ई. में ब्रिटिश भारत की 24 करोड़ 17 लाख आबादी में से केवल 53 लाख आबादी को मताधिकार दिया गया। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि लगभग 2.5 प्रतिशत आबादी को ही मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ। मताधिकार के लिए योग्यताएँ प्रत्येक प्रान्त में बहुत भिन्न-भिन्न थीं। प्रायः ऐसा किया गया जो लोग देहाती क्षेत्रों में 10 रुपये से लेकर 50 रुपये वार्षिक आमदनी भूमि कर देते थे, उनको मताधिकार दे दिया गया। नगरों में जो कम-से-कम 2,000 रुपये वार्षिक आमदनी पर आय-कर देते थे या जिनको से कम- से-कम 3 रुपये वार्षिक कर देते थे, वे अपना नाम मतदाताओं की सूची में लिखवा सकते थे।
चुनाव क्षेत्रों को सामान्य चुनाव क्षेत्रों तथा विशेष क्षेत्रो में बाँट दिया गया। सामान्य चुनाव मुसलमान चुनाव क्षेत्र मुसलमान, गैर-मुस्लिम, ईसाई, आंग्ल-भारतीय समुदाय और सिक्ख इत्यादि क्षेत्र के लिए बनाये गये। विशेष चुनाव क्षेत्र यूनिवर्सिटी वाणिज्य, उद्योग और जिम्मेदारों के लिए बनाये गये। सामान्य चुनाव क्षेत्रों को भी देहाती और शहरी चुनाव क्षेत्रों में बाँट दिया गया और जैसा पहले बताया जा चुका है कि वहाँ पर मताधिकार के लिए योग्यताएँ भी काफी अलग-अलग रखी गयीं। सामान्य चुनाव क्षेत्र में प्रत्यक्ष निर्वाचन रखा गया। नारियों को मताधिकार नहीं दिया गया परन्तु यह व्यवस्था की गई कि प्रान्तीय विधान परिषद् नारियों को मताधिकार दे सकेगी। प्रान्तीय विधान परिषद् ने बाद में नारियों को भी मताधिकार दे दिया था।
विधान परिषद् की कानूनी शक्तियाँ तथा गवर्नर- प्रान्तीय विधान परिषद् को यह शक्ति दी गई कि वह अपने प्रान्त की शान्ति तथा अच्छी सरकार के लिए कानून बनाये। 1919 के अधिनियम से पहले प्रत्येक प्रान्तीय कानून के लिए गवर्नर-जनरल की पूर्व आज्ञा लेना आवश्य था परन्तु 1919 के अधिनियम के अनुसार यह तय किया गया कि कुछ विशेष मामलों को छोड़कर शेष में गवर्नर की पूर्व आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहेगी परन्तु प्रत्येक प्रान्तीय बिल विधान परिषद् द्वारा पास होने पर कानून तभी बन सकता था जब गवर्नर तथा गवर्नर जनरल अपनी स्वीकृति दे दें। प्रान्तीय विधान परिषद् के जिन विशेष मामलों में कानून बनाने से पूर्व गवर्नर जनरल की आज्ञा लेनी पड़ती थी, वे ‘ निम्नलिखित थे-
(1) कोई ऐसा कर लगाना जिसकी शक्ति प्रान्तीय विधान परिषद् को नहीं है।
(2) सार्वजनिक ऋण।
(3) सरकार के देशी राजाओं तथा विदेशी राज्यों से सम्बन्ध।
(4) सेना के अनुशासन या इसके किसी भाग को संगठन को प्रभावित करना।
(5) किसी केन्द्रीय विषय को प्रभावित करना।
प्रान्तीय विधान परिषद् को ऐसे कानूनों को बनाने की स्पष्ट रूप से मनाही कर दी गई जिसका प्रभाव ब्रिटिस संसद द्वारा बनाये हुये अधिनियमों पर पड़ता हो।
राज्यपाल को कानूनी क्षेत्र में बहुत शक्ति दी गई। वह किसी भी विधेयक को विधान परिषद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता था। वह किसी भी बिल को गवर्नर जनरल के विचार के लिए आरक्षित कर सकता था। गवर्नर जनरल भी किसी विधेयक को विधान परिषद् के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता था। वह किसी भी विधेयक को ब्रिटिश सम्राट की सरकार के लिए विचार के लिए आरक्षित कर सकता था। यदि आरक्षित विषय पर विधान परिषद् उस रूप में बिल पास करने से इन्कार कर दे जिस तरह गवर्नर चाहता था तो बिल को अपनी प्रमाण शक्ति द्वारा यह कहकर पास कर सकता था कि “उस विषय से सम्बन्धित उसकी विशेष जिम्मेदारी निभाने के लिए इस बिल को पास करना आवश्यक है। ऐसा न हो कि गवर्नर अपनी इन शक्तियों का कभी दुरुपयोग न करे इसलिए यह व्यवस्था की गई कि इस प्रकार पास किया हुआ प्रत्येक बिल गवर्नर जनरल के पास जायेगा और वह तब भी कानून बन सकेगा जब उस पर ब्रिटिश सम्राट को स्वीकृति प्राप्त हो जाय। संकटकालीन अवस्था में गवर्नर जनरल उस कानून की अनुमति दे सकता था परन्तु बाद में यह आवश्यकता पड़ने पर ब्रिटिश सम्राट द्वारा रद्द किया जा सकता था। गवर्नर द्वारा इस प्रकार के पास किये हुए अधिनियम की स्वीकृति ब्रिटिश संसद से भी लेनी पड़ती थी।
विधान परिषद् की वित्तीय शक्तियाँ- विधान परिषद् को बहुत सी वित्तीय शक्तियाँ दी गयीं परन्तु गवर्नर की विशेष शक्तियों द्वारा उन पर अनेक रुकावटें भी लगा दी गयीं, ताकि विधान परिषद् गवर्नर की इच्छा के अनुसार किसी माँग को पास न करे तो उसको गवर्नर अपनी विशेष शक्ति द्वारा पास करे। इस तरह से वित्तीय मामलों में अन्तिम नियन्त्रण गवर्नर के हाथ में था। बजट को दो भागों में बाँट दिया जाता था। पहले भाग में वे राशियाँ की जाती थीं जिन पर विधान परिषद् अपना मत नहीं दे सकती थी परन्तु केवल बहस कर सकती थी। इस तरह के लगभग 70 प्रतिशत खर्चे पर विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था, शेष 30 प्रतिशत बजट पर विधान परिषद् अपना मत दे सकती थी। वह किसी खर्चे में कटौती भी कर सकती थी। मन्त्रियों के वेतन में विधान परिषद् कटौती कर सकती थी परन्तु गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों के वेतन में कटौती करने का इसे कोई अधिकार नहीं था।
जिन खर्चों पर विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था, वे निम्नलिखित थे- (1) प्रान्तीय सरकार द्वारा गवर्नर जनरल की कौंसिल के खर्चे के लिए दिया हुआ धन (2) भारत सचिव और उसकी परिषद् या ब्रिटिश सम्राट द्वारा अथवा उसकी मन्जूरी से नियुक्त किये। हुए व्यक्तियों किये हुए व्यक्तियों के वेतन तथा पेन्शन। (3) महाधिवक्ता तथा प्रान्त में हाईकोर्ट के जजों के वेतन: (4) ऋऋणो पर डूबते हुए फण्ड का भारतीय व्यय तथा सूद।
इन खर्चों पर विधान परिषद् अपना मत नहीं दे सकती थी अर्थात् वह उनमें कोई कटौती नहीं कर सकती थी।
मन्त्री तथा कार्यकारिणी परिषद् का नियन्त्रण- प्रान्तों में मन्त्रियों को इस अधिनियम के अनुसार विधान परिषद् की तरफ उत्तरदायी बनाया गया। यह उनको अविश्वास तथा निन्दा प्रस्ताव तथा अन्य तरीकों से हटा सकती थी परन्तु गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों को इसे हटाने का अधिकार न था। यह तो केवल उनसे प्रश्न, पूरक प्रश्न पूछ सकती थी। विधान परिषद् के सदस्य काम रोको प्रस्ताव कर सकते थे।
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