प्रथम गोलमेज सम्मेलन 1930 (Gol Mej Sammelan 1930)
प्रथम गोलमेज सम्मेलन 1930- सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तीव्रता के दौरान ब्रिटिश पत्रकार मि. सोलोकोम्ब तथा भारत के उदारवादी नेता डाक्टर जयकर और तेजबहादुर सप्रू, के कांग्रेस तथा सरकार के बीच समझौता कराने के प्रयास की विफलता के बाद सरकार ने 12 नवम्बर, 1930 को लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैंमजे मैकनाल्ड ने की। ब्रिटिश सम्राट ने इसका उद्घाटन किया। इसमें भाग लेने वाले 76 प्रतिनिधियों में 3 ब्रिटेन, 16 भारत के देशी रियासतों तथा 57 ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि थे।
देशी रियासतों तथा ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित नहीं अपितु वायसराय द्वारा मनोनीत थे। इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि नहीं था तथा राष्ट्रीय मुसलमानों को भी इसमें भाग लेने के लिए आमन्त्रित नहीं किया गया। यद्यपि यह सम्मेलन एक महत्त्वपूर्ण ऐतिसाहिक घटना के रूप में था तथा इसमें भारतीय नरेशों, हरिजनों, सिखों, साम्प्रदायिक मुसलमानों, हिन्दुओं, ईसाइयों, जमींदारों मजदूर संघों एवं वाणिज्य संघों के प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था तथापि इसमें भारत की आत्मा का अभाव था क्योंकि भारतीय जनता की वास्तविक प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस ने इसका बहिष्कार कर दिया था। उसने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारतीयों को एक ऐसी उत्तरदायी सरकार नहीं दी जाती जिसे प्रतिरक्षा तथा वित्त सम्बन्धी अधिकार प्राप्त हो तब तक वह इस सम्मेलन में भाग लेगी।
यह दो महीने से अधिक अर्थात् 12 नवम्बर, 1930 से 19 जनवरी, 1931 तक चला। उद्घाटन के बाद यह 6 दिन के लिए स्थगित कर दिया गया तथा यह 17 नवम्बर को पुनः शुरू हुआ। 6 दिन के साधारण अधिवेशन के बाद विभिन्न समस्याओं एवं विषयों पर विचार-विमर्श के लिए 9 उपसमितियाँ गठित की गयीं जिन्होंने 8 सप्ताह के बाद अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिन पर 76 जनवरी,, 1931 को सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडानल्ड द्वारा प्रतिपादित संघीय शासन, संरक्षण, उत्तरदायी शासन, सांविधिक सुरक्षा (Statutory Safeguard) तथा प्रान्तीय स्वशासन सिद्धान्तों के पर किया गया।
संघीय शासन के सिद्धान्त के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार संघीय व्यवस्था के आधार पर जिसमें ब्रिटिश प्रान्त एवं देशी रियासतें संघीय इकाई के रूप में होगी, भारत के नये संविधान का निर्माण करना चाहती थी। सर्वेक्षण एवं उत्तरदायी शासन के सिद्धान्त के अनुसार वह केन्द्र और प्रान्तों में इस शर्त के साथ कि प्रतिरक्षा एवं विदेश विभाग वायसराय के अधीन होंगे; उत्तरदायी शासन की स्थापना की पक्षधर थी। वह प्रान्तों की स्वशासन देने तथा आन्तरिम काल के लिए सांविधिक सुरक्षा के लिए वैधानिक उपाय करने के पक्ष में थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की मंशा स्पष्ट करते हुए यह आश्वासन दिया कि वायसराय का संरक्षित अधिकार पूर्ण उत्तरदायित्व के मार्ग में बाधक नहीं होगा। केन्द्र में उत्तरदायी शासन के अन्तर्गत द्विसदनीय विधायिका की बात कही गयी।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार को यह नीति भी स्पष्ट की कि आपातकाल में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने तथा अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व और अधिकार वायसराय को प्राप्त होगा। प्रान्तों में विशेष परिस्थितियों में शान्ति बनाये रखने ताथ अल्पसंख्यकों और लोक सेवाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए गवर्नरों को विशेष अधिकार दिये जायेंगे।
प्रान्तीय विधान मण्डलों के चुनावों और अधिक उदार मताधिकार पर आधारित करने की बात कही गयी। यह भी कहा गया कि धर्म, जाति, प्रजाति और सम्प्रदाय आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं बरता जायेगा। ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा सरकारी नीति एवं इच्छा के रूप में प्रस्तुत ये सभी बातें सम्मेलन में स्वीकार कर ली गयी। भारत के उदारवादी नेताओं ने पूर्ण उत्तरदायी शासन की माँग करते हुए औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना पर बल दिया। कतिपय देशी रियासतों के नरेशों और अल्पसंख्यकों ने भी औपनिवेशिक स्वराज्य का समर्थन किया।
सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के प्रायः सभी प्रस्तावों के स्वीकार कर लिये जाने के बाद भी साम्प्रदायिकता की समस्या के बारे में भारतीय प्रतिनिधियों के बीच समझौता नहीं हो सका। हिन्दू प्रतिनिधि अल्पसंख्यकों के लिए स्थान सुरक्षित करते हुए संयुक्त निर्वाचन पद्धति के पक्षधर थे जबकि मि. जित्रा अपनी चौदह सूत्रीय शर्तों को स्वीकार कर तथा पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था करने पर बल देते रहे।
डॉ. अम्बेडकर ने भी हरिजनों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व पर बल दिया। अन्ततः साम्प्रदायिकता की समस्या के बारे में यह तय किया गया कि भारत के विभिन्न सम्प्रदाय आपसी बातचीत के जरिये इसका हल ढूँढ लें। ब्रिटिश प्रधान मन्त्री रैमजे मैकडॉनल्ड ने इन प्रस्तावों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की कांग्रेस से अपील की तथा सर तेजबहादुर सप्रू को आश्वासन दिया कि शान्ति का वातावरण तैयार होने पर राजनीतिक बन्दियों की रिहाई के बारे में अवश्य विचार किया जायेगा। साम्प्रदायिक समस्या का कोई समाधान न होना सम्मेलन की विफलता के रूप में सामने आया।
सम्मेलन पर प्रतिक्रिया
इस सम्मेलन के बारे में मिश्रित प्रतिक्रिया सामने आयी। जहाँ कूपलैण्ड ने इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना की संज्ञा दी, वहीं बेल्सफोर्ड ने कहा कि इसमें भारत की आत्मा ही विद्यमान नहीं थी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा इसके बहिष्कार के सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए डॉक्टर राजेन्द प्रसाद ने कहा कि यह बिना दूल्हे के सम्पन्न होने वाला विवाह था।
इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सुभाषचन्द्र बोष ने कहा कि इस सम्मेलन ने भारत को संरक्षण (Safeguards ) तथा संघीय व्यवस्था (Federation) के रूप में दो कड़वी गोलियाँ दीं। इन्हें खाने लायक बनाने के लिए इन पर ‘उत्तरदायी शासन’ की चीनी की चासनी लपेट दी गयी है। जहाँ ब्रिटिश सरकार तथा ब्रिटिश राजनीतिज्ञ इस सम्मेलन की उपलब्धियों से पूरी तरह सन्तुष्ट थे, वहीं कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने कुछ सन्तोष और कुछ असन्तोष व्यक्त किया।
सर तेजबहादुर सप्रू ने कहा कि जो लोग इस सम्मेलन में भाग लेने आये हैं, उन्हें देश का गद्दार कहा जाता है । सविनय अवज्ञा आन्दोलन गलत और हानिकारक है परन्तु उसके पीछे जो जन भावना है उसकी उपेक्षा खतरनाक साबित होगा। उन्हें ब्रिटिश शासन और नौकरशाही की आलोचना करते हुए कहा कि इसमें भारत का सन्तुष्ट होना सम्भव नहीं है।
इस सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडॉनल्ड द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों पर विचार एवं निर्णय व्यक्त करने के लिए 21 जनवरी, 1931 को इलाहाबाद के ‘स्वराज्य भवन’ में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई जिसमें उन्हें अस्वीकार करते हुए कहा गया कि कांग्रेस की किसी नीति में परिवर्तन सम्भव नहीं है। मि. जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के अन्य प्रतिनिधि तो और अधिक निराशा के साथ वापस आये। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि उनकी माँगों को तार्किक ढंग से पूर्ति नहीं हुई तो वे किसी भी संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे। उनके वापस आते ही सर मुहम्मद इकबाल की अध्यक्षता में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग का सम्मेलन हुआ जिसमें मुसलमानों के लिए पृथक राज्य की माँग की गयी।
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