भारत सरकार अधिनियम 1919 की प्रमुख धाराएँ अथवा व्यवस्थाएँ
भारत सरकार अधिनियम 1919 की प्रमुख धाराएँ अथवा व्यवस्थाएँ निम्नलिखित थीं-
गृह सरकार सम्बन्धी व्यवस्था
गृह सरकार से तात्पर्य उस सरकार से था जो इंग्लैण्ड से ‘भारत का शासन करती थी। 1858 के अधिनियम में सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इण्डिया तथा उसकी परिषद् की स्थापना हुई थी। उसकी सहायता के लिए पार्लियामेण्टरी सेक्रेटरी होते थे। सभी को वेतन भारत के खजाने से दिया जाता था। 1919 से पूर्व भारत सचिव की शक्तियाँ बड़ी विस्तृत थीं।
1919 के ऐक्ट में कहा गया था कि-
1. प्रान्तों के जो हस्तान्तरित विषय थे उनमें सरकार सचिव कम-से-कम हस्तक्षेप करेगा।
2. प्रान्तों के जो सुरक्षित विषय हैं तथा केन्द्र के जो शुद्ध भारतीय विषय हैं उनमें यदि भारत सरकार तथा भारत सांसद एकमत हो तो भारत सचिव कम-से-कम हस्तक्षेप करेगा।
3. भारत सचिव की परिषद् में भी कुछ परिवर्तन किये गये। सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष कर दिया गया। उनकी संख्या कम से कम 8 और ज्यादा से ज्यादा 12 कर दी गयी। वेतन दुबारा 1200 पौ. कर दिया गया। भारतीयों को 600 थे जो कम से कम 10 वर्ष तक भारत में रहकर कार्य कर चुके हों। इनका वेतन भारतीय खजाने में से दिया जाता था। इसकी शक्तियाँ बहुत कम थीं तथा इसमें रिटायर्ड सिविल सर्विस के आदमी होते जो रूढ़िवादी प्रकृति के होते थे और भारत के लिए प्रत्येक सुधार प्रस्ताव का विरोध करते थे।
4. इस अधिनियम द्वारा हाई कमिश्नर के पद का प्रारम्भ किया गया। भारत सचिव के कुछ कार्य उसे सौंपे गये जैसे भारत सरकार के लिए अस्त्र-शस्त्र खरीदना, ठेके देना, व्यापार पर नियन्त्रण रखना आदि। इंग्लैण्ड में अध्ययनरत भारतीय विद्यार्थी की देख-रेख करना भी इसका दायित्व था । “इसकी नियुक्ति गवर्नर जनरल करता था। वेतन भारत से दिया जाता था।
केन्द्रीय सरकार सम्बन्धी व्यवस्था
इस अधिनियम में भारत के केन्द्रीय शासन में भी महान् परिवर्तन किये गये।
1. इस अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्रीय विधान परिषद् में बहुत परिवर्तन किये परन्तु कार्यपालिका में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। 1915 का ‘Consolidation Act’ समाप्त कर दिया गया। परन्तु कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी। इसमें 8 सदस्य थे जिनमें चीफ कमाण्डर भी था। इनमें तीन भारतीयों का होना आवश्यक था। उनके लिए भारत में 10 वर्ष की सेवा का अनुभव अनिवार्य था। इनकी नियुक्ति गवर्नर जनरल की सिफारिश पर क्राउन द्वारा होती थी। पुनः पद पर नियुक्ति हो सकती थी। कार्यकाल 5 वर्ष का था। सप्ताह में एक मीटिंग होती थी। गवर्नर जनरल अध्यक्षता करता था। विभागीय पद्धति के आधार पर कार्य होता था । बहुमत के आधार पर निर्णय होता था गवर्नर जनरल को निर्णायक मत का अधिकार था।
2. गवर्नर जनरल की शक्तियाँ बड़ी विशद् थीं। 1919 के सुधार अधिनियम द्वारा उसे कुछ और विशेष शक्तियाँ प्रदान की गयीं। उसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा 5 वर्ष के लिए होती थी। वह भारतीय जनता नहीं अपितु ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी था। उसकी शक्तियाँ बड़ी विशाल तथा पद बहुत गौरव का था। यह केवल राजद्रोह सम्बन्धी मामले में ही उच्च न्यायालय में बुलाया जा सकता था। यह क्राउन का प्रतिनिधि था तथा भारत का प्रमुख शासक था। विधायिका के क्षेत्र में भी गवर्नर-जनरल को बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त थे।
केन्द्रीय व्यवस्थापिका सम्बन्धी व्यवस्था
इस अधिनियम के अन्तर्गत सर्वप्रथम भारत में पाश्चात्य देशों के नमूने पर केन्द्र में दो सदन वाली व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी (1) विधान सभा (2) राज्य परिषद् ।
1. विधान सभा- इसमें 145 सदस्य थे जिसमें 104 निर्वाचित और 41 मनोनीत थे। 41 मनोनीत में 26 सरकारी और 15 गैर सरकारी सदस्य थे। निर्वाचन प्रत्यक्ष था। मताधिकार वयस्क नहीं वहन् सीमित था। निश्चित मात्रा तक देने वाले ही मत दे सकते थे। इसलिए केवल 10 प्रतिशत जनता को ही मताधिकार प्राप्त था। सिक्ख और यूरोपियन्स को भी पृथक् निर्वाचन प्रदान किया। 1919 से पहले विधानसभा का होता था। अब यह कहा गया कि पहले 4 वर्ष तो उसे गवर्नर जनरल नियुक्त करेगा और इसके बाद उसे सदन को चुनने का अधिकार होगा।
2. राज्य परिषद्- इसमें कुल 60 सदस्य थे जिनमें 33 निर्वाचित और 27 मनोनीत थे। 27 में से 17 सरकारी और 10 गैर सरकारी मनोनीत होते थे। इस सदन के लिए कार्यकाल 5 साल था। इसका अध्यक्ष गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होता था।
विधान सभा की शक्तियाँ
विधान सभा को संघ सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था। गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति से वह राज्य सूची पर भी कानून बना सकती थी। परन्तु वह संविधान में संशोधन नहीं कर सकती थी।
यह कोई ऐसा कानून नहीं बना सकती थी जो ब्रिटिश पार्लियामेंट के कानून के विरुद्ध हो। यह कोई ऐसा कानून नहीं बना सकती थी जो भारत सचिव के खर्चे पर नियन्त्रण करे। यह उच्च न्यायालय को समाप्त करने का कानून नहीं बना सकती थी। कोई भी साधारण विधेयक दोनों सदनों में प्रस्तुत किया जा सकता था।
दोनों सदनों की स्वीकृति पर ही विधेयक पास माना जाता था। उस पर गवर्नर जनरल की स्वीकृति आवश्यक थी। उसे निषेधाधिकार प्राप्त था। दोनों सदनों के सदस्यों को कार्यपालिका के सदस्यों से प्रश्न पूछने काम रोको प्रस्ताव पेश तथा आलोचना करने का अधिकार था। वे अविश्वास का प्रस्ताव भी पार कर सकते थे पर कार्यपालिका के लिए इस्तीफा देना जरूरी नहीं था। यहाँ पर बात उल्लेखनीय है कि पृथक् निर्वाचन के कारण इसमें राष्ट्रीय दृष्टिकोण के सदस्य नहीं थे। यह शक्तिहीन थी। राज परिषद् एक रूढ़िवादी तथा पूँजीपतियों की संस्था थी।
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