भारतीय परिषद अधिनियम 1861 की समीक्षा
भारतीय परिषद अधिनियम 1861- भारत अधिनियम, 1858 ने भारत में कम्पनी के शासन के अन्त तथा ब्रिटिश ताज के शासन की स्थापना के साथ एक नये युग की शुरूआत तो की परन्तु उसने शासनिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के क्षेत्र में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं किया। उसने एक ऐसी शासन व्यवस्था की स्थापना की जो भारतीयों को सन्तुष्ट करने में विफल रही क्योंकि उन्हें उसमें भागीदारी से वंचित किया गया तथा वह उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पा रही थी। परिवर्तित परिस्थितियाँ भारतीय शासनिक व्यवस्था में वास्तविक एवं उपयोगी परिवर्तन की अपेक्षा कर रही थी। अतः भारत सचिव चार्ल्स वुड ने जुलाई, 1861 में ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ कामन्स’ में एक विधेयक प्रस्तुत किया। जिसे ब्रिटेन पार्लियामेण्ट में अगस्त, 1861 में पारित होने के बाद भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 कहा गया। भारतीय और अंग्रेजों के बीच मधुर सम्बन्ध, भारतीयों के विचारों की जानकारी हेतु शासन में उनकी भागीदारी, सरकार के प्रति लोगों की गलत धारणाओं के निराकरण तथा 1857 की तरह के भयानक उपद्रवों के लिए मापक यन्त्र अथवा रक्षा नली बनाने के उद्देश्य से इस प्रकार के अधिनियम की उपादेयता का अनुभव किया गया। इसने भारतीय शासन व्यवस्था में वास्तविक परिवर्तन किये।
तत्कालीन वायसराय एवं गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग के भारत सचिव चार्ल्स वुड को जनवरी 1861 में लिखे एक पत्र के आधार पर इस अधिनियम के लिए विधेयक प्रस्तुत किया गया था। उस पत्र में उन्होंने लिखा था कि इस देश की वर्तमान वैधानिक व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है क्योंकि यदि उसे चलने दिया गया तो अनेक कठिनाइयाँ पैदा होंगी और इससे हमारी सरकार की बदनामी होगी।
अधिनियम की प्रमुख बातें अथवा धाराएँ
भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 की प्रमुख बातें अथवा धाराएँ इस प्रकार थीं-
(1) वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों की संख्या चार के स्थान पर पाँच होगी। उनमें से तीन वे होंगे जिन्हें भारतीय सेवा में कार्य करने का दस वर्ष का अनुभव होगा। चौथा सदस्य वह व्यक्ति होगा जो प्रसिद्ध विधिवेत्ता हो। भारत का प्रधान सेनापति उसका पाँचवाँ एवं असाधारण सदस्य होगा। उसे मनोनीत करने का अधिकार पहले की तरह ही भारत सचिव को प्राप्त होगा। परिषद के कार्य संचालन के लिए नियम एवं उपनियम बनाने का अधिकार वायसराय को ही प्राप्त होगा।
(2) यदि परिषद की बैठक किसी प्रान्त में होगी तो उसका गवर्नर भी उसमें भाग ले सकेगा।
(3) वायसराय अथवा गवर्नर जनरल को अपनी कार्यकारिणी परिषद में कम से कम 6 तथा अधिक से अधिक 12 अतिरिक्त सदस्यों को दो वर्ष की अवधि के लिए मनोनीत करने का अधिकार होगा। उनमें से कम से कम आधे को अनिवार्यतः गैरसरकारी तथा कुछ को भारतीय होना चाहिए। सुचारु रूप से विधि-निर्माण के लिए यह व्यवस्था की गयी थी ।
(4) मनोनीत सदस्यों के अधिकार समिति होंगे तथा उन्हें केवल परामर्श देने का ही अधिकार होगा। वे न तो प्रश्न पूछ और न कार्यपालिका की आलोचना ही कर सकेंगे। उन्हें वायसराय की पूर्व अनुमति के बिना देशी नरेशों, सरकारी ऋण, मालगुजारी, विदेश सम्बन्ध, धार्मिक मामलों और सेना आदि के बारे में विधेयक प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं होगा।
(5) वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् को केवल विधायी अधिकार होगा। वह ब्रिटिश भारत के सभी स्थानों और सभी व्यक्तियों के लिए विधि-निर्माण का कार्य करेगी। वायसराय की स्वीकृति के बाद ही कोई विधेयक कानून का रूप धारण करेगा। उसे निषेधाधिकार और असामान्य परिस्थितियों में छः महीने के लिए अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त होगा। उसके द्वारा स्वीकृत विधेयक को रद्द करने ब्रिटिश क्राउन का अधिकार होगा।
(6) अपनी अनुपस्थिति में परिषद की बैठक की अध्यक्षता के लिए किसी व्यक्ति को मनोनीत करने का वायसराय को अधिकार होगा।
(7) कार्य के सुचारु रूप से संचालन के लिए वह समय-समय पर कानून बना तथा परिषद के प्रत्येक सदस्य को विशेष कार्य अथवा विभाग सौंप सकता है। इस व्यवस्था ने भारतीय शासन विभागीय पद्धति की शुरुआत की।
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 में केवल वायसराय अथवा गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद के अधिकार और दायित्व के ही नहीं अपितु प्रान्तों के बारे में भी व्यवस्था थी। इसने बम्बई और मद्रास की सरकारों अर्थात् उनकी विधायिकाओं को कानून बनाने का पुनः अधिकार प्रदान किया।
1833 से इस प्रकार का इनका अधिकार समाप्त कर दिया गया था। इन प्रान्तों की विधायिकाओं (लेजिस्लेटिव कौंसिल) की सदस्य संख्या में वृद्धि करते हुए इनके गवर्नरों को इनमें कम से कम चार तथा अधिक से अधिक 8 सदस्यों के मनोनयन का अधिकार दिया गया। इन सदस्यों में से कम से कम आधे का गैर सरकारी होना अनिवार्य था। मनोनीत सदस्यों का कार्यकाल दो वर्ष था। इन प्रान्तों के एडवोकेट जनरल भी इनकी ‘लेजिस्लेटिव कौंसिल’ (विधायिकाओं) के सदस्य होते थे। इन प्रान्तों की विधायिकाओं के विधि-निर्माण के अधिकार सीमित थे। कोई भी विधेयक गवर्नर और गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बिना कानून का रूप नहीं धारण कर सकता था। ब्रिटिश क्राउन को इस प्रकार से स्वीकृत किसी भी विधेयक को रद्द करने का अधिकार था। इस अधिनियम ने वायसराय को बम्बई और मद्रास की तरह ही बंगाल, पंजाब और पूर्वोत्तर प्रान्तों के लिए भी ‘कौंसिल’ स्थापित करने का अधिकार दिया था। वह नये प्रान्तों का निर्माण तथा लेफ्टिनेंट गवर्नरों की नियुक्ति भी कर सकता था। उसे किसी भी प्रान्त तथा प्रेसीडेन्सी की सीमाओं में परिवर्तन का अधिकार प्राप्त था। इस अधिनियम ने केन्द्र और प्रान्तों के विषयों का स्पष्ट रूप से विभाजन नहीं किया था।
अधिनियम की समीक्षा
परिवर्तित परिस्थितियों में भारतीय शासनिक व्यवस्था में वास्तविक एवं उपयोगी परिवर्तन की अपेक्षा की पूर्ति तथा और अंग्रेजों के बीच मधुर सम्बन्ध; भारतीयों के विचारों की जानकारी एवं शासन में उनकी भागीदारी तथा सरकार के प्रति लोगों की गलत धारणाओं के निराकरण आदि के से इस अधिनियम का निर्माण किया गया। इसने भारतीय शासन व्यवस्था में वास्तविक एवं महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये। भारत के संवैधानिक विकास के इतिहास में इसका महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय स्थान है। इसने कतिपय संवैधानिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। एम.बी. पायली के अनुसार, ‘भारतीय विधायिकाओं के बारे में यह महत्त्वपूर्ण अधिनियम था । इसने भारतीयों को शासन में भागीदारी का अवसर देकर सहयोग की नीति का सूत्रपात किया । गुरुमुख निहाल सिंह ने भी इसका महत्त्व स्वीकार करते हुए लिखा है कि इसने भारत की नीति का सूत्रपात किया। गुरुमुख निहाल सिंह ने भी इसका महत्त्व स्वीकार करते हुए लिखा है कि इसने भारत में उस सरकार का ढाँचा अथवा कलेवर तैयार किया जो उस समय तक बनी रही। अब तक ब्रिटेन का भारत में शासन रहा क्योंकि उसमें (ढाँचे में) अनेक सैद्धान्तिक परिवर्तन हुए। इसके द्वारा विभागीय पद्धति (Portfolio System) की शुरुआत भारत के संवैधानिक इतिहास में उल्लेखनीय बात मानी जाती है। इसने प्रान्तीय विधायिकाओं में भारतीयों की भागीदारी के जरिये भारतीयकरण और विकेन्द्रीकरण की नीति की शुरुआत की।’ गुरुमुख निहाल सिंह ने इस व्यवस्था के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 1937 में प्रान्तों को जो पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त हुई, वह इसी के फलस्वरूप थी। इसका महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसने संवैधानिक संस्थाओं के विकास का इतिहास प्रारम्भ किया। इसके बाद अनेक महत्त्वपूर्ण अधिनियमों का निर्माण हुआ।
जहाँ यह विधेयक अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा, वहीं इसमें अनेक त्रुटियाँ भी थीं । यतह भारतीयों को सन्तुष्ट करने में सक्षम नहीं था क्योंकि इसमें भारतीय जनमत की जानकारी प्राप्त करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। प्रान्तीय कौंसिलों के विधिनिर्माण के अधिकार इतने सीमित थे कि वे केवल कानून बनाने वाली समिति के रूप में थी । कावेल के अनुसार, ‘इनके द्वारा निर्मित विधान कार्यपालिका के आदेश मात्र थे। मोट फोर्ट रिपोर्ट में इन्हें मात्र विधायी समितियों की संज्ञा दी गयी। इनमें मनोनीत किये जाने वाले सदस्य वस्तुतः जनता के प्रतिनिधि नहीं होते थे। वे राजे-महाराजे, सामन्त और पूँजीपति होते थे। उन्हें जनता की समस्याओं में कोई रुचि नहीं होती थी। वे अन्यमनस्क भाव से परिषदों की बैठकों में भाग लेने तथा उनकी समाप्ति के लिए उतावले रहते थे। जनता के प्रतिनिधि न होने के कारण इन्हें जनमत का सही ज्ञान भी नहीं होता था। कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप और आर्थिक नीतियों की आलोचना के अधिकार से वंचित होने तथा वायसराय के हाथ में शक्ति के केन्द्रीकरण के कारण ‘कौंसिलों’ की नगण्य स्थिति थी।’ बरटेल फ्रेयर के अनुसार ‘ये राजा के ऐसे दरबार के समान थीं जिनके माध्यम से वह जनता पर अपनी नीतियों के प्रभाव का पता लगाता हैं।’
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