राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ में पाठ्यचर्या का निर्धारण किस प्रकार किया जाना चाहिए? (How should determinants of curriculum in national and international context.)
भारतीय शिक्षा में प्राचीन काल से ही वैश्विक दृष्टिकोण (World Outlook) का समावेश रहा है। भारतीय मनीषियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (The World a family) तथा
“सर्वे भवन्तु सुखिनाः सर्वेसन्तु निरामयः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग भवेत् ॥’
अर्थात् “सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ हों, सभी भद्र (विनम्र) हों तथा कोई भी दुःख का अनुभव न करें।” का सन्देश दिया है। वर्तमान विश्व की स्थिति को देखते हुए, इस दृष्टिकोण की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गई है।
विज्ञान एवं तकनीकी के विकास ने विश्व के देशों की दूरियों को बहुत कम कर दिया है तथा विभिन्न राष्ट्रों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं ने उन्हें एक-दूसरे पर निर्भर कर दिया है। विश्व के किसी भी कोने अथवा देश में घटित किसी भी घटना का उसके दूसरे भागों पर प्रभाव पड़ता है अतः, विभिन्न राष्ट्रों के बीच सहयोग एवं सद्भाव होना आवश्यक है। इसके लिए व्यक्तियों में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास होना चाहिए। व्यक्तियों में प्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का होना बहुत अच्छी बात है, किन्तु इसमें संकीर्णता नहीं होनी चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय भावना का व्यापक रूप है जिसमें व्यक्ति अपने ‘देश-हित के साथ-साथ दूसरे राष्ट्रों के हितों का भी ध्यान रखता है। संकीर्ण राष्ट्रीयता युद्धों को जन्म देती है। पिछले दो विश्व युद्ध संकीर्ण राष्ट्रीयता की ही देन थे। वर्तमान समय में भी विश्व में कई तरह के तनाव, आतंक, हथियारों की होड़, छोटे राष्ट्रों की सम्प्रभुता को चुनौती आदि अनेक समस्याएँ विद्यमान हैं। अतः, इनके निराकरण के लिए व्यक्तियों में अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास अति आवश्यक है।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के विकास हेतु विज्ञान एवं तकनीकी का उपयोग शान्तिपूर्ण एवं विकासात्मक कार्यों के लिए ही किया जाना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास के उपायों में शिक्षा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। अन्तर्राष्ट्रीय अथवा वैश्विक दृष्टिकोण के विकास हेतु हमें वर्तमान शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यचर्या तथा अन्य शैक्षिक कार्यक्रमों में समुचित परिवर्तन एवं संवर्द्धन करना होगा अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा के उद्देश्य व्यापक हों अतः, शिक्षा का उद्देश्य बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, चारित्रिक एवं नैतिक विकास करने के साथ-साथ उसे विश्व का नागरिक बनाना भी होना चाहिए इस प्रकार विश्व नागरिकता की अनुभूति होने से व्यक्ति सम्पूर्ण संसार के कल्याण की बात सोचेगा तथा उसे व्यक्तिगत, सामूहिक एवं राष्ट्रीय हितों से ऊपर समझेगा।
अन्तर्राष्ट्रीय भावना की दृष्टि से निर्धारित शिक्षा के उद्देश्यों के अनुकूल पाठ्यचर्या का निर्माण करके ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए पाठ्यचर्या में भी व्यापकता लानी होगी अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के विकास की दृष्टि से हमारे वर्तमान पाठ्यचर्या का विस्तार इस प्रकार होना चाहिए-
- इतिहास, भूगोल तथा अन्य सामाजिक विज्ञानों के पाठ्यचर्या में देश-विदेश की भौगोलिक परिस्थितियों, रहन-सहन, खान-पान, उनके धर्मों एवं संस्कृतियों के अध्ययन का समावेश किया जाना चाहिए।
- पाठ्यचर्या में विभिन्न राष्ट्रों के साहित्य, संगीत एवं कला आदि को उपयुक्त स्थान दिया जाना चाहिए।
- अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की संस्थाओं और संगठनों के बारे में जानकारी को पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
- संयुक्त राष्ट्र संघ एवं उसकी विभिन्न संस्थाओं द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं इस हेतु अपनाये गए कार्यक्रमों को हमारे शैक्षिक कार्यक्रमों में स्थान प्रदान किया जाए।
- अन्तर्राष्ट्रीय भावना से युक्त पाठ्य सहगामी क्रियाओं, जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय दिवसों को मनाना, विश्व के प्रमुख नेताओं के जन्मदिन मनाना, अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ आयोजित करना तथा देश-विदेश की सभ्यता एवं. संस्कृतियों पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि का आयोजन करना।
- पाठ्यचर्या में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की भाषाओं को स्थान देना।
- विभिन्न विषयों-विज्ञान, गणित, साहित्य, इतिहास, भूगोल के शिक्षण के दौरान अन्तर्राष्ट्रीय तत्वों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
इनके साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षकों का आदान-प्रदान, विद्यार्थियों के अध्ययन की व्यवस्था, विद्यार्थियों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मित्र बनाना, रेडियो एवं दूरदर्शन पर अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों का प्रसारण, अन्तर्राष्ट्रीय खेल-कूद का आयोजन आदि को भी शैक्षिक कार्यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के विकास के लिए यह भी आवश्यक हैं कि परम्परागत भारतीय समाज तथा पाश्चात्य देशों की आधुनिकता के बीच सामंजस्य स्थापित हो। अतः, पाठ्यचर्या में हमें प्राचीनता एवं आधुनिकता का समन्वय करना होगा।
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