मार्क्सवाद के मुख्य सिद्धान्त
मार्क्स ने अपने सिद्धान्तों को वैज्ञानिक समाजवाद नाम दिया है। उसके मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद दो शब्दों का मिश्रण है। भौतिकवाद तथा द्वन्द्वात्मक। प्रकृति को मूल मानने वाले सिद्धान्त को भौतिकवाद कहते हैं। मार्क्स के अनुसार इस दृष्टि का एक मात्र मूल तत्व जड़ प्रकृति या पदार्थ है। उसका कहना है कि चूँकि हम आत्मा, परमात्मा, अध्यात्म का अनुभव नहीं कर सकते अतः इसका मनुष्य के लिए कोई भी अस्तित्व नहीं है। उसने दृष्टिगोचर जगत को ही मूल तत्व माना है। मार्क्स के अनुसार यही दृष्टिगोचर होने वाला संसार प्रकृति स्वरूप भौतिकवाद है। द्वन्द्वात्मक अंग्रेजी शब्द ‘डायलेक्टिक’ का हिन्दी रूपान्तर है जो कि यूनानी शब्द ‘डाइलेगो’ से बना है जिसका अर्थ है तर्क वितर्क करना। मार्क्स की द्वन्द्वात्मक विचारधारा पर हीगेल का प्रभाव पड़ा था। हीगेल के अनुसार सत्य दो विरोधी तत्वों के संघर्ष से उत्पन्न होने वाली वस्तु है। मार्क्स ने इसकी इस धारणा को हृदयंगम कर लिया और इस पद्धति को सामाजिक क्षेत्र में प्रयुक्त किया। मार्क्स भौतिकवादी था। उसके अनुसार सामाजिक विकास की प्रेरक शक्तियाँ आर्थिक तत्व हैं।
(2) इतिहास की वस्तुवादी व्याख्या- मार्क्स के अनुसार सभी परिवर्तन आर्थिक तत्वों के परिणाम होते हैं। ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि यही आर्थिक तत्व लगभग सभी राजनैतिक प्रवृत्तियों को निर्धारित करते हैं। उसके अनुसार इतिहास आर्थिक तत्वों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया से प्रभावित होता है। उसने इतिहास को पाँच भागों में बाँटा है- 1. आदिम साम्यवादी युग, 2. दास युग, 3. सामन्तवादी युग, 4. पूँजीवादी युग, 5. साम्यवादी युग ।
(3) वर्ग संघर्ष – मार्क्स के अनुसार मानव जाति का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। प्रत्येक युग में आजीविका उपार्जन के विविध उपाय मनुष्य को एक वर्ग बना देने की भूमिका है। प्रत्येक अदा करते हैं। इन लोगों के आर्थिक हित समाज होते हैं तथा इनकी सामुदायिक चेतना वर्ग संघर्ष को जन्म देती है। संघर्ष का अर्थ केवल लड़ाई ही नहीं बल्कि उसका व्यापक अर्थ असंतोष, रोष और असहयोग भी है। मार्क्स के अनुसार सम्पूर्ण मनुष्य समाज दो भागों में विभाजित है। एक वर्ग उत्पादनों के साधनों का स्वामी है तो दूसरा वह श्रमजीवियों का वर्ग है जो वास्तविक उत्पादन करता है। इन दोनों वर्गों के हित एक दूसरे के विरोधी होते हैं तथा दोनों वर्गों में आपसी संघर्ष होता रहता है।
(4) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त- एन्जिल के अनुसार अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त मार्क्सवाद का मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त के दो पहलू हैं। एक उपयोगिता तथा दूसरा विनिमय। जो वस्तु मनुष्य के लिए अच्छी है वह उपयोगी और जो इच्छा पूर्ति न करे वह अनुपयोगी। मार्क्स का कहना है कि पूँजीपति मजदूर को श्रम के बदले पैसा देता है लेकिन यह वेतन इतना कम होता है कि वह इस धनराशि के बराबर श्रम तो दो चार घन्टे में कर सकता है। मिल मालिक मजदूरों से अधिक काम कराता है तथा इस समय में उत्पादन किये गये माल का जो मूल्य मिल मालिक स्वयं हड़प जाता है, वह अतिरिक्त मूल्य कहलाता है। यह अतिरिक्त मूल्य मिल मालिक को न मिलकर मजदूरों को मिलना चाहिए।
(5) साम्य दल तथा उसके कार्य- मार्क्स ने लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था शीघ्र ही समाप्त होगी और साम्यवादी युग आएगा। साम्यवादी युग साम्यवादी विचारों के प्रचार से तथा साम्यवादी दल को सुदृढ़ संगठित करने से तथा उसके कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने से आएगा। मार्क्स ने साम्य दल के निम्नलिखित कार्य बताए-
1. व्यक्तिगत सम्पत्ति की व्यवस्था का अन्त किया जाए।
2. प्रत्येक व्यक्ति को कार्य करना अनिवार्य है।
3. उत्तराधिकार की प्रथा समाप्त की जाए।
4. शिक्षा औद्योगिक उत्पादन के अनुसार दी जाए।
(6) क्रान्ति का सिद्धान्त- मार्क्स का विचार है कि पूँजीवाद शान्तिपूर्ण तथा वैज्ञानिक तरीकों से समाप्त नहीं होगा। वह क्रान्ति में विश्वास करता है। साम्यवादी घोषणा-पत्र में मजदूरों को सम्बोधित करते हुए लिखा है कि “तुम्हारे पास खाने के लिए सिवाय जंजीरों के कुछ नहीं है और पाने के लिए सारा संसार। दुनिया के मजदूरों तुम क्रान्ति करने के लिए तैयार हो जाओ।
(7) सर्वहारा वर्ग की अधिनायकता- मार्क्स के अनुसार साम्यवादी क्रान्ति होने के बाद तथा साम्यवादी समाज स्थापित होने के मध्य अल्पकाल के लिए संक्रमण कालीन अवस्था होगी। इस अवस्था में शासन सत्ता मजदूरों के हाथ में होगी जो कि कठोर निर्मम तथा हिंसापूर्ण रहेगी। मार्क्स ने इसी को सर्वहारा वर्ग की अधिनायकता कहा।
(8) राज्य विषयक सिद्धान्त- मार्क्स के अनुसार राज्य की आवश्यकता तभी तक है जब तक समाज में वर्ग संघर्ष है। साम्यवादी क्रान्ति के पश्चात् राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। उसने राज्य को पूंजीपतियों का संगठन माना है। राज्य समाप्त हो जाने पर सभी व्यक्ति समानता के आधार पर एक-दूसरे के सहयोगी तथा मित्र हो जाएँगे और ऐसी स्थिति में राज्य स्वयं लुप्त हो जाएगा तथा एक वर्गविहीन, राज्यविहीन समाज की स्थापना होगी। यही कार्ल मार्क्स का साम्यवाद है।
मार्क्सवाद की आलोचना
मार्क्सवाद की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है-
(1) मार्क्सवाद केवल भौतिक तत्वों पर बल देता है जबकि संसार के भौतिक तत्वों के अलावा भी अन्य तत्व जैसे आध्यात्मिक तत्व, मानसिक प्रेरणा तथा राजनीतिक आकांक्षाएँ विद्यमान रहती हैं। इस प्रकार मार्क्स का सिद्धान्त एक पक्षीय दृष्टिकोण पर आधारित है।
(2) मार्क्स के राज्यविहीन तथा समाजविहीन समाज की स्थापना की धारणा गलत है। मार्क्स राज्य को शोषण का साधन मानता है तथा राज्यविहीन समाजविहीन समाज की स्थापना करता है। यह धारणा गलत है। सोवियत संघ में भी ऐसे समाजवाद की स्थापना न हो सकी, राज्य समाप्त होने से अराजकता की स्थिति उत्पन्न होगी। इसके अतिरिक्त राज्य बहुत कल्याणकारी कार्य करता है।
(3) मार्क्सवाद का सिद्धान्त अस्पष्ट है। एक ओर मार्क्सवाद क्रान्ति में विश्वास करता है दूसरी ओर विकासवादी स्वरूप पर जोर देता है। परिवर्तन के मार्ग दोनों के भिन्न हैं। क्रान्ति के पश्चात् भावी समाज का क्या स्वरूप होगा? इसके सम्बन्ध में मार्क्स ने कोई जिक्र नहीं किया।
(4) मार्क्स की भविष्यवाणियाँ गलत साबित हुई। मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद का अन्त आवश्यक था, लेकिन आज भी पूंजीवाद फल-फूल रहा है। मार्क्स ने दो वर्ग बताए थे लेकिन आज के युग में तीन वर्ग सामने हैं- धनी, निर्धन एवं मध्यम । बल संघर्ष के स्थान पर बल सहयोग भी दिखाई देता है।
(5) मार्क्स का सिद्धान्त हिंसा और क्रान्ति पर आधारित है जो सर्वथा अमान्य है। हिंसा और क्रान्ति से समाज की स्थापना कभी नहीं हो सकती। क्रान्ति तो अंधेरे में छलांग लगाने के समान है।
(6) मार्क्स की अतिरिक्त मूल्य की धारणा गलत है। सत्य यह है कि वस्तुओं का मूल्य श्रम के साथ अन्य कारणों से भी निर्धारित होता है।
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