नव-उदारवाद की प्रमुख विचारधारा का वर्गीकरण
नव-उदारवाद की प्रमुख विचारधारा- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, उदारवादी सिद्धान्त का विकास भिन्न-भिन्न रूपों में हुआ। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के बारे में नव-उदारवादी विचारों के सर्वाधिक महत्पूर्ण पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए युद्धकालीन उदारवादी (नव-उदारवाद) को चार प्रमुख विचारधाराओं में बाँटा जा सकता है-
(1) समाजशास्त्रीय उदारवाद (Sociological Liberalism)
(2) अन्योन्याश्रित उदारवाद ( Interdependence Liberalism)
(3) संस्थात्मक उदारवाद (Institutional Liberalism)
(4) गणतंत्रात्मक उदारवाद (Republican Liberalism)
समाजशास्त्रीय उदारवाद
समाजशास्त्रीय उदारवाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभुतासम्पन्न राज्यों की सरकारों के मध्य सम्बन्धों के अध्ययन मात्र को सुचित एवं एकपक्षीय विचार मानकर यथार्थवादियों के इस दृष्टिकोण को नकारता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में पर- राष्ट्रीय सम्बन्ध अर्थात् विभिन्न देशों के लोगों, समुदायों एवं संगठनों के बीच सम्बन्धों का अध्ययन भी शामिल है। यहाँ पर समाज एवं राज्य दोनों पर बल दिया गय है। यहाँ विभिन्न प्रकार के कारक हैं, न कि केवल राष्ट्रीय सरकारें। अतः इस दृष्टिकोण को बहुलवाद (Pluralism) का नाम दिया जा सकता है।
“पार-राष्ट्रवाद का सम्बन्ध उस प्रक्रिया से है जिसमें व्यक्ति समुदाय एवं समाजों के बीच सम्बन्ध द्वारा संचालित अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सम्पूरक हैं जिनका विभिन्न घटनाक्रमों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।”- जेम्स रोजनो, द स्टडी ऑफ ग्लोबल इंटरडिपेंडेंस – 1980
समाजशास्त्रीय उदारवादियों का इस धारणा में विश्वास है कि शान्ति की स्थापना में राष्ट्रीय सरकारों की वजाय जनता के बीच सम्बन्ध अधिक सहयोगी एवं अधिक समर्थ होते हैं, कार्ल ड्यूश (Karl Deutsch) विभिन्न समाजों के मध्य संचार एवं आदान-प्रदान की सीमा को मापने का प्रयास करते हैं। वे मानते हैं कि समाजों के मध्य उच्च स्तर के पार – राष्ट्रीय सम्बन्ध युद्ध की बजाय शान्तिपूर्ण सम्बन्धों को बढ़ावा देते हैं। वे इस “सुरक्षा समुदाय अथवा लोगों का संगठित समूह’ कहते हैं। (पॉलिटिकल कम्यूनिटी एण्ड नार्थ अटलांटिक एरिया – 1957 ) जो एकीकरण को प्राप्त कर चुके हैं। इसका यह अर्थ है कि यदि जनता इस बात से सहमत हो जाए कि उनके विवादों एवं समस्याओं का निपटारा विशाल स्तर पर बिना बल प्रयोग का सहारा लिए हो सकता है तो समुदाय की भावना को हासिल किया जा सकता है।
जॉन बर्टन अपनी कृति ‘वर्ल्ड सोसाइटी’ (World Society-1972) में पार-राष्ट्रीय सम्बन्धों को ‘मकड़जाल या बाग्जाल मॉडल’ (Cubweb Model) प्रस्तावित करते हैं। वे अपने Cobweb Model द्वारा यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार एक राष्ट्र-राज्य में लोगों के विभिन्न समुदाय शामिल होते हैं जिनके विभिन्न प्रकार के बाहरी सम्बन्ध एवं विभिन्न प्रकार के हित आपस में जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिये धार्मिक समूह, व्यावसायिक समूह, श्रमिक वर्ग आदि। स्वायत्त एवं आत्मनिर्भर इकाइयों वाली राज्य व्यवस्था की यथार्थवादी धारणा के विपरीत बर्टन यह तर्क देते हैं कि यदि हम विभिन्न समुदायों के बीच सम्प्रेषण एवं आदान-प्रदान के प्रतिरूपों को देखें तो हमें राज्य की कृत्रिम सीमाओं की बजाय मानव व्यवहार के वास्तविक प्रतिरूप का प्रदर्शन करने वाले विश्व का एक सही चित्र दिखाई देगा। ‘बाग्जाल मॉडल’ एक ऐसे विश्व की ओर इशारा करता है जो विरोधी संघर्ष की बजाय परस्पर लाभकारी सहयोग से अधिक संचालित होता है। यह विचार समूह सदस्यता के निकट मार्ग अथवा अतिव्याप्ति के लाभकारी प्रभावों के बारे में प्रारम्भिक उदारवादी धारणा पर आधारित है। जब व्यक्ति एक ही समय पर अनेक विभिन्न समुदायों का सदस्य होता है, तो विवादों को यदि समाप्त नहीं किया जा सकता, तो उन्हें रोका अवश्य जा सकता है। यह तर्क दिया जा कसता है कि अतिव्याप्त (Overlapping) सदस्यता किसी भी दो वर्गों के बीच गम्भीर विवाद के खतरे को कम कर देती है।
इस प्रकार बहुलवादी विश्व व्यवस्था में, जो व्यक्तिगत एवं समूहों के पार – राष्ट्रीय जालनुमा व्यवस्था पर आधारित है, सम्बन्ध अधिक मधुर एवं शान्तिपूर्ण होंगे। चूँकि राज्य शक्ति पर आधारित पुरानी व्यवस्था विछिन्न हो चुकी है, इसलिए यह एक अधिक अस्थाई विश्व होगा वरन् विवादों में बल का प्रयोग बहुत कम होगा क्योंकि असंख्य नए सार्वदेशिक जो अनेक अतिव्याप्त समूहों के सदस्य हैं वे आसानी से विद्रोही शिविरों में बँटकर शत्रु नहीं बनेंगे।
अन्योन्याश्रित उदारवाद
20वीं शताब्दी खासकर 1950 के बाद की अवधि में बड़ी संख्या में उच्च औद्योगीकृत देशों का उदय अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक बहुत महत्वपूर्ण विकास है। डेविड मिटरेनी (ए. वर्किंग पीस सिस्टम – 1996 ) एकीकरण के एक कार्यात्मक सिद्धान्त (Func- tionalist Theory) का प्रतिपादन करते हैं जिसमें वे यह सुझाव देते हैं कि सहयोग का निर्माण तकनीकी विशेषज्ञ कर सकते हैं न कि राजनीतिज्ञ विशेषज्ञ ही विभिन्न कार्यात्मक क्षेत्र जैसे कि- यातायात, संचार, वित्त आदि की सामान्य समस्याओं का हल प्रदान कर सकते हैं उनका यह भी तर्क है कि आर्थिक अन्योन्याश्रित के फलस्वरूप राजनीतिक एकीकरण एवं शान्ति का निर्माण होगा।
अर्नेस्ट हॉस (द यूनाइटिंग ऑफ यूरोप : पॉलिटिकल, सोशल एण्ड इकॉनामिक फोर्सेस- 1958) द्वारा कार्यात्मक सिद्धान्त की एक अन्य धारा का विकास किया गया जिसे नवकार्यात्मक सिद्धान्त (New Functionalist Theory) कहा जाता है। वे पश्चिमी यूरोप के देशों के मध्य उस प्रगाढ़ सहयोग से प्रेरित थे जिसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई। अर्नेस्ट हॉस तकनीकी मामलों को राजनीतिक मामलों से अलग रखने की धारणा का खण्डन करते हैं। उनके अनुसार, एकीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा राजनीतिक अभिनेता अपनी निष्ठा को एक नए केन्द्र की ओर प्रतिस्थापित करने के लिये तैयार हो जाते हैं जिसकी संस्थाएँ पहले से मौजूद राष्ट्रीय राज्यों से न्यायाधिकार की माँग करती हैं। हॉस का विश्वास है कि एकीकरण की ऐसी कार्यात्मक प्रक्रिया “अतिरिक्त गिरावट” (Spillover) की धारणा पर आधारित है अर्थात् एक क्षेत्र में बढ़ता सहयोग अन्य क्षेत्रों में उन्नतशील सहयोग को बढ़ावा देगा। 1960 5 दशक के मध्यकाल से पश्चिमी यूरोपीय सहयोग में निष्क्रियता और यहाँ तक कि पतित प्रवृत्ति के लम्बे काल के प्रकाश में हॉस यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रादेशिक एकीकरण की व्यापक सन्दर्भ में अध्ययन की आवश्यकता है अर्थात् ‘प्रादेशिक एकीकरण’ की अवधारणा या सिद्धान्त अन्योन्याश्रितता सिद्धान्त के अन्तर्गत होना चाहिए।
पश्चिमी यूरोपीय सहयोग में एक नये संवेग के कारण 1980 एवं 1990 के दशक में “एकीकरण या अखण्डता के सिद्धान्तों” ने एक पुनर्जीवन पाया है। रॉबर्ट कोहेन तथा जोसेफ नाई E पॉवर एण्ड इंटरडिपेंडेस : वर्ल्ड पॉलिटिक्स इन ट्रांस्जिशन- 1977) ने 1970 के दशक के अन्त में ‘जटिल अन्योन्याश्रिता’ का एक सामान्य सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उनके अनुसार “उत्तरयुद्धकालीन जटिल अन्योन्याश्रितता प्रारम्भिक एवं सामान्य प्रकार की परस्पर निर्भरता से गुणात्मक रूप से भिन्न है। राज्य केन्द्रित अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध जिसमें राजनेता अन्य राज्य नेताओं से सम्बन्ध कायम करते हैं और जहाँ विवाद के दौरान विकल्प के रूप में सैन्य बल का प्रयोग किया जाता है। वह अब बदल चुका है। अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक मामलों की ‘निम्न राजनीति’ पर अब सुरक्षा एवं अस्तित्व की ‘उच्च राजनीति’ को प्राथमिकता दी जाती है । परन्तु मिश्रित अथवा जटिल अन्योन्याश्रितता की स्थिति में यह एक सम्पूर्ण रूप से भिन्न कहानी है। यह दो कारणों के फलस्वरूप है-
(1) प्रथम, राज्यों के बीच सम्बन्ध केवल मात्र राजनेताओं के मध्य सम्बन्ध नहीं हैं। वरन् यह विभिन्न स्तरों पर विभिन्न अभिकर्ताओं एवं सरकार की शाखाओं का भी सम्बन्ध है।
(2) द्वितीय, राज्य के बाहर भी व्यक्ति एवं समुदायों के बीच पार – राष्ट्रीय सम्बन्ध कायम हैं। इसके अतिरिकत, जटिल अन्यान्याश्रितता की इन परिस्थितियों में सैन्य बल नीति कम उपयोगी साधन है। आज अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध घरेलू राजनीति की तरह बन गए हैं। विभिन्न मुद्दे विभिन्न गठबन्धनों को जन्म दे रहे हैं। सन्धि के उपकरण के रूप में सैनिक संसाधनों की बजाय शक्ति संसाधनों में वृद्धि का महत्त्व बढ़ रहा है अन्ततः राष्ट्रीय सुरक्षा की ‘उच्च राजनीति’ की अपेक्षा कल्याण की ‘निम्न राजनीति’ की वरीयता बढ़ रही है। इस जटिल अन्योन्याश्रितता के अन्तर्गत यह राज्य की चिन्ता का प्रमुख विषय बन गया है। परिणामस्वरूप राज्यों के मध्य अधिक मैत्रीपूर्ण एवं सहयोगी सम्बन्ध कायम हुए हैं।
कोहेन एवं नाई के अनुसार, कुछ परिणाम जो ऐसी परिस्थितियों का अनुगमन कर सकते हैं, उन्हें भी ध्यान में रखना जरूरी है-
(1) पहला, राज्य एक ही समय पर पार- राष्ट्रीय निगमों के साथ विभिन्न लक्ष्य निर्धारित करते हैं और ये कर्त्ता राज्य नियंत्रण से मुक्त अपने पृथक लक्ष्य भी निर्धारित करते हैं।
(2) दूसरा, शक्ति संसाधन प्रायः विशेष क्षेत्रों से जुड़े हो सकते हैं। उदाहरण के लिये, डेनमार्क एवं नार्वे अन्तर्राष्ट्रीय पोत परिवहन में अपना प्रभावी नियंत्रण स्थापित करते हैं क्योंकि उनके पास व्यापक व्यापारिक एवं जंगी जहाजी बेड़ा है।
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