उदारवाद का उद्भव
उदारवाद का उद्भव व विकास उदारवादी विचारधारा पश्चिमी जगत में (आधुनिक काल से) आरम्भ हुई। यह समय व परिस्थितियों के बदलाव के साथ, अपने मौलिक रूप को बनाये रखते हुए, थोड़े बहुत छोटे-छोटे परिवर्तन करती रही है। पुनर्जागरण तथा धर्मसुधार आन्दोलनो ने उदारवाद को जन्म दिया, औद्योगिकरण ने इसे आधार प्रदान किया; बढ़ते पूंजीवाद ने इसे स्वतंत्रता के निकट ला खड़ा किया; व्यक्ति के प्रति इस विचारधारा की आस्था ने राज्य को सीमित रूप दिया। सामान्यतया उदारवाद एक विचारधारा से अधिक है, यह सोचने का एक तरीका है, संसार को देखने की एक दृष्टि है तथा राजनीति को उदारीकरण की ओर बनाए रखने का एक प्रयास है।
17वीं व 18वीं शताब्दियों में उदारवाद लॉक बेन्थम व एडम स्मिथ की रचनाओं में दिखायी देता है। तब इसका रूप नकारात्मक था और इसे व्यक्तिवाद व शास्त्रीय उदारवाद के रूप में जाना जाता था। 19वीं शताब्दी के दौरान जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसे सकारात्मक रूप दिया। तब राज्य को आवश्यक बुराई समझने की बजाए एक सकारात्मक अच्छाई समझा जाने लगा तथा तब अनियंत्रित वैयक्तिक स्वतंत्रता को व्यवस्था के लिए खतरा समझते हुए व्यक्ति को गतिविधियो पर उचित प्रतिबंध लगाए जाने लगे। 20वीं शताब्दी के पहले पाँच-छः दशकों तक लास्की व मैकाइवर के हाथों उदारवाद का विकास कुछ इस प्रकार हुआ कि राज्य अब एक अच्छी तथा आवश्यक संस्था समझी जाने लगी और कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता का रक्षक समझा जाने लगा। मार्क्सवाद की लोकप्रियता के फलस्वरूप 20वीं शताब्दी के सातवें दशक के बाद उदारवाद पुनः व्यक्ति की स्वायत्तता की ओर झुकता हुआ राज्य के कार्यों को सीमित करने का समर्थन करता रहा है।
उदारवाद, व्यक्ति ऐसी विचारधारा है; व्यक्ति की स्वतंत्रताओं व अधिकारों की चर्चा करता है; राज्य को व्यक्ति रूपी साध्य का साधन बताता है; रूढ़िवादिता व परम्परावाद से हटते हुए सभी क्षेत्रों में सुधारों व उदारीकरण का पक्ष लेता है; संविधानवाद विधि का शासन, विकेन्द्रीयकरण, स्वतंत्र चुनाव व न्याय व्यवस्था, लोकतान्त्रिक प्रणाली, अधिकारों, स्वतंत्रताओं व न्याय की व्यवस्था आदि उदारवादी विचारधारा के कुछ अन्य प्रमुख लक्षण हैं।
उदारवाद के मुख्य लक्षण उसके उदय व विकास के चरणों से जुड़े हुए है। 1688 की गौरवपूर्ण अंग्रेजी क्रांति ने शासको के दैवी सिद्धांतों का तिरस्कार कर राज्य को एक मानवीय संस्था बताने का प्रयत्न किया था। उदारवाद व्यक्ति से जुड़ी विचारधारा है। 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति ने पश्चिमी समाज को स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के विचार देकर मध्ययुगीन निरंकुश शासन को त्याग दिया था। उदारवाद स्वतंत्रता से जुड़ी विचारधारा है। अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम तथा बाद के अमरीकी संविधान ने व्यक्ति के अधिकारों की आवाज उठायी थी । उदारवादी व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़ी विचारधारा है। उदारवाद निरंकुशवाद के विरूद्ध संवैधानिकवाद पर जोर देता है। माण्टेस्क्यू ने शासन-कार्यों को विभिन्न हाथों में देकर शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रचार किया था। उदारवाद सीमित कार्यों को करने वाले सीमित शक्तियों के राज्य की चर्चा करता है। जॉन लॉक की धारणा थी कि क्योंकि राजनीतिक कार्य सीमित होते हैं, इस कारण राजनीतिक शक्ति भी सीमित होनी चाहिए। एडम स्मिथ व बेन्थम अहस्तक्षेपी राज्य के समर्थक थे। राज्य आवश्यक तो है, परन्तु यह अनिवार्यतः एक बुराई है। पुनर्जागरण ने राज्य को ईश्वर-कृत छोड़ मानव-कृत संस्था बना दिया था तथा धर्मसुधार आंदोलन ने धर्म के सार्वजनिक व राजकीय रूप के स्थान पर इसे व्यक्ति का निजी मामला बना दिया : उदारवाद लोगों की सहमति पर आधारित राज्य को स्वीकार करता है तथा मध्ययुगीन परम्परावादी सोच के विपरीत राज्य की धर्मनिरपेक्षता को महत्व देता है।
उदारवाद के रूप
उदारवाद के दो रूप हैं-
(1) नकारात्मक उदारवाद- उदारवाद एक विशेष आर्थिक वर्ग- उभरते हुए पूँजीवादी वर्ग (मध्यम वर्ग ) – का दर्शन रहा है। अतः इसका आर्थिक पहलू और भी महत्वपूर्ण है। 1760 से 1830 की जबरदस्त औद्योगिक क्रांति के दौर में फ्रांस में फिजियोक्रेट्स, इंग्लैण्ड में एडम स्मिथ, रिकार्डो, माल्थस आदि ने लेसेफेयर का सिद्धांत दिया तथा आर्थिक क्षेत्रों में किसी भी प्रकार की राजनैतिक दखलंदाजी का विरोध करते हुए आर्थिक स्वतंत्रता की सिफारिश की। स्वतंत्र समझौते, व्यापार, प्रतियोगिता, अर्थव्यवस्था, बाजार तथा बाजारू समाज को आर्थिक स्वतंत्रता की आवश्यकता बताते हुए राज्य की आर्थिक मामलों में दखलंदाजी का विरोध किया गया। यह शुद्ध पूंजीवादी आर्थिक सिद्धांत औद्योगिक क्रांति के दौरान पूंजीपति वर्ग के हित की पूर्ति करने वाला तथा स्वतंत्र पूंजीवादी प्रगति की आवश्यकता थी। आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिवाद को महत्व दिया गया। उत्पादन के साधनों के मालिक अपनी प्रगति के लिए उन तमाम बंधनों से मुक्त होना चाहते थे जो उनके आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक थे। राज्य के अधिकार क्षेत्र को सीमित कर आर्थिक मामले में राज्य की घुसपैठ तथा दखलंदाजी को रोककर, आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को स्वतंत्र रूप से स्थापित करके यह प्राप्त किया गया। राज्य तथा स्वतंत्रता को नकारात्मक मानकर राज्य की शक्ति तथा स्वतंत्रता में विरोध देखा जाने लगा।
नकारात्मक उदारवाद की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-
1. मानव व्यक्तित्व के असीम मूल्य तथा व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता में विश्वास।
2. व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा में विश्वास।
3. मानव की विवेकशीलता और अच्छाई में विश्वास।
4. मानव की मानवता के लिए कुछ प्राकृतिक अदेय अधिकारों जीवन, स्वतंत्रता, सपंत्ति में विश्वास।
5. राज्य की उत्पत्ति, अधिकारों की हिफाजत के उद्देश्य से, सामाजिक समझौते के द्वारा हुई है।
6. राज्य तथा व्यक्ति के संबंध का आधार आपसी समझौता है। जब कभी भी राज्य समझौते की आवश्यक शर्तों को भंग करेगा तो उसके खिलाफ बगावत करना व्यक्ति का अधिकार नहीं बल्कि उत्तरदायित्व है।
7. सामाजिक नियंत्रण हुक्म चलाने के बजाए कानूनों के माध्यम से अच्छी प्रकार हो सकता है, तथा कानूनों का आधार विवेक है न कि आदेश।
8. सरकार तथा राज्य आवश्यक बुराई है तथा जो सरकार कम से कम शासन करे वह सर्वोत्तम है।
9. मानव की स्वतंत्रता, जीवन के हर क्षेत्र- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, बौद्धिक आदि में होनी चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ तमाम सत्ताओं से मुक्ति या नकारात्मक स्वतंत्रता माना गया, जो मात्र बंधनहीनता है।
10. समाज को एक कृत्रिम संस्था समझा गया जिसका उद्देश्य स्वतंत्र मानव के कुछ हितों की तृप्ति करना था। जिसकी प्रकृति एक बाजारू समाज जैसी मानी गई। समाज का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वार्थ की सिद्धि मान कर, व्यक्ति के हित के द्वारा समाज के हित को संभव समझा गया।
11. मुक्त व्यापार तथा समझौते पर आधारित पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था जिसमें राज्य की दखलंदाजी तथा नियंत्रण बिल्कुल न हो। यह पूंजीवादी वर्ग का आर्थिक दर्शन है।
(2) सकारात्मक उदारवाद- उन्नीसवीं शताब्दी में नकारात्मक उदारवाद पर आधारित स्वतंत्र पूंजीवादी आर्थिक तथा राजनैतिक व्यवस्था के गंभीर परिणाम दिखाई दिए। पूंजीवादी की प्रगति के एक नए आर्थिक वर्ग को जन्म दिया। संपत्तिहीन, कमजोर वर्ग जिसके पास पूंजीवादी स्वतंत्र बाजार में बेचने के लिए अपनी श्रमशक्ति के अलावा कुछ भी नहीं था। स्वतंत्र पूँजीवादी के विकास के कारण इस वर्ग की दुर्दशा भयंकर रूप में प्रकट हुई। मजदूर वर्ग पर अत्याचार इतना भयंकर हो रहा था कि स्वयं उदारवादी लेखकों ने इसकी गहरी आलोचना की। कारलाइल, रस्किन, विलियम मारिस, जैसे साहित्यकारों ने सेंट साइमन, चार्ल्स फोरियर, जैसे पादरियों ने राबर्ट आवेन जैसे पूंजीपतियों ने, सिसमांडी, बूरेट, कोलरिज, साउथे जैसे लेखकों ने मजदूरों पर हो रहे अत्याचारों की ओर आम जनता का ध्यान खींचा। मजदूर वर्ग के आर्थिक शोषण की वजह से उदारवादी दर्शन चरमराने लगा। स्वतंत्र समझौते का सिद्धांत मजदूर वर्ग के ऊपर स्वतंत्र शोषण का सिद्धांत बन गया। उदारवाद उनके लिए अत्याचारवाद के रूप में आया, स्वतंत्रता उनके लिए पेट की गुलामी के रूप में उभरी।
इसके अलावा राज्यसत्ता पर अब पूंजीवादी वर्ग का कब्जा था। जो पूंजीवादी वर्ग सामंतवादी तथा राजशाही की सत्ता के विरोध में क्रांतिकारी वर्ग के रूप में उभरा था वह अब स्वयं सत्ताधारी था। अब उसे सत्ता का भय नहीं था, बल्कि मजदूर वर्ग की क्रांति का मुकाबला करने के लिए शक्तिशाली सत्ता की आवश्यकता थी। अतः राज्य तथा राज्य कार्यों, राज्य की प्रकृति, स्वतंत्रता के अर्थ, राज्य तथा व्यक्ति के संबंध आदि के बारे में विचार बदलने लगे। नकारात्मक राज्य तथा स्वतंत्रता, सकारात्मक राज्य तथा स्वतंत्रता में परिवर्तित होने लगी।
पुलिस राज्य कल्याणकारी राज्य में बदलने लगा। राज्य एक आवश्यक बुराई न समझा जाकर एक नैतिक कल्याणकारी और मानव के व्यक्तित्व के विकास की आवश्यकता समझा जाने लगा क्योंकि अब यह पूंजीवादी वर्ग का राज्य था, सामंतों का राज्य नहीं। राज्य को स्वतंत्रता का दुश्मन नहीं ‘मित्र’ माना जाने लगा क्योंकि पूंजीपतियों की शोषण करने, मुनाफा कमाने, एकाधिकार स्थापित करने, उपनिवेशों को कायम रखने की स्वतंत्रता राज्य के ‘कल्याणकारी’ कार्यों के बिना कैसे संभव हो सकती थी?
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