मार्क्सवाद क्या है?
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत मानव समाज की समस्याओं को इतिहास के माध्यम से समझने का प्रयत्न किया जाता है, और इतिहास को परस्पर विरोधी शक्तियों और वर्गों के संघर्ष की प्रक्रिया के रूप में देखा जाता हैं। यह संघर्ष उत्पादन प्रणाली की त्रुटियों के कारण पैदा होता है जिसमें कुछ लोग उत्पादन के साधनों पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लेते हैं, और शेष समाज को अपनी शर्तों पर श्रम करने के लिए विवश कर देते हैं। इससे धनवान् और निर्धन वर्ग अस्तित्व में आ जाते हैं जो क्रमश: प्रभुत्वशाली और पराधीन वर्गों की भूमिका सँभाल लेते हैं। इन दोनों वर्गों के हितों में सामंजस्य की कोई संभावना नहीं है। पूंजीवाद के अंतर्गत इनका संघर्ष चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया है। अतः मार्क्स ने विश्व भर के कामगार वर्ग को संगठित होने और पूंजीपतियों के विरुद्ध क्रांति करने का आह्वान किया है। क्रांति के बाद उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करके समाजवाद की नींव रखी जाएगी। इस अवस्था में पूंजीवाद के अंतिम अवशेषों को हटाना होगा। सारे स्वस्थ व्यक्तियों के लिए श्रम अनिवार्य बनाकर प्रौद्योगिकी तथा उत्पादन की शक्तियों का पूर्ण विकास करना होगा ताकि उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगाया जा सके। समाजवाद की विकसित अवस्था में सामाजिक भेदभाव मिट जाएगा और वर्गहीन समाज का उदय होगा जिसमें मनुष्य सच्चे अर्थ में स्वतंत्र होकर अपने इतिहास का निर्माता बन सकेगा।
कार्ल मार्क्स (1818-83) प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक था जिसे आधुनिक युग के सबसे प्रभावशाली विचारकों में गिना जाता है। उसने स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया था। वह इतिहास, दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र आदि विषयों का ज्ञाता था। 1843 में समाजवाद के अध्ययन के लिए वह पेरिस गया। वहां पर वह पी. जे. प्रूदों, मिखाइल बाकूनिन और जी. मेजिनी जैसे व्यक्तियों के सम्पर्क में आया। वहां वह फ्रैड्रिक एंगेल्स से भी मिला, आर्थिक समस्याओं पर इन दोनों के विचार बहुत मिलते-जुलते थे जिससे ये दोनों निकट सहयोगी बन गए। मार्क्स मुख्यतः सिद्धान्तों का निर्माण करता रहा, एंगेल्स उनके प्रचार और समाजवाद के संगठन की दिशा में प्रयत्नशील रहा।
पेरिस में मार्क्स ने प्रशा की सरकार के विरुद्ध एक लेख लिखा। प्रशा की सरकार की प्रार्थना पर फ्रांस की सरकार ने मार्क्स को निर्वासित कर दिया। वहाँ से ब्रुसेल्स पहुँच कर उसने एंगेल्स की मदद से साम्यवादी प्रचार चलाया। 1848 में फ्रांस में क्रांति हो जाने पर वह फ्रांस वापस आ गया, और वहाँ से साम्यवादी गतिविधियों को तेज करने के इरादे से वह जर्मनी लौट गया। वहां उस पर देशद्रोह का अभियोग लगाकर मुकदमा चलाया गया, पर वह बरी हो गया। अंतत: वह एक निर्वासित व्यक्ति के रूप में लंदन में जा बसा जहाँ 1883 में उसकी मृत्यु हुई।
मार्क्स की दो इतिहास प्रसिद्ध कृतियों ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ (साम्यवादी घोषणापत्र, जो 1848 में प्रकाशित हुआ) और ‘दास कैपिटल’ (पूंजी, जिसका खंड एक 1867 में प्रकाशित हुआ; इसके खंड दो और तीन एंगेल्स के संपादकत्व में क्रमश: 1885 और 1894 में प्रकाशित हुए)। इन कृतियों के माध्यम से उसने तत्कालीन समाजवाद में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन करके एक नई विचारधारा प्रस्तुत की-
(1) उसने स्वप्नदर्शी समाजवाद का खंडन करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद की नींव रखी – अर्थात उसने ‘इतिहास के दर्शन’ के आधार पर समाजवाद के विकास की व्याख्या की और उसे साम्यवाद के लक्ष्य तक पहुँचाने के साधनों पर प्रकाश डाला।
(2) दूसरे, उसने सर्वहारा समाजवाद का सिद्धान्त रखा अर्थात् जहाँ उसके समकालीन दरद्रिता और अन्याय से पीड़ित समाज के पुनर्निर्माण की योजना प्रस्तुत कर रहे थे, वहाँ मार्क्स ने औद्यौगिक क्रांति से पैदा होने वाली परिस्थितियों में कामगार वर्ग को नई चेतना देकर साम्यवादी समाज की स्थापना की योजना रखी। स्वप्नदर्शी समाजवादियों की योजनाएँ पूंजीपतियों के ऐच्छिक सहयोग या ‘हृदय परिवर्तन’ की संभावनाओं पर आश्रित थीं, जिन्हें साकार करने का कोई अचूक उपाय उनके पास नहीं था। मार्क्स ने कामगार वर्ग को पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष का रास्ता दिखाकर व्यावहारिक योजना प्रस्तुत की। उससे पहले समाजवाद एक प्रभावहीन शक्ति के रूप में विद्यमान था; मार्क्स ने उसे जीवंत शक्ति में परिणत कर दिया।
मार्क्सवाद की प्रमुख मान्यताएँ
(1) साधारण श्रम शक्ति पर निर्भर रहने वाले श्रमिक जिनकी आय का स्त्रोत मात्र उनका श्रम ही है।
(2) पूँजीपति जिनकी आय का मुख्य स्रोत ‘अतिरिक्त मूल्य’ अथवा उत्पादन से होने वाला लाभ है।
(3) भूमिपति जिनकी आय का मुख्य साधन भूमि का किराया है। इस तरह आधुनिक पूँजीवादी समाज की वर्ग-संरचना में तीन मुख्य वर्ग हैं-
(4) वेतन भोगी श्रमिक
(5) कामगार श्रमिक और
(6) पूँजीपति और भूमिपति
लेकिन मार्क्स मात्र दो ही वर्ग की बात करता है। एक पूँजीपति वर्ग या बुर्जुआ वर्ग जिनका उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार होता है। दूसरा श्रमिक वर्ग या सर्वहारा वर्ग जो अपने श्रम को बेचकर अपनी जीविका अर्जित करता है।
डा० जनेश्वर वर्मा का विचार है कि “सम्पूर्ण सामाजिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति का माध्यम मनुष्य ही है अत: उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों की विरोधी प्रवृत्तियों का संघर्ष भी समाज में विभिन्न श्रेणियों के संघर्ष के रूप में ही व्यक्त होता है। उत्पादन के ढंग में परिवर्तन उपस्थित होते ही समाज में नई श्रेणियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं। इस तरह श्रेणियों का सीधा सम्बन्ध उत्पादन पद्धति अथवा समाज के आर्थिक आधार के साथ है। ‘
मार्क्स ने उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में पूंजीवाद से जुड़े हुए उदारवादी चिंतन को चुनौती देकर नए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विचारों को बढ़ावा दिया जिससे मार्क्सवादी चिंतन की परम्परा शुरू हुई। आज के युग में यह चिंतन दर्शनशास्त्र, राजनीति विज्ञान और साहित्य के क्षेत्रों में विस्तृत चर्चा-परिचर्चा का विषय माना जाता है। वस्तुतः सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी विषयों की किसी भी शाखा का विद्यार्थी मार्क्सवाद से परिचित रहकर अपने विषय में पारंगत स्पहीज बिम नहीं हो सकता। उदारवाद, समाजवाद या अन्य किसी भी वाद के समर्थक अपनी मान्यताओं की जांच या पुष्टि के लिए मार्क्सवाद का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसके -दोषों पर गुण- विचार करते हैं, और उसके विकल्प प्रस्तुत करते हैं। मार्क्सवाद ने जिन विचारों और उनसे जुड़ी हुई शब्दावली का प्रयोग किया, वे सामाजिक विज्ञानों के विवेचन का महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, मार्क्स ने इतिहास के जिन युगों (दासप्रथा, सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद) की चर्चा की और समाज के जिन वर्गों-बुर्जुवा वर्ग और सर्वहारा) का विवरण दिया, वे विश्वजनीन प्रयोग का विषय बन चुके हैं।
मोटे तौर पर, मार्क्स के विचारों को दो मुख्य धाराओं के रूप में देख सकते हैं जिन्हें हम चिरसम्मत मार्क्सवाद के रूप में पहचानते हैं; दूसरी धारा में मार्क्स के मानववादी चिंतन को रखा जाता है जिसे तरुण मार्क्स विचारों के रूप में पहचाना जाता हैं।
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