विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था क्या है?
विश्व व्यवस्था की अवधारणा सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त पर आधारित है। सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त जीवनशास्त्री बार्टलैन्फी द्वारा 1920 के दशक में प्रतिपादित उस व्यवस्था सिद्धान्त का विकसित रूप है जिसमें उसने जोर देकर कहा कि किसी भी जीव अथवा पेड़-पौधे के किसी भाग विशेष का अध्ययन तब तक अपूर्ण है जब तक उस व्यवस्था का वैज्ञानिक अध्ययन न किया जाए जिसमें उसके विविध अंगों या भागों का एक-दूसरे से सम्बन्ध और उनकी अन्तर्क्रियाओं का गहन अध्ययन न किया जाए। यह केवल वैज्ञानिक या व्यवहार-आधारित अध्ययन से ही सम्भव है। यदि हम व्यवस्था सिद्धान्त को साधारण भाषा में व्यक्त करें तो हम एक मोटरकार का उदारहण ले सकते हैं जिसमें सैकड़ों छोटे-मोटे कलपुर्जे होते हैं। इनमें थोड़ी भी समन्वय की गड़बड़ हो जाए तो कार नहीं चलेगी, फिर चाहे उसका ढाँचा बहुत सुन्दर हो, पेट्रोल भी भरा हो और चारों पहियों में ठीक हवा हो परन्तु यदि मात्र बैटरी को इंजन से जोड़ने वाला केबल बैटरी से अलग हो जाए तो वह स्टार्ट ही नहीं होगा या फिर यदि एक टायर पंक्चर हो जाए तो इंजन चाहे कितनी अच्छी तरह दौड़ रहा हो, गाड़ी चलेगी नहीं। यही बात किसी वृक्ष के बारे में भी कही जा सकती है। यदि आम के पेड़ को उचित मात्रा में धूप और पानी न मिले, यदि उसकी जड़ें सूख जाएँ तो वृक्ष फल नहीं देगा। जड़ में उचित खाद पड़ी हो और उसे पानी भी मिले तो मीठे और स्वादिष्ट आम मिलेंगे। मानव शरीर में किसी भी प्रमुख अंग (गुर्दा, या जिगर) के ठीक से काम न करने से सारा शरीर अस्वस्थ हो जाएगा और रक्त की कमी से हृदय भी फेल हो सकता है।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की आम धारणा ही बहुत से विद्वानों के लिए आधार का काम करती रही है। कार्ल डब्ल्यू. ड्यूच तथा रेमण्ड ऐरोन और मॉर्टन कैप्लन इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। ऐरोन का कहना था कि कभी भी कोई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं रही, पूरी पृथ्वी के लिए भी नहीं। किन्तु युद्धोत्तर काल में पहली दफा मानवता एकल इतिहास के साथ जी रही है तथा एक खास तरह की विश्व व्यवस्था प्रकट हुई है। यह व्यवस्था सामान्य असमरूप है लेकिन इतना भी नहीं कि विद्वान उन्हें एक विषय के अन्तर्गत समेट न सकें। सच तो यह है कि स्टैनले हॉफमैन द्वारा दी गई विषय की आरम्भिक परिभाषा ही काफी है। हॉफमैन के अनुसार, एक अन्तर्राष्ट्रीय पद्धति विश्व राजनीति की बुनियादी इकाइयों के बीच सम्बन्धों का ढर्रा है। इसकी पहचान इकाइयों द्वारा अनुसरित उद्देश्यों के क्षेत्र तथा इन इकाइयों के आपसी कार्य व्यापार तथा उन उद्देश्यों व उन कार्यों को सम्पादित करने में प्रयुक्त साधनों के रूप में की जा सकती है।
अन्य विद्वानों की तुलना में प्रो. मॉर्टन कैप्लन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के क्षेत्र में व्यवस्था सिद्धान्तकार के रूप में सबसे ज्यादा प्रभावी माने जाते हैं। उन्होंने विश्व राजनीतिक व्यवस्था के कई वास्तविक एवं काल्पनिक या अनुमानित नमूने दिए हैं। उनके सुपरिचित छह प्रतिमान थे-
(i) शक्ति सन्तुलन व्यवस्था,
(ii) शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था,
(iii) दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था,
(iv) सार्वभौम नियोक्ता व्यवस्था,
(v) पद-सोपानीय व्यवस्था,
(vi) इकाई निषेधाधिकार व्यवस्था।
प्रथम दो वास्तविक ऐतिहासिक यथार्थ हैं जबकि शेष चार काल्पनिक प्रतिमान हैं। हालांकि कैप्लन ने यह नहीं कहा था कि उनकी ये छह प्रणालियाँ उपर्युक्त क्रम में ही प्रकट होंगी फिर भी उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि चूँकि महाशक्तियाँ काफी शक्तिशाली थीं, अत: गुट निरपेक्ष देश धीरे-धीरे अपनी नीति छोड़कर इस या उस शक्तिगुट के साथ निबद्ध हो जाएँगे और इस वजह से एक दृढ़ द्विध्रुवीय विश्व का निर्माण होगा। 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद यह द्विध्रुवीय व्यवस्था समाप्त हो गई है। यह सही है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अन्य राज्यों की तुलना में और अधिक ताकतवार हुआ है, किन्तु साथ ही यह भी सच है कि जर्मनी और जापान जैसे अन्य देश भी आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए हैं। इस तरह संसार को एकल ध्रुवीय या बहुध्रुवीय प्रणाली के रूप में वर्गीकृत करना हमारे विश्लेषण की पद्धति पर निर्भर करता है। वर्तमान विश्व परिदृश्य कैप्लन द्वारा सुझाए गए छह प्रतिमानों में से किसी भी एक के साथ पूरी तरह मेल नहीं खाता।
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