राजनीति विज्ञान / Political Science

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का अर्थ व परिभाषा | अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का स्वरूप

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का अर्थ व परिभाषा
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का अर्थ व परिभाषा

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का अर्थ व परिभाषा

सामान्यतः दो सम्प्रभु देशों के बीच अधिकारिकीय सम्बन्धों के अध्ययन को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का नाम दिया जाता है, किन्तु क्विन्सी राइट के शब्दों में, “इस सन्दर्भ से अन्तर्राष्ट्रीय शब्द ज्यादा उपयुक्त होता क्योंकि राजनीति विज्ञान में राज्य शब्द का प्रयोग ऐसे ही समाजों के लिए किया जाता है।” इस तरह विचार करने पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध एक स्थिति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के तथ्यों का द्योतक है अर्थात् राज्य एवं विदेश नीति के आधार पर राष्ट्रों के बीच सम्बन्धों का वास्तविक व्यवहार। इससे सहयोग, संघर्ष और युद्ध जैसे विषय क्षेत्र शामिल हैं। राइट के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में विषय के बारे में यथार्थवादी होना जरूरी है अर्थात् राज्यों के बीच सम्बन्धों का संचालन कैसे हो और एक विद्या के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को राज्यों के मध्य सम्बन्धों को एक सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करना चाहिए।”

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को सम्प्रभु राज्यों के बीच उन समस्त सम्बन्धों- राजनीतिक, राजनयिक, व्यापारिक एवं अकादमिक का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि वे सभी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध की विषय-वस्तु है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध की परिधि में, तरह-तरह के वे समूह जैसे राष्ट्र, राज्य सरकारें, जातियाँ, क्षेत्र, गठबन्धन, परिसंघ, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, औद्योगिक संगठन भी, सांस्कृतिक संगठन, धार्मिक संगठन आदि भी शामिल है” अर्थात् वे सब जो किसी न किसी तरह अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की प्रक्रिया में लिप्त है।

जहाँ क्विन्सी राइट अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध की दो परिभाषायों एक स्थिति के रूप में और दूसरी विषय के रूप में भेद करते हैं, वहीं दूसरी तरफ पामर एवं पर्किन्स जैसे विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को विद्या के रूप में मान्यता देने में शंका प्रकट करते हैं। इन दोनों का मानना है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध इतिहास और राजनीति विज्ञान की विधाओं से जन्मा है। करीब चालीस वर्ष पहले, पामर एवं पर्किन्स ने कहा था, “ यद्यपि अब अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध उस स्थिति से बाहर आ गया है जब इसे इतिहास एवं राजनीति विज्ञान की खिचड़ी कहा जाता था, किन्तु आज भी यह पूर्ण संगठित विषय की हैसियत से कोसो दूर है।”

प्रो० एल्फ्रेड जिमर्न के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्पष्ट ही सामान्य अर्थ में एक विषय नहीं है। इसके पास पठन सामग्री का एक भी सूत्रबद्ध संकलन नहीं है। यह कोई एक विषय नहीं है बल्कि विषयों का समूह मात्र विधि, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, भूगोल आदि- आदि।” पामर और पर्किन्स के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध अपने चरित्र और विषय क्षेत्र में बहुत अधिक व्यक्तिपरक है। शुरूआती दौर में ई. एच. कार जैसे विद्वानों ने इसे “स्पष्ट और निश्चित रूप से अति आदर्शवादी” कहा था, किन्तु राष्ट्र संघ एवं उसकी सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की विफलता को देखकर उन्हें कहना पड़ा कि अब “अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में विश्लेषणात्मक विचार करना सम्भव हो गया है।” द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक विद्वानों ने ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं। आज यह सम्भव नहीं है कि हम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को मात्र स्वप्न कहकर खारिज कर दें या फिर उसे ज्ञान की एक स्वतन्त्र शाखा न मानें।

राष्ट्रीय हित से प्रत्येक राष्ट्र का विशेष सम्बन्ध होता है। विदेश नीति के नियोजनकर्ता एवं निर्माता अपने देश के राष्ट्रीय हित के बारे में सही समझ की उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि उसकी रक्षा तो हर हालत में जरूरी है। हार्टमैन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के अध्ययन को ऐसे विषय के रूप में परिभाषित करते हैं जो उन प्रक्रियाओं जिनसे राज्य अपने राष्ट्रीय हितों का सामंजस्य दूसरे राज्यों के साथ करते हैं, पर ध्यान जाता है। चूँकि विभिन्न राज्यों के राष्ट्रीय हित प्रायः एक- दूसरे के साथ संघर्ष की स्थिति में रहते हैं। अतः मार्गेन्चाऊ का निष्कर्ष है कि अन्य राजनीति की तरह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति भी शक्ति के लिए संघर्ष है। शक्ति हितों को बढ़ावा देने का साधन है।

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का स्वरूप

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के स्वरूप में व्यापक परितर्वन आया है। तब से लेकर 1991 तक विश्व राजनीति के केन्द्र में अमेरिका व सोवियत संघ रहे। एक तो उपनिवेश उन्मूलन के फलस्वरूप विश्व राजनीति में भागीदार राज्यों की सीमा विश्वव्यापी हो गयी है। संयुक्त राष्ट्र में सदस्यों की संख्या 51 (1945) से बढ़कर 191 हो गई है। वे सब अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाते हैं। दूसरे यह कि अब विश्व राजनीति का संचालन पारदर्शी हो गया है, जिसमें सामान्य नागरिक भी (जनमत की अभिव्यक्ति के द्वारा) विदेश विभागों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं। आज न केवल इतना ही हुआ है बल्कि परमाणु हथियारों की वजह से युद्ध का स्वरूप बदल गया है और पुराने शक्ति सन्तुलन की जगह भय का सन्तुलन स्थापित हो गया है। साथ ही राजनय का भी स्वरूप बदल गया है। आज हम जेट युग में रह रहे हैं। अब राज्य एवं सरकार के मुखिया तथा विदेश मन्त्री पूरी दुनिया की यात्रा करते हुए अपना निजी सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के कार्य-व्यापार का संचालन करते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध से पहले इंग्लैण्ड से भारत आने वाले यात्री को 20 दिनों की समुद्री यात्रा करनी पड़ती थी। आज दिल्ली से लन्दन की दूरी तय करने में एक जेट विमान को 9 घण्टे से भी कम समय लगता है। टेलीफोन, फैक्स मशीनों, टेलीप्रिन्टर तथा अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों की बदौलत सरकारों के मुखिया एक-दूसरे के निजी सम्पर्क में आ गये हैं। हॉटलाइन संचार वाशिंगटन एवं मास्को के बीच दुनिया के शीर्ष नेतृत्व को एक-दूसरे के सम्पर्क में रखता है। फलस्वरूप वर्तमान में राजदूतों की स्वयत्तता कम हुई है क्योंकि अब उन्हें अपनी सरकारों से निर्देश प्राप्त होते रहते हैं।

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, उपनिवेशवाद उन्मूलन के फलस्वरूप अनेक स्वतन्त्र और सम्प्रभु राज्यों का उदय हुआ है। यूरोपीय सत्ता के अधीन जो पुराने उपनिवेश थे, जिनमें भारत भी शामिल था, आज स्वतन्त्र होकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। आज वे विश्व राजनीति में अपना दखल रखते हैं। सोवियत संघ के बिखराव से संयुक्त राष्ट्र में उसके मतों की संख्या में 3 के बजाय 15 की बढ़ोत्तरी हुई है। अत्यन्त छोटे देशों के पास शक्ति भले ही न हो किन्तु उन्हें भी आज महासभा में अपनी बात रखने का बराबर अधिकार है। 1990-93 के दौरान चार अत्यन्त छोटे देशों- लीचेन्स्टीन, सान मैरिनो, मोनैको और एण्डोरा- को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता प्रदान की गई। संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या जहाँ 1945 में 51 थी, वहीं आज 2006 में ये बढ़कर 191 हो गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आज अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संचालन अनेक नये राष्ट्र-राज्यों द्वारा भी होता है। इसके अलावा अनेक गैरराज्यीय तत्व जैसे, बहुराष्ट्रीय निगम तथा बहुउद्देशीय निकाय, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ के पतन होने से संयुक्त राज्य अमेरिका एक एकल महाशक्ति के रूप में उभरकर सामने आया है और अब वह बिना किसी चुनौती के विश्व राजनीति पर अपना दबदबा स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। हालाँकि गुट- निरपेक्ष आन्दोलन अब भी कायम है, परन्तु उसकी भूमिका में बदलाव आया है।

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